ब्रज श्रीवास्तव जी का नया कविता संग्रह, समय ही ऐसा है उनकी रचना प्रक्रिया, मनोभाव, सर्जनात्मकता को सरल और स्पष्ट रूप से हमारे सामने रख देता है। उनके लिए कविता छलावा, चुटकुलेबाजी नहीं बल्कि अपने समय के सच के साथ संवाद स्थापित करना है। इन कविताओं में कहीं भी बेवजह उत्तेजना, आक्रोश, आक्रमक तेवर, दिखाई नहीं पड़ता, बल्कि वे समय की विडंबना को रखते हुए देश, परिवेश और समाज में बदलाव की तरफदारी करते लगते है।
उत्तर आधुनिकता के इस समय में साहित्य को छोटी-छोटी सीमाओं में बांधा जा रहा है। साहित्य में विकेंद्रीकरण की प्रवृत्ति को बल मिला है। हम जिस समय में रह रहे हैं, उसमें मानव जीवन असंख्य चुनौतियों से घिरा है। जाहिर है कवि कर्म सरल और सुविधाजनक प्रयोजन नहीं है।
संग्रह में उनकी 73 कविताएं हैं, जो समय सापेक्ष हैं। कोरोना जैसी महामारी के बाद फिर से खड़ी हो रही हमारी इस दुनिया को आगे ले जाने के लिए बहुत सी चीजों की जरूरत है। उनमें सबसे अहम भूमिका विभिन्न कला की विधाओं की होगी। मनुष्य को मनुष्य बने रहने के लिए कला का बने रहना आवश्यक है। काव्य-कर्म भिन्न विधाओं में से एक है, जिसके द्वारा छोटी छोटी चीजों में बड़ी से बड़ी बातों को आसानी से रखा जा सकता है। बज्र इसी काव्य कर्म के समर्थक हैं। अपने इस संग्रह में वे अपने आसपास की कितनी ही छोट-छोटी घटना, परिघटना, क्रिया-प्रतिक्रिया को समोकर कविता में हमारे समय की अछूती चीजों का उदघाटन करते हैं। संग्रह की शीर्षक कविता समय ऐसा ही है में समय की पड़ताल करते हुए तीखी किंतु सरल भाषा में तंज करते हुए कहते हैं कि यह समय तानाशाह और चापलूसों की सांठ-गांठ का है और निशाने पर एक बार फिर कबीर ही आएंगे। वे इस विचार को आगे लेकर जाते है,
“चापलूस को अक्सर शर्म आती है
मगर बेशरम दिखाई देना
चुनता है वह”
समय ही ऐसा है इसी शीर्षक की अगली कविता में वे कहते है,
“लगभग दंभ को गर्व
समझा जा रहा है
समूहों में फैल गया है
इकाई से निकलकर
समय ही ऐसा है”
ब्रज अपनी कविता में जीवन के मर्म के बारीक से बारीक तंतु को पकड़ते हुए उसके अंदर छुपे गहरे अर्थ की ओर इशारा करते चलते है, अपनी कविता स्कूल और विषाणु में वे पूरी दुनिया को अपने घेरे में लेने वाले विषाणु के भयावह प्रकोप को कहते हैं, “संवेदनहीन लोग भी होते हैं विषाणु”
ब्रज कवि के आलावा पेशे से शिक्षक भी हैं और वे इसे बड़ी शिद्दत से लेते हैं। उनका शिक्षक होना कविता में एक वर्ग का प्रतिनिधित्व करना भी है। इस अर्थ में वे अलग और महत्व की कविता रचते हैं। शिक्षक के अपने पढ़ाए बच्चों के लिए मनोभाव, पर वे कहते है,
“हम उन्हें मन ही मन प्यार कर लेते हैं
जाने कहां, कैसे होंगे
वे बच्चे जिन्होंने बीस साल पहले
तोतली बोली में हमें एक
कविता सुनाई थी”
वे अपनी संवेदना में कितने गहरे और सघन है, इसका अनुमान पाठक को तब होता है जब वह उनके अत्यंत करीब से गुजरता है। ब्रज श्रीवास्तव की कविताओं में जन, आकाश, धरती, पेड़ , मिट्टी, के ध्वनि और स्वाद की अनेक छवियां मिलती हैं। साथ ही आपकी इन कविताओं में, बयानों, किस्सों, प्रसंगों, आकांक्षाओं, सपनों, मुहावरों, सूक्तियों की अविरल धारा बहती नजर आती है।
वे लगावों, संबंधों और आत्मीयता के कवि हैं। उनकी भाषा मनुष्य के मर्म की भाषा है। ऐसी ही एक कविता है, वह चला गया, इसे पढ़ने पर लगता है कि विराट मन का कवि अपने साथी को याद कर उसे इस दुनिया से शरीर छोड़ के चले जाने के बाद भी उसे हमारी स्मृति में सदा के लिए बसा देता है। कवि साथी मुस्तफा खान को याद करते हुए वे लिखते हैं,
“सुनने के बावजूद
रुक जाने की पुरजोर पुकारें
जाने को बिल्कुल तैयार न होने के बावजूद,
न जाने किसके साथ चलने के
इसरार पर
वह चला गया”
मेरा यह विश्वास है कि आपका यह संग्रह बौद्धिक, नैतिक और आत्मिक दृष्टि से संग्रहणीय है। अपनी विशेष छाप के कारण ये कविताएं बड़े पाठक वर्ग द्वारा पढ़ी तथा सराही जाएंगी।
समय ही ऐसा है
ब्रज श्रीवास्तव
बोधि प्रकाशन
150 रुपये
समीक्षकः मिथिलेश रॉय