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पुस्तक समीक्षा : छोटी आंखों की पुतलियों में (ताइवान डायरी)

देवेश पथ सारिया की कविताओं और अनुवादों से हिंदी-साहित्य पहले से ही परिचित है। उनकी रचनाओं में जो...
पुस्तक समीक्षा : छोटी आंखों की पुतलियों में (ताइवान डायरी)

देवेश पथ सारिया की कविताओं और अनुवादों से हिंदी-साहित्य पहले से ही परिचित है। उनकी रचनाओं में जो ईमानदारी देखने को मिलती है, वही हाल ही में प्रकाशित उनकी ताइवान डायरी में देखने को मिलती है। 'छोटी आंखों की पुतलियों में' जितना सुंदर और सूक्ष्म नाम है, उतने ही सूक्ष्म अनुभव इस किताब में भरे गए हैं। यह ताइवान में रह रहे एक भारतीय की डायरी है, जो अजनबी देश में रहने से उपजे असंख्य भावों की कहानी है। जिनमें उदासी और अकेलापन भी है लेकिन आत्मीयता और अपनापन भी।

“मैं एक दूसरी मिट्टी के पौधे जैसा अनुभव करता हूं, जिसे उखाड़कर कहीं और रोंप दिया गया है। पनपने के लिए मुझे अनुकूलन सीखना पड़ा, कुछ शाखाएं मुरझाईं, फिर भी टिके तो रहना ही है।”

हालांकि यह किताब मूलतः डायरी है, इसमें से संस्मरण और यात्रा-वृतांत की भी महक उठती है। यह इसलिए भी है क्योंकि उनकी डायरी से न हम सिर्फ़ उनके व्यक्तिगत जीवन और मानसिक परिस्थितियों से रूबरू होते हैं, बल्कि एक नए देश के राजनीतिक, सामाजिक, और नैतिक सरोकारों से भी। चूंकि यह संसार हमें एक लेखक की नजर से दिखता है, उसका रोचक होना स्वाभाविक ही है। किसी देश का यात्रा-वृतांत्त पढ़ना उस देश को एक पर्यटक की निगाह से देखने जैसा होता है। लेकिन चूंकि देवेश अब कुछ सालों से ताइवान में ही हैं, यह डायरी एक विदेशी के वहां के जीवन में घुलने-मिलने का वृतांत्त है। बकौल देवेश ताइवान में रेज़िडेंट वीजा बनाते वक़्त आपको एक मैन्ड्रिन नाम अपनाना पड़ता है ताकि वहां के मैन्ड्रिन-भाषीय कर्मचारी आपकी बेहतर सहायता कर सकें।

“यहां ताइवान में सब्ज़ियों का मोलभाव नहीं कर सकते थे, भाषा भी अड़चन थी ही। मैं तो यहां के विक्रेताओं का बताया दाम भी नहीं समझ पाता था। एक सब्जी वाली दाम बताने के लिए उतने सिक्के अपने पास से उठाकर बता देती थी जितने उसे मुझसे मांगने होते।”

पाठक की ऊंगली पकड़ जब देवेश ताइवान ले जाते हैं तो उन्हें सिर्फ़ बड़ी-बड़ी घटनाओं के नहीं, ऐसे बेहद सूक्ष्म अनुभवों के सामने ला खड़ा करते हैं। वह अनुभव जो दूर से देखने में शायद साधारण लगें पर वहां के निवासियों की मनोदशा बताते हैं। ऐसे ही सूक्ष्म किंतु विचारोत्तेजक अनुभवों को अलग-अलग अध्यायों के रूप में पिरोये हुए है यह डायरी।

हर इंसान की तरह यह लेखक भी ख़ुद को जगह-जगह अपने नए वातावरण की अपने मूल देश भारत से तुलना करने से नहीं रोक पाता। ‘दो घड़ीसाज़’ में तोहफे में मिली एक घड़ी को ठीक करवाने की प्रक्रिया से ही दो देशों के घड़ीसाज़ों के रवैये की अनायास ही तुलना हो जाती है। ‘साइकिल’ में भी ऐसा ही नॉस्टेल्जिया झलकता है। यह नॉस्टेल्जिया उनके शुरुआती लेखों में अधिक दिखता है। धीरे-धीरे फिर वह ताइवान में ढलते जाते हैं।

इस डायरी के एक अध्याय में देशभक्ति की अनोखी परिभाषा देखने को मिलती है। ‘अनानास पर अनबन’ में देवेश चीन द्वारा ताइवान से अनानास का आयात बंद करने के पश्चात ताइवानी जनता और सरकार द्वारा उठाए कदमों को चित्रित करते हैं। ताइवान से जो अनानास बड़ी मात्रा में चीन पहुंचते थे, उन्हें सब देशवासी अपने व्यंजनों में शामिल करना शुरू कर देते हैं। साथ ही नए व्यंजनों की भी खोज होती है। यह सब ताकि किसानों को नुकसान न झेलना पड़े। आज जब राजनीति देशभक्ति के नाम पर जिंगोइज़्म की हद पार कर चुकी है, ऐसे उदाहरण सीख बनकर सामने आते हैं।

डायरी से जहां एक ओर ताइवान की सुंदरता, मनोरम दृश्यों, और शांत स्वभाव के लोगों के बारे में पता चलता है, वहीं दूसरी ओर देवेश के स्वास्थ्य में आई परेशानियों के कारण उनके अस्पतालों के चक्करों के बारे में भी। वे कहीं-कहीं हताश होते हैं, कहीं पत्नी का साथ पाकर हिम्मत रखते हैं। एक दफा उन्हें एंडोस्कोपी के लिए एनेस्थीसिया भी लेना पड़ा, “मैं उस सपने में कुछ देर और ठहरना चाहता था। मुझे जॉन लेनन के लिखे उस गीत जैसा महसूस हो रहा था, ‘लूसी इन द स्काई विद डायमंड्स।’ जॉन लेनन पर आरोप थे कि यह गीत एलएसडी का महिमामंडन करता था जबकि लेनन का तर्क था कि यह उसने बच्चों की एक ड्राइंग देखकर लिखा है। मेरी स्थिति में, मैं दोनों व्याख्याओं से वाबस्ता था क्योंकि मैं नशे जैसा महसूस कर रहा था और मैंने खुद को बच्चे जैसा सपने में पाया था।”

एक जगह वह अपनी दिनचर्या में तीन स्त्रियों का वर्णन करते हैं। यह स्त्रियां उनकी दिनचर्या का हिस्सा बन चुकी थीं, ओवरब्रिज के नीचे खाने की वस्तुएं बेचती एक बुजुर्ग, एक मेडिकल स्टाफ, और एक फीजियोथेरेपिस्ट। समय के बीतते चक्र में तीनों अपनी जगह खाली करके चली जाती हैं, अलग-अलग कारणों से। किसी इंसान के जाने के बाद छूटी खाली जगह, नए देश में अधिक खाली जान पड़ती है।

इन सब व्यक्तिगत और राजनीतिक लेखों के साथ ही किताब में चार लेख साहित्य संदर्भ के साथ भी मौजूद हैं। इनमें देवेश के साहित्य के प्रति अटूट प्रेम और चिंता का सबूत मिलता है। एक लेख में उनके लेखन प्रक्रिया पर नजर जाती है तो दूसरे में युवा कविता को लेकर उनके विचारों पर। इन्हीं साहित्य-संबंधी लेखों में वह युवा लेखकों को उल्कापिंड या ग्रह बनने की इच्छा हटाकर तारा बनने की हिदायत देते हैं; क्योंकि तारे की अपनी चमक है।

एक नए देश और उसके लोगों को देवेश जी के लेंस से देखना सुखद रहा। 'ताइवान में पहला साल' से 'ब्लूबेरी क्रम्बल' तक उनके गद्य का बढ़ता शिल्प भी देखा जा सकता है। इसे पढ़कर जितना ताइवान के बारे में जाना, उतना ही इस कवि-लेखक के संघर्ष, जीवन और साहित्य को लेकर चिंताओं और उनके व्यवहार के भोलेपन और सत्यनिष्ठा को जाना।

छोटी आंखों की पुतलियों में (ताइवान डायरी)

देवेश पथ सारिया

प्रकाशन: सेतु प्रकाशन

पृष्ठ: 157

मूल्य: 299 रुपये

 

समीक्षक : शुभम नेगी

(बिलासपुर, हिमाचल प्रदेश में जन्म। बनारस से इंजीनियरिंग की पढ़ाई। कॉलेज के दिनों से ही नुक्कड़ नाटक में अभिनय और रंगमंच के नाटकों का लेखन, निर्देशन।फिलहाल मुंबई में डाटा साइंटिस्ट के तौर पर कार्यरत। 2022 में राजेंद्र यादव हंस कथा सम्मान का विशेष ज्यूरी अवॉर्ड।)

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