Advertisement

भाजपा सात साल में सबसे कमजोर, विपक्ष के पास मौका भरपूर, उतरेगा खरा?

“विधानसभा चुनावों के नतीजों और कोविड-19 की दूसरी लहर के कारण पिछले सात साल में शायद पहली बार भाजपा और...
भाजपा सात साल में सबसे कमजोर, विपक्ष के पास मौका भरपूर, उतरेगा खरा?

“विधानसभा चुनावों के नतीजों और कोविड-19 की दूसरी लहर के कारण पिछले सात साल में शायद पहली बार भाजपा और उसका केंद्रीय नेतृत्व बैकफुट पर, मगर क्या विपक्ष मुकाबले की एकजुट ताकत दिखा पाएगा”

पल में तोला, पल में मासा मुहावरा अगर कहीं सबसे ज्यादा चौंकाता है तो वह है राजनीति। अचानक कोई एक घटना सब कुछ बदल देती है। कुछ महीने पहले तक अपने को हर चुनौती से परे मानने वाली भारतीय जनता पार्टी (भाजपा) की प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी और केंद्रीय गृह मंत्री अमित शाह की जोड़ी 2 मई को चार राज्यों और एक केंद्र शासित प्रदेश के चुनावी नतीजों के बाद अपनी चमक खोती हुई लगी। बेशक, इस बीच महामारी कोविड-19 की दूसरी लहर ऐसी अप्रत्याशित कहर बरपा कर गई कि बची-खुची चमक भी धूल-धूसरित नजर आने लगी। उसके बरक्स पूरब से लेकर दक्षिण तक नए क्षत्रप मानो कई गुनी ताकत के साथ उभरे। उससे देश के सियासी आसमान में सबसे चमकदार सितारा बनकर उभरीं पश्चिम बंगाल की मुख्यमंत्री ममता बनर्जी जब मोदी-शाह की अजेय जोड़ी को हर मामले में चुनौती देने लगीं तो देश में विपक्ष के बाकी किरदारों के सितारे भी खिल उठे। उनमें मानो नई जान लौट आई। कांग्रेस भी कुछ खिली-खिली-सी नजर आने लगी, जो न सिर्फ असम, बल्कि केरल में भी वापसी का मौका गंवा बैठी, जहां वाम मोर्चे के पिनराई विजयन और मजबूत हुए।

यही नहीं, उत्तर प्रदेश में भी अखिलेश यादव की समाजवादी पार्टी कोविड की दूसरी लहर के चरम प्रकोप के लगभग ऐन पहले संपन्न हुए पंचायत और जिला परिषद के चुनावों में ठीक-ठाक कामयाबी से लहलहा उठी। सपा के साथ राष्ट्रीय लोकदल और चंद्रशेखर आजाद की आजाद समाज पार्टी को भी इन स्थानीय चुनावों ने काफी संबल प्रदान किया है। इन पार्टियों के जोश की एक वजह भाजपा को करीब 3000 सीटों में महज 600 के आसपास सीटें मिलना है। जाहिर है, अगला बड़ा मोर्चा उत्तर प्रदेश के चुनाव ही हैं, जो अगले साल 2022 के फरवरी में होने वाले हैं। ऐसे में भाजपा भी डरी हुई है और उसने कोर्स करेक्शन शुरू कर दिया है। इसी के तहत लखनऊ और दिल्ली में मंथन के अलावा कांग्र्रेस के युवा नेता जितिन प्रसाद को 9 जून को पार्टी में शामिल करवाकर फिजा बदलने की कोशिश की गई। इससे भाजपा में कितनी चमक लौटेगी और लखनऊ-दिल्ली के मंथन में क्या हुआ, उसके जिक्र से पहले कुछ और बातों पर नजर डाल लें।

नरेंद्र मोदी की सरकार ने कोर्स करेक्शन के प्रशासनिक और दूसरे उपायों से भी वह फिजा बदलने की कोशिश की है, जो कोविड की दूसरी लहर की बदइंतजामियों की वजह से प्रधानमंत्री की लोकप्रियता तक को धक्का पहुंचा चुकी है। कई सर्वे में उनकी लोकप्रियता में 22 फीसदी तक गिरावट का अनुमान है। सो, अचानक मोदी ने सबके लिए केंद्र से वैक्सीन का इंतजाम करने और गरीबों को राशन भी दिवाली तक मुहैया कराने का ऐलान किया। यह अलग बात है कि उन्होंने दोष राज्यों के माथे मढ़ने की कोशिश की। इसका ब्यौरा इसी अंक में दूसरी स्टोरी (सरकार बदले मगर बर्बादी के बाद) में विस्तार से है। सवाल है कि इतनेे कोर्स करेक्शन से क्या फिजा बदल जाएगी? यह तो चुनावों में पता चलेगा लेकिन भाजपा जितनी शिद्दत से चुनावों को लेती है, उससे यही लगता है कि कोर्स करेक्शन का सिलसिला जारी रह सकता है, यह अलग बात है कि उससे कामयाबी कितनी मिलती है।

 

ममता का मोर्चा

लेकिन क्या इतनी तेजी और दमखम से लक्ष्य की ओर विपक्ष के कदम बढ़ रहे हैं? ममता बनर्जी जरूर पूरे आक्रामक तेवर के साथ तैयारी में जुटी दिख सकती हैं। उन्होंने पिछले हफ्ते अपनी पार्टी के पुनर्गठन में एक व्यक्ति एक पद का ऐलान करके राज्य में भाजपा से नेताओं की घर वापसी का आकर्षण बनाए रखा है। इसके अलावा वापसी की चाहत रखने वाले कई पूर्व विधायकों और चुनाव में हारे नेताओं पर विचार के लिए एक समिति भी बना दी है। लेकिन उनकी असली नजर शायद भाजपा के मौजूदा विधायकों और सांसदों पर है, जिनके आने से पार्टी को 2024 में ताकत मिल सकती है। इसी वजह से भाजपा का केंद्रीय नेतृत्व भी किसी न किसी बहाने उन पर दबाव बनाए हुए हैं, जिसकी विस्तृत कहानी अगले पन्नों पर पढ़ी जा सकती है (संघर्ष का संघवाद)। लेकिन तृणमूल संगठन में फेरबदल का सबसे अहम पहलू मुख्यमंत्री के भतीजे अभिषेक बनर्जी को राष्ट्रीय महामंत्री बनाया जाना है। यह पद पार्टी में सबसे अहम है। अभिषेक उसके बाद प्रेस कॉन्फ्रेंस में ज्यादातर साफ हिंदी और अंग्रेजी में बोलकर भी संकेत दे रहे थे। उन्होंने कहा, ‘‘हां, हमारा लक्ष्य दूसरे राज्यों में पार्टी को स्थापित करना है लेकिन सिर्फ नाम के लिए नहीं, बल्कि सत्ता के लिए।’’

इसके बावजूद तृणमूल के लिए दूसरे बड़े राज्यों में पैठ बनाना मुश्किल है। तृणमूल या ममता जो बेहतर कर सकती हैं, वह यह है कि तमाम विपक्षी क्षत्रपों और राष्ट्रीय पैठ वाली कांग्रेस पार्टी को एक मंच पर लाने की कोशिश करें। हाल ही में उनकी पार्टी में शामिल हुए बेहद अनुभवी तथा वरिष्ठ नेता यशवंत सिन्हा आउटलुक से कहते हैं, ‘‘ममता विपक्ष को एकजुट करने की बेहतर स्थिति में हैं और उन्हें इसकी पहल करनी चाहिए।’’ 9 अगस्त को इसकी एक बानगी दिखी भी, जब किसान नेता राकेश टिकैत ममता से मिले। ममता ने उन्हें पूरे समर्थन का भरोसा दिया।

 

संदिग्ध क्षत्रप

लेकिन विपक्षी एका इतना आसान भी नहीं है, न ही अलग-अलग राज्यों के क्षत्रपों को एक मंच पर लाना। सिन्हा शंका जाहिर करते हैं, ‘‘कुछ सस्पेक्ट भी हैं। ओडिशा के मुख्यमंत्री नवीन पटनायक, तेलंगाना के मुख्यमंत्री के. चंद्रशेखर राव, आंध्र प्रदेश के मुख्यमंत्री जगन मोहन रेड्डी ऐसे केंद्र और भाजपा विरोधी मुहिम में शामिल होंगे क्या? कांग्रेस के मुख्यमंत्रियों और कांग्रेस नेतृत्व का क्या रुझान होगा, पता नहीं क्योंकि पार्टी चाहती है कि हर पहल की अगुआई सोनिया गांधी करें और पहल उनसे होती नहीं है।’’

राजनीति की करवटः स्टालिन (पीछे बाएं) भरोसमंद हो सकते हैं, लेकिन जगनमोहन रेड्डी, नवीन पटनायक, के. चंद्रशेखर राव को लेकर सवाल

 

कांग्रेस दुखती रग

दरअसल कांग्रेस सबसे बड़ी दुखती रग है। वह अपनी पार्टी का विस्तार क्या करेगी, बिखराव ही नहीं रोक पा रही है। जितिन प्रसाद के बाद फिर चर्चाएं राजस्थान की ओर बढ़ गई हैं। सचिन पायलट भी उसी युवा नेताओं की कड़ी में हैं जो पार्टी में अपने को उपेक्षित पा रहे हैं। हालांकि ज्योतिरादित्य सिंधिया का हश्र भी सभी देख रहे हैं। संभव है, कमजोर महसूस करता भाजपा नेतृत्व अब उन्हें कोई पद दे दे। यह भी सही है कि कांग्रेस के नेताओं को भाजपा में कोई ऊंचा पद मिलने की उम्मीद अभी भी कम ही है। लेकिन कई नेता डूबती कांग्रेस से अच्छा दूसरे पाले को ही समझ रहे हैं। जहां पार्टी मजबूत है, वहां भी उससे अपना कुनबा संभाले नहीं बन रहा है। राजस्थान में कलह के बादल फिर घने होने लगे हैं तो पंजाब में पिछले हफ्ते ही दिल्ली में बैठक बुलाकर मुख्यमंत्री कैप्टन अमरिंदर सिंह और नवजोत सिंह सिद्धू समेत असंतुष्ट खेमे के बीच सुलह कराने की कोशिश हुई। मध्य प्रदेश में दमोह उपचुनाव जीत कर उत्साहित पूर्व मुख्यमंत्री कमलनाथ अचानक शांत से हो गए हैं। महाराष्ट्र और कर्नाटक की इकाइयों में अभी भले मामले शांत दिख रहे हों मगर बिखराव की गुंजाइश से इनकार नहीं किया जा सकता है। इसी तरह त्रिपुरा में पूर्व कांग्रेस अध्यक्ष प्रद्योत देव बर्मन को पार्टी अपने साथ नहीं ले पाई है जबकि उनकी क्षेत्रीय पार्टी आदिवासी परिषद की सीटों में बड़ा बहुमत हासिल कर चुकी है। इसके अलावा कांग्रेस की सबसे दुखती रग तो नेतृत्व पर सन्नाटा है।

भरोसेमंद क्षत्रप

हालांकि विपक्ष के खेमे में तमिलनाडु में मुख्यमंत्री एम.के. स्टालिन और केरल के मुख्यमंत्री पिनराई विजयन के रुझान पर कोई संदेह नहीं जताया जा सकता। इसी तरह बिहार में तेजस्वी यादव का राजद भी गैर-भाजपाई खेमे का मजबूत स्तंभ हैं लेकिन 2024 के लोकसभा चुनावों में भी क्या वे 2020 जैसा दमखम दिखाकर ज्यादा सीटें निकाल पाएंगे, यह सवाल बना हुआ है। हरियाण किसान आंदोलन के कारण भाजपा की झोली से फिलहाल तो खिसकता नजर आ रहा है लेकिन क्या यही जोर 2024 तक बना रहेगा? वैसे भी पंजाब, हरियाणा को मिलाकर कुल 24 सीटें ही हैं। किसान आंदोलन का जोर तो राजस्थान में भी है लेकिन वहां की स्थिति अभी स्पष्ट नहीं है।

 

उत्तर प्रदेश कथा

सबसे बड़ा मोर्चा उत्तर प्रदेश का है, जहां 80 संसदीय सीटें हैं और उत्तराखंड को मिला दें तो 85 सीटें बनती हैं। मोटे तौर पर भाजपा का कोर इन्हीं हिंदी प्रदेशों और पश्चिम के गुजरात और महाराष्ट्र में है। इसलिए उत्तर प्रदेश भाजपा के लिए भी अहम है और विपक्ष के लिए भी। उसी प्रदेश को लेकर भाजपा परेशान है और लगातार उस पर पकड़ बनाए रखने के लिए मंथन कर रही है। वहां से विपक्ष के लिए अच्छी खबरों की सुगबुगाहट खासकर पंचायत चुनावों से मिली है। लेकिन वहां विपक्ष के कई टुकड़े हैं। शायद इससे भाजपा कुछ आश्वस्त तो है, लेकिन प्रदेश में मिल रहे रुझानों से ज्यादा सतर्क है। अभी भी कोविड से हुई तबाही की खबरें थमी नहीं हैं। हाल में आगरा के पारस अस्पताल में तथाकथित ऑक्सीजन मॉक ड्रिल का वीडियो वायरल हुआ तो अखिलेश यादव और प्रियंका गांधी को नया मुद्दा मिल गया। उसमें 22 लोगों के मारे जाने की खबर है। हालांकि स्थानीय अधिकारियों के मुताबिक अस्पताल की ही गफलत है, ऑक्सीजन की कमी नहीं थी। इसके अलावा, हाल में लखनऊ और फिर दिल्ली में भाजपा और राष्ट्रीय स्वयंसेवक संघ की बैठकों से मिले संकेत भी कोई शुभ नहीं हैं। सूत्रों पर यकीन करें तो राष्ट्रीय स्वयंसेवक संघ के एक अंदरूनी सर्वे में भाजपा को 60-65 और समाजवादी पार्टी के गठजोड़ को 200 से ज्यादा सीटें मिलने का अनुमान बताया गया है। ऐसे सर्वे पर भरोसा तो नहीं किया जा सकता लेकिन पंचायत चुनावों में मिले संकेत जरूर कुछ इशारा करते हैं। आगरा, कानपुर समेत पूर्वांचल से मिले रुझानों के मुताबिक ब्राह्मणों के भी काफी वोट सपा की ओर गए हैं।

असर का इंतजारः उत्तर प्रदेश में प्रियंका की सक्रियता कितना रंग लाएगी

यही नहीं, सपा ने पश्चिम उत्तर प्रदेश में जयंत चौधरी की पार्टी रालोद, आजाद समाज पार्टी और सैनी जाति की छोटी पार्टी के साथ लगभग समझौते को आखिरी रूप दे दिया है। इसी तरह मध्य और पूर्वी उत्तर प्रदेश में वह ओमप्रकाश राजभर के भागीदारी मोर्चे और अपना दल के साथ गठजोड़ की कोशिश कर रही है। वह बिंद, मल्लाहों में भी पैठ बनाने की कोशिश कर रही है। हाल में बसपा से बाहर किए गए राम अचल राजभर जैसे नेताओं को भी वह अपने पाले में लाने की कोशिश कर रही है। इसी तरह गैर-जाटव  दलित जातियों वाल्मीकि, पासी वगैरह में भी उसके साथ कांग्रेस के पैठ बनाने की कोशिशें चल रही हैं। हालांकि मायावती का अभी स्टैंड साफ नहीं है मगर वे शायद अकेले ही लड़ें।

यही भाजपा की चिंता का सबब है। अगर ब्राह्मणों की नाराजगी बनी रही तो उनकी प्रभावी 10-12 फीसदी तक आबादी नतीजों पर भारी असर डाल सकती है। इसी तरह गैर-यादव पिछड़ी जातियों और गैर-जाटव दलित जातियों का रुझान बदलता है तो संघ का बताया जा रहा वह सर्वेक्षण सच हो सकता है। इन जातियों के ही भाजपा की ओर आने से उसे 2014 से लगातार सफलता मिलती रही है। कहा तो यह भी जा रहा है कि संघ के नेतृत्व ने प्रदेश भाजपा में खेमेबंदियां खत्म करके एकजुट होने की बात की है और अपने कार्यकर्ताओं की सक्रियता बढ़ा दी है क्योंकि उत्तर प्रदेश की सत्ता जाने का मतलब केंद्र की गद्दी भी डोल सकती है।

खबरें तो ये भी हैं कि संघ की बैठक में यह भी तय हुआ कि अगले विधानसभा चुनाव मोदी के चेहरे पर नहीं लड़े जाएंगे क्योंकि नतीजे उलटे आने पर लोकप्रियता पर फर्क पड़ता है। इस खबर में अगर जरा भी सच्चाई है तो निश्चित ही यह विपक्ष के लिए अनोखे मौके की तरह है। फिर जैसे पेट्रोल-डीजल, खाद्य तेल और अन्य वस्तुओं की कीमतें बढ़ी हैं, उससे भी नाराजगी बढ़ी है। इसके अलावा बेरोजगारी का मुद्दा भी सिर चढ़कर बोल रहा है। कोरोना की दूसरी लहर में भी करीब डेढ़ करोड़ लोगों के रोजगार गंवा बैठने का अनुमान विशेषज्ञ जाहिर कर रहे हैं।

कहने का मतलब यह कि मुद्दे और मौके दोनों भरपूर हैं, क्या विपक्ष इसे भुना पाएगा? क्या वह अपने बिखराव पर अंकुश रखकर एकजुट दम दिखाएगा? निश्चित रूप से यही सवाल आगे की सियासत तय करेंगे। देखें भाजपा और मोदी कोर्स करेक्शन से अपनी स्थिति संभाल पाते हैं या विपक्ष अपनी एकजुट रणनीति से उन्हें मात दे देता है।

Advertisement
Advertisement
Advertisement
  Close Ad