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पुस्तक समीक्षाः महज आदमी के लिए

यह काव्य संग्रह, उन पुरानी मान्यताओं को ध्वस्त’ करता है जो कहती हैं कि, ‘‘नया साहित्य पुराने...
पुस्तक समीक्षाः महज आदमी के लिए

यह काव्य संग्रह, उन पुरानी मान्यताओं को ध्वस्त’ करता है जो कहती हैं कि, ‘‘नया साहित्य पुराने साहित्य और पुरानी परंपराओं से विकसित होता है और इस परिप्रेक्ष्य में कवि या कलाकार देश-विदेश के पुराने साहित्य से कच्चा माल जुटाकर जड़ाऊ कलावस्तु तैयार करता है।’’

इस संग्रह की प्राय: सभी कविताओं में आम आदमी के जीवन की प्रत्येक गतिविधि और हलचल पर सतर्क नजर रखता कवि अपनी कवि दृष्टि को जन चेतना के साथ जोड़कर जिन कविताओं को यहां रचता है, उनसे जन-जीवन का इतिहास साफ प्रतिबिंबित होता है। यहां हमें बराबर वही हलचल और बेचैनी मिलती है, जो आम साधारण आदमी के या कहें, जन-मानस के महज आदमी के जीवन में मौजूद हैं।

संग्रह की प्राय: सभी कविताएं आजादी के बाद के मोहभंग, वर्ग और वर्ण संबंधी जटिलताओं, सत्ता और व्यवस्था की चालाकियों, क्रांति के पाखंड, मजदूरों की दयनीय अवस्था‍, लोक जीवन से गुम होती स्मृोतियां, हाशिए पर पड़े समाज की चिंता करती हुई विभिन्न  संस्थानों के साथ पर्यावरण पर भी टिप्पणी करती है। टिप्पणियां सूचनाधर्मी अखबारी वक्तव्य नहीं हैं बल्कि कवि के पत्रकार होने के कारण अपने नागरिक धर्म और कवि-कर्म के बीच रहस्यों का युक्ति-कौशल है।

उनकी कविताओं में मनोरंजन और रसिकता ढूंढ़ने वालों को निराशा होगी। उन्हें भी निराशा होगी जो कविता को किसी रहस्यलोक या मानसिक अंत:गुहों से निसृत होने वाली प्रक्रिया बताते हैं। आज जिस कविता की जरूरत है, वह हमारी जिंदगी में साथ दे सके, इस जिंदगी की वास्तविकता के साथ खड़ी हो सके, जीवन की कठोरता को साधने में मदद कर सके। जीवन के यथार्थ और इतिहास की खुरदुरी जमीन से बच कर चलने वाली कविता में यह क्षमता नहीं हो सकती।     संग्रह का शीर्षक ‘महज आदमी के लिए’ इसीलिए भी मानीखेज है।

महज आदमी के लिए

अरविन्द मिश्र

आईसेक्ट पब्लिकेशन, भोपाल

200 रुपये

165 पृष्ठ

समीक्षक: डॉ. रूपा सिंह, राजस्थान के अलवर में हिंदी विभाग में प्रोफेसर हैं।

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