उम्र के नौंवे दशक में भी महाराष्ट्र के दिग्गज योद्धा शरद पवार चुनाव आते ही खिल उठते हैं, उनकी भुजाएं फड़कने लगती हैं, वाणी में वही जोश और जज्बा फूटने लगता है जैसा सत्तर और अस्सी के दशक में जवानी के दौर में हुआ करता होगा। बेशक, अभी कुछेक दिनों पहले सतारा में उनका भाषण कैंसर से चल रही जंग से चेहरे में आई विकृति के कारण धीमा था, लेकिन उनकी बोली ऊर्जा से लबरेज थी। उन्होंने ऐलान किया, “चाहे 84 साल हो या 90, यह बूढ़ा नहीं रुकेगा, जब तक महाराष्ट्र सही रास्ते पर नहीं आ जाता, चैन नहीं लूंगा।” यह सुनते ही भीड़ में भारी शोर गूंजने लगा। फिर, बारामती में अपने चचेरे पोते युगेंद्र के पर्चा भरने के दौरान पहुंचे पवार कहते हैं, ‘‘मैंने कभी घर नहीं फोड़ा। घर फोड़ने वालों की नीयत ठीक नहीं होती। उन्हें सबक सिखाना जरूरी है।’’ युगेंद्र उनके भतीजे अजित पवार के खिलाफ मैदान में हैं, जो उनका साथ छोड़कर महायुति सरकार में उप-मुख्यमंत्री हैं। शरद पवार को जो लोग ‘भटकती आत्मा’ कहकर खारिज करने की जुर्रत कर रहे थे उनके लिए संदेश साफ था। उनके कहे में एक विद्रोही भाव था कि जब तक भारतीय जनता पार्टी (भाजपा) की शिकस्त नहीं हो जाती, वे विराम नहीं लेंगे। भाजपा को सत्ता से बाहर करने की विपक्षी गठबंधन महा विकास अघाड़ी (एमवीए) की योजना में कांग्रेस और शिवसेना (उद्धव बालासाहेब ठाकरे) के साथ राष्ट्रवादी कांग्रेस पार्टी (राकांपा-शरद पवार) की भी मुख्य भूमिका है और अब सबकी निगाहें श्ारद पवार पर हैं। ठीक ऐसे ही या उससे कुछ ज्यादा युवा जोश के साथ बालासाहेब ठाकरे के बेटे उद्धव ठाकरे लगभग हर सभा में गरजते हैं, ‘‘मुझे नकली संतान कहने वालों और गद्दारों को पता चलेगा कि कौन नकली है, कौन असली। महाराष्ट्र मराठी मानुष से चलेगा, गुजरात से नहीं।’’
शरद पवार
दरअसल, पवार और उद्धव ठाकरे के लिए महाराष्ट्र की 288 सदस्यीय विधानसभा का यह चुनाव अपनी विरासत को बचाने की निजी लड़ाई भी है। राजनैतिक जानकारों के मुताबिक, यह चुनाव उनके राजनैतिक अस्तित्व की अग्निपरीक्षा है क्योंकि सत्तारूढ़ भाजपा की ताकत और जोड़तोड़ की रणनीति के चलते क्षेत्रीय दलों के हाशिये पर जाने का खतरा है। वरिष्ठ पत्रकार और मराठी दैनिक लोकसत्ता के संपादक गिरीश कुबेर कहते हैं, “भाजपा की एकध्रुवीय कथित राष्ट्रवादी राजनीति के खिलाफ राकांपा और शिवसेना के लिए अपनी पहचान और क्षेत्रीय राजनीति को ताकतवर बनाना अस्तित्व बचाने की लड़ाई है।”
पिछले साल राकांपा दो धड़ों में बंट गई थी। पवार के भतीजे और वरिष्ठ नेता अजित पवार अधिकांश विधायकों के साथ पार्टी छोड़कर सत्तारूढ़ भाजपा और एकनाथ शिंदे के नेतृत्व वाले शिवसेना के गठबंधन महायुति की सरकार में शामिल हो गए थे। उसके बाद शरद पवार के पास सिर्फ 14 विधायक बचे। पार्टी के नेताओं का दावा है कि इसका मकसद शरद पवार के राजनैतिक करियर को खत्म करने और राकांपा के क्षेत्रीय असर को कम करना था। प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी ने इसी साल लोकसभा चुनावों के दौरान ‘भटकती आत्मा’ कहकर शरद पवार की खिल्ली उड़ाई थी और उन्हें भाजपा में आने का सुझाव दिया था।
इसी तरह शिवसेना में भी 2022 में टूट हुई थी। शिंदे अधिकांश विधायकों के साथ अलग हो गए और तत्कालीन मुख्यमंत्री उद्धव ठाकरे को पद छोड़ना पड़ा तथा एमवीए सरकार का पटाक्षेप हो गया था। उसके बाद शिंदे को मुख्यमंत्री बनाया गया और भाजपा के पूर्व मुख्यमंत्री देवेंद्र फड़नवीस उप-मुख्यनमंत्री बना दिए गए। बाद में अजित पवार भी उप-मुख्यमंत्री बनाए गए। गौरतलब है कि अजित पवार को तोड़ने की मजबूरी यह नहीं थी कि शिंदे सरकार पर कोई संकट था। दोनों ही पार्टियों के अधिकांश विधायकों को तोड़ा गया था। आखिरकार ठाकरे और पवार दोनों को अपनी पार्टियों के मूल चुनाव चिन्हों और आधिकारिक नाम से भी चुनाव आयोग ने वंचित कर दिया था। ऐसे में ठाकरे और पवार दोनों के ये आरोप बेदम नहीं हैं कि कोशिश उनका वजूद ही मिटा देने की थी। इस अभूतपूर्व राजनैतिक उथल-पुथल से राज्य का समूचा राजनैतिक समीकरण उलट गया।
उद्धव ठाकरे
दोनों क्षेत्रीय दल अब बंटकर चार हो गए हैं! शिंदे शिवसेना और अजित पवार राकांपा भाजपा के पाले में हैं। विपक्ष में शिवसेना (उद्धव बालासाहेब ठाकरे) और राकांपा (शरद पवार) हैं। ये विधानसभा चुनाव राकांपा, शिवसेना और उसके दो गुटों के लिए अग्निपरीक्षा होंगे। शिंदे और अजित पवार को अपनी विश्वसनीयता साबित करने के लिए अधिकतम सीटें जीतनी होंगी।
अजित पवार के सामने तो बेहद कड़ी चुनौती है, खासकर लोकसभा चुनावों में खराब प्रदर्शन के बाद, जिसमें उनका गुट सिर्फ एक सीट जीत पाया था। उन्हें न सिर्फ अपने गुट का प्रदर्शन बेहतर दिखाना होगा, बल्कि उन प्रमुख निर्वाचन क्षेत्रों में भी जीतना होगा जहां मुकाबला राकांपा-शरद पवार से है। लगभग 22 सीटों पर राकांपा के दोनों गुट आमने-सामने हैं। अजित खुद पवार परिवार की पारंपरिक सीट बारामती से अपने सगे भतीजे युगेंद्र के खिलाफ मैदान में हैं। शरद पवार ने उन्हें वहीं फंसाकर परिवार पर अपना वर्चस्व दिखाने की कोशिश की है। गौरतलब है कि यहां की संसदीय सीट से उनकी पत्नी पवार की बेटी सुप्रिया सुले से बड़े अंतर से हार गई थीं।
इसी तरह शिंदे के लिए भी ठाकरे धड़े के खिलाफ अधिकतम सीटें हासिल करना महत्वपूर्ण होगा। दोनों लगभग तीसेक सीटों पर आमने-सामने हैं। शरद पवार की ही तरह उद्धव ने भी शिंदे को उनकी पारंपरिक सीट पर घेरने के लिए थाणे-कल्याण इलाके के शिवसेना के दिग्गज नेता आनंद दीघे के भतीजे को खड़ा कर दिया है। बालासाहेब ठाकरे के साथ शिवसेना के संस्थापकों में आनंद दीघे रहे हैं और शिंदे उनके ही चेले बताए जाते हैं।
मराठी अस्मिता का सवाल
कुबेर कहते हैं कि मौजूदा परिदृश्य में उद्धव और शरद पवार को लोगों की काफी सहानुभूति हासिल है। आम धारणा है कि गैर-महाराष्ट्री पार्टी भाजपा ने मराठी स्वाभिमान की प्रतीक राज्य की दो पार्टियों राकांपा और शिवसेना को तोड़ दिया ताकि राजनीति में महाराष्ट्री की अपनी पहचान ही मिट जाए। कई राजनैतिक जानकारों के मुताबिक, इस धारणा ने लोकसभा चुनावों में भाजपा की सीटें काफी कम करने में अहम भूमिका निभाई थी। अगर यह धारणा विधानसभा चुनावों में कारगर रहती है और वोटों में बदलती है तो एमवीए के लिए सत्ता में वापसी की राह खुल सकती है। शायद इसी वजह से एमवीए के नेता हाल में गुजरात में टाटा एविएशन के भव्य उद्घाटन को भी मुद्दा बना रहे हैं जिसमें प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी मौजूद थे। यह कारखाना पहले महाराष्ट्र के पुणे में लगना था लेकिन पिछले साल गुजरात के चुनाव के वक्त उसे और तीन बड़ी परियोजनाओं को गुजरात ले जाया गया था। उद्धव इसे महाराष्ट्र को कंगाल करने की साजिश की तरह पेश करते हैं।
पुणे की एमआइटी वर्ल्ड पीस यूनिवर्सिटी में प्रोफेसर परिमल माया सुधाकर कहते हैं, ‘‘महाराष्ट्र की राजनीति लंबे समय से शिवसेना और राकांपा की क्षेत्रीय विशेषताओं से परिभाषित होती रही है, जो जमीनी स्तर पर मजबूत संबंध बनाए रखते हैं और संघीय ढांचे के भीतर क्षेत्रीय भावनाओं को मूर्त रूप देते हैं।’’
शिवसेना का असर मुंबई, पुणे, नासिक और कोंकण क्षेत्र के शहरी इलाकों में है, तो राकांपा को मराठा समुदाय के बीच मजबूत समर्थन प्राप्त है और पश्चिमी महाराष्ट्र में उसका दबदबा है। सुधाकर कहते हैं, ‘‘भाषाई राज्यों में क्षेत्रीय दलों का अस्तित्व हिंदीभाषी राज्यों के मुकाबले क्षेत्रीय भावनाओं को बढ़ाने और राष्ट्रीय स्तर पर राज्य की स्वायत्तता की रक्षा करने में महत्वपूर्ण है।’’ अपने गठन के बाद से ही शिवसेना और राकांपा की राजनीति क्षेत्रीय हितों की रक्षा के इर्द-गिर्द घूमती रही है। बाल ठाकरे ने 1966 में भूमिपुत्रों के एजेंडे के आधार पर शिवसेना का गठन किया था और पार्टी की राजनीति मूल मराठी पहचान और गौरव की रक्षा के इर्द-गिर्द केंद्रित थी। शरद पवार ने 1999 में कांग्रेस छोड़कर राकांपा बनाई और महाराष्ट्र की चीनी सहकारी समितियों और कृषि ऋण सहकारी समितियों में मजबूत नेतृत्व स्थापित किया है। शिवसेना और राकांपा के प्रभुत्व ने कांग्रेस और भाजपा जैसी राष्ट्रीय पार्टियों को पहले जूनियर पार्टनर की भूमिका निभाने के लिए मजबूर किया। यह 2014 तक था, जब 1989 से एक साथ रहने के बाद शिवसेना-भाजपा का भगवा गठबंधन टूट गया। हिंदुत्व की राजनीति के उदय और मोदी की बढ़ती लोकप्रियता के साथ भाजपा ने शिवसेना के तहत दूसरा स्थान हासिल करने से इनकार कर दिया।
उसके बाद से भाजपा ने राज्य की राजनीति पर अपनी पकड़ मजबूत की है और क्षेत्रीय दलों को हाशिये पर धकेल दिया, चाहे टूट करवाकर ही। 2019 में जब उद्धव ठाकरे के नेतृत्व वाली शिवसेना ने भाजपा से अलग होकर राकांपा और कांग्रेस के साथ सत्तारूढ़ एमवीए गठबंधन बनाया, तो राज्य सरकार और केंद्र के बीच संबंध कटु हो गए। केंद्र बनाम राज्य की लड़ाई में राज्य को आर्थिक नुकसान उठाना पड़ा क्योंकि कई विदेशी निवेश और औद्योगिक परियोजनाओं को दूसरी जगह ले जाया गया।
लंबे समय से शिवसेना के विशेषज्ञ रहे लेखक प्रकाश अकोलकर कहते हैं कि 2022 से महाराष्ट्र की अनूठी क्षेत्रीय पहचान को कमजोर करने के लिए राज्य में राजनैतिक जोड़तोड़ और खरीद-फरोख्त की राजनीति भाजपा ने शुरू की। भाजपा राज्य में अपनी उपस्थिति बढ़ाने के लिए क्षेत्रीय दलों का सहारा लेती है और सत्ता में आने के बाद चालाकी से उन्हें अपने में समाहित कर लेती है। वे ओडिशा में बीजू जनता दल और असम में असम गण परिषद का उदाहरण देते हैं। अकोलकर कहते हैं, ‘‘भाजपा महाराष्ट्र और झारखंड में क्षेत्रीय दलों के प्रभाव को खत्म करने की कोशिश कर रही है। वह ‘एक देश, एक भाषा’ के एजेंडे का प्रचार करती है और नहीं चाहती कि क्षेत्रवाद पनपे।’’ क्या शरद पवार की एनसीपी और उद्धव ठाकरे की शिवसेना इन चुनावों में वापसी करेगी और क्षेत्रवाद की ताकत को पुनर्जीवित करेगी या भाजपा अपने एकतरफा राष्ट्रवाद के साथ सफल होगी? विधानसभा चुनावों के नतीजे ही इस सवाल का जवाब देंगे।
हर कोई अपनी खातिर
महाराष्ट्र में दिवाली में राजनैतिक आतिशबाजियों का धूम-धड़ाका ही तेज रहा। विधानसभा चुनाव में अपने अनुकूल उम्मीदवार उतारने के लिए राजनैतिक दलों ने जटिल चुनावी गणित को और उलझाया, तो टिकट न मिलने से कई नेताओं ने फटाफट दूसरा पाला पकड़ लिया। कुल 288 विधानसभा सीटों के लिए सत्तारूढ़ महायुति और विपक्षी महा विकास अघाड़ी (एमवीए) सहित लगभग 8,000 उम्मीदवारों ने पर्चा दाखिल किया। वरिष्ठ पत्रकार और चुनाव विश्लेषक राजू पारुलेकर कहते हैं कि दोनों प्रतिद्वंद्वी गठबंधनों में से कोई भी एकजुटता दिखाने में कामयाब नहीं हुआ है- न तो भाजपा की अगुआई में मुख्यमंत्री एकनाथ शिंदे की शिवसेना और राष्ट्रवादी कांग्रेस पार्टी (अजीत पवार) की सत्तारूढ़ महायुति; और न ही कांग्रेस, शिवसेना (उद्धव बालासाहेब ठाकरे) और राकांपा (शरद पवार) की एमवीए।
वे कहते हैं, ‘‘ये दोनों ही स्वाभाविक गठबंधन नहीं हैं। पार्टियों की विचारधाराएं एक जैसी नहीं हैं और वे समान विचारधारा वाली सहयोगी नहीं हैं। वे एक-दूसरे की दुश्मन रही हैं और अब एक ही मुद्दे के लिए लड़ने को मजबूर हैं, लेकिन उनकी तलवारें और बंदूकें एक-दूसरे पर अब भी तनी हुई हैं।’’ पारुलेकर के मुताबिक, इसकी शुरुआत भाजपा की अतिराजनैतिक महत्वाकांक्षाओं के कारण हुई जिसे 2014 में पंख लग गए। ‘मोदी लहर’ और लोकसभा में भारी जीत के दम पर भाजपा ने शिवसेना के साथ 25 साल पुराना गठबंधन तोड़ दिया और महाराष्ट्र विधानसभा चुनाव अकेले लड़ने का फैसला किया।
उसके बाद महाराष्ट्र में केंद्र की मोदी सरकार की धमकियों और डराने-धमकाने के साथ ‘प्रतिशोध’ की राजनीति देखने को मिली। कई विपक्षी दलों के नेताओं को प्रवर्तन निदेशालय और भ्रष्टाचार निरोधक ब्यूरो जैसी राष्ट्रीय एजेंसियों की जांच और छापेमारी का सामना करना पड़ा। डर के मारे वे अपनी मूल पार्टियों से अलग होकर महायुति गठबंधन में शामिल हो गए। विपक्षी नेताओं, जिनमें कई मौजूदा विधायक थे, के सत्तारूढ़ गठबंधन दलों में शामिल होने से उसकी ताकत बढ़ गई। उसने 2024 के विधानसभा चुनावों में उन्हें टिकट देने का भाजपा पर अतिरिक्त बोझ भी डाला। लिहाजा, अधिकतम सीटों के लिए महायुति गठबंधन के भीतर खूब धींगामुश्ती चली।
लोकलुभावनः मुख्यमंत्री शिंदे के साथ लड़की-बहना योजना की शुरुआत करते नरेंद्र मोदी
भाजपा 148 विधानसभा सीटों पर चुनाव लड़ रही है, जो सभी प्रमुख राजनैतिक दलों में सबसे अधिक है। इसके अलावा, 13 भाजपा नेता शिवसेना (शिंदे) के टिकट पर और 6 राकांपा (अजीत पवार) के टिकट पर चुनाव लड़ रहे हैं। इस तरह भाजपा की कुल सीटों की संख्या 167 हो गई है। उसने महायुति में छोटे सहयोगियों को भी पांच सीटें दी हैं। शिंदे की शिवसेना ने 80 सीटों और अजीत पवार की राकांपा ने 53 सीटों पर अपने उम्मीदवार उतारे हैं। उधर, विपक्षी एमवीए में कांग्रेस 103 सीटों पर, शिवसेना (यूबीटी) 89 पर और राकांपा (शरद पवार) 87 सीटों पर लड़ रही है। पाटिल ने टिप्पणी की, ‘‘भाजपा अब तक की सबसे अधिक सीटों पर चुनाव लड़ रही है क्योंकि 2019 में की गई रणनीतिक गलती के कारण उसे अ॓ भी अगला मुख्यमंत्री अपनी पार्टी बनाने का भरोसा नहीं है।’’ सीट बंटवारे और टिकट वितरण पर टकराव से विद्रोह भी भड़का। भाजपा के कई, कांग्रेस से मधु चव्हाण और उल्हास बागुल और राकांपा से भाऊसाहेब भोईर जैसे करीब एक दर्जन उम्मीदवार निर्दलीय चुनाव लड़ रहे हैं। बागियों के अपने ही गठबंधन के आधिकारिक उम्मीदवारों के खिलाफ निर्दलीय चुनाव लड़ने से कई निर्वाचन क्षेत्रों त्रिकोणीय लड़ाई देखने को मिलेगी। पुणे स्थित चुनाव विश्लेषक अरुण गिरी का अनुमान है कि ये निर्दलीय और बागी उम्मीदवार अंतिम जीत का निर्धारण करने में प्रमुख भूमिका निभाएंगे।
2019 के विधानसभा चुनावों में लगभग 90 सीटें, यानी लगभग हर तीन में एक सीट पर जीत 10,000 से कम वोटों के अंतर से तय हुई थी। गिरी कहते हैं, ‘‘बहुत सारे करीबी मुकाबले हैं, इसलिए निर्दलीय उम्मीदवार वोटों को प्रभावित करेंगे।’’
भाजपा बनाम कांग्रेस
महाराष्ट्र में भाजपा की मौजूदगी पहले से मजबूत हुई हो, लेकिन वह राज्य में कांग्रेस की पैठ फिर से बढ़ने पर सतर्क है। देश की सबसे पुरानी पार्टी ने लोकसभा चुनाव में 13 सीटें जीती थीं जो भाजपा से चार ज्यादा थीं, हालांकि उसको मिले 16.7 फीसद वोट भाजपा के 26.7 फीसद से काफी कम थे (वजह कांग्रेस का कम सीटों पर चुनाव लड़ना था)। बेशक, कांग्रेस का शानदार प्रदर्शन शिवसेना (उद्धव) और राकांपा (एसपी) के समर्थन की बदौलत भी हुआ। भाजपा की असली फिक्र यह है कि विधानसभा में 2014 में 122 सीटों के शिखर से 2019 में उसकी संख्या घटकर 105 रह गई थी। 2024 के लोकसभा चुनाव में उसकी बढ़त सिर्फ 83 विधानसभा क्षेत्रों में थी। महायुति के चुनाव जीतने और सरकार बनाने के लिए भाजपा को कम से कम 80 सीटें जीतनी होंगी ताकि बागडोर उसके हाथ में बनी रहे। साथ ही शिंदे की शिवसेना और अजित की राकांपा को बाकी 65 सीटें लेकर आना होगा ताकि 145 सीटों के बहुमत के आंकड़े को छुआ जा सके।
भाजपा की एक बड़ी दुखती रग पार्टी से मराठाओं का मोहभंग है, जो मनोज जरांगे-पाटिल के नेतृत्व में आरक्षण के लिए आंदोलन में दिखाई देता है। मराठा समुदाय (आबादी में लगभग 12-16 फीसद) का मराठवाड़ा और पश्चिमी महाराष्ट्र क्षेत्रों में प्रभाव है, जहां 114 सीटें हैं। उसके जवाब में भाजपा अपने ‘माधव’ फॉर्मूले पर आश्रित है, ताकि पिछड़े माली, धनगर और वंजारी वोटों को गोलबंद किए जा सके, लेकिन जाति/धर्म के 450 वर्गों में बंटे पिछड़ों को एक ओबीसी पहचान में लामबंद करना आसान नहीं है। मराठवाड़ा (46 सीटें) के अलावा, भाजपा विदर्भ (62 सीटें) में भी कृषि संकट और ग्रामीण असंतोष की वजह से पिछड़ी हुई है। भाजपा के सामाजिक गठबंधनों में मतभेद पहले से ही उभर रहे हैं। मराठा-कुनबी जाति समूह के बाद दूसरा सबसे बड़ा सामाजिक समूह धनगर (गड़रिया समुदाय) भाजपा से इसलिए नाराज है कि वह उन्हें आदिवासी का दर्जा देने के 2014 के चुनावी वादे से मुकर गई।
कठिन परीक्षाः फड़नवीस, शिंदे, अजित पवार
महायुति ने आर्थिक रूप से कमजोर वर्गों के लिए कल्याणकारी उपायों को मंजूरी देकर ब्राह्मणों, राजपूतों, लिंगायतों और अगरियों जैसे छोटे जाति समूहों का सामाजिक समीकरण बनाने की कोशिश की है। इसके अलावा वह अपने मूल हिंदुत्व मतदाताओं को गोलबंद करने के लिए ध्रुवीकरण की राजनीति पर जोर दे रही है। लड़की बहना योजना के तहत उसने हर महिला को 1,500 रुपये की सौगात भी बांटी है।
उधर, कांग्रेस में लोकसभा चुनाव में अच्छे प्रदर्शन के बावजूद कई कमजोरियां हैं, लेकिन वरिष्ठ कांग्रेस नेताओं को इससे सुकून है कि पार्टी के मूल वोट आधार- मुस्लिम, आदिवासी और दलित- में एकजुटता दिख रही है, जैसा कि लोकसभा के नतीजों से स्पष्ट हुआ था। विदर्भ के नतीजों से यह भी संकेत मिला कि किसान पार्टी की ओर लौट रहे हैं। इस क्षेत्र में भाजपा और कांग्रेस के बीच सीधी टक्कर है, इसलिए कांग्रेस अपनी सीटों की संख्या बढ़ाने के लिए किसी एक नेता के बजाय स्थानीय क्षत्रपों पर भरोसा कर रही है। पार्टी नेताओं का दावा है कि उन्हें लोकप्रिय जनादेश मिल रहा है और उनका मानना है कि राहुल गांधी महत्वपूर्ण भूमिका निभा सकते हैं। पार्टी ने उन क्षेत्रों में अच्छा प्रदर्शन किया है जहां से उनकी ‘भारत जोड़ो यात्रा’ गुजरी थी।
नाना पटोले और कांग्रेस नेता
लड़ाई दोतरफा लग रही है, लेकिन महायुति और एमवीए दोनों को छोटे दलों और गठबंधनों से भी जूझना पड़ सकता है। मसलन, ‘परिवर्तन महाशक्ति’ मराठा नेताओं और किसान समूहों का तीसरा मोर्चा है। उसका नेतृत्व कोल्हापुर राजवंश के पूर्व सांसद संभाजीराजे छत्रपति कर रहे हैं। यह बाबासाहेब आंबेडकर के पोते प्रकाश आंबेडकर के नेतृत्व वाली वंचित बहुजन अघाड़ी (वीबीए), राज ठाकरे की महाराष्ट्र नवनिर्माण सेना (एमएनएस), असदुद्दीन ओवैसी की ऑल इंडिया मजलिस-ए-इत्तेहादुल मुस्लिमीन (एआइएमआइएम) और मनोज जरांगे-पाटिल के मराठा मोर्चा का छतरी गठबंधन है।
गिरी कहते हैं, ‘‘मतदाताओं के बीच पनप रहे गुस्से और आक्रोश को देखते हुए हमें आश्चर्यजनक परिणाम देखने को मिल सकते हैं।’’ महाराष्ट्र, खासकर मुंबई पर दबदबे की लड़ाई का एक आर्थिक पहलू भी है, लेकिन सबसे बड़ी लड़ाई बेशक शरद पवार और उद्धव ठाकरे की विरासत की है। पवार चाहें तो कांग्रेस में मिल जा सकते हैं, लेकिन ठाकरे के लिए तो यह करो या मरो की जंग है।