आज विचारों, विचारों के मतभेदों, वैयक्तिक, सामाजिक दर्शन और इन सब से जूझते कॉमन मैन पर कहानियां लिखी और कही जा रही हैं। इन कहानियों में बीते हुए कल, आज और आने वाले कल की समझ है। पुरातन काल से समकालीन कहानियों का प्रधान विषय हांलांकि एक ही है, मनुष्य का संघर्ष। इस अप्रत्याशित और कई मायनों में अर्थविहीन और अनुचित मनुष्य जीवन की मर्यादा जीवन की पहेली सुलझाने या उस से पार पाने में नहीं, बल्कि केवल कोशिश और संघर्ष में है। इसी संघर्ष को पूरी निष्ठा से दिखाती हैं सुधांशु गुप्त के नवीनतम कहानी संग्रह ‘तेरहवाँ महीना' की कहानियां।
लौकिक संघर्षों के बिंबो द्वारा मन:स्थिति, भावनात्मक बुद्धि और अंतःकरण के परिश्रम की बात करती ये कहानियां जटिल विषयों को बड़ी सहजता से दिखाती हैं। भाषा की सादगी और सरलता गुप्त का सबसे महत्वपूर्ण और प्रभावशाली साधन है।
ताजगी इन कहानियों में आती है, ताजा समकालीन मुद्दों से। नई कहानी के मानकों की ओर देखा जाए तो ये कहानियां उन सभी पर खरी उतरती हैं। ये कहानियां अपने कथन में, अपनी वैयक्तिकता में पूर्ण हैं। ये किसी भी परंपरागत साधन या यंत्र का अनुसरण नहीं करतीं। खो रही है माँ, कॉफी, ताज और हरी आंखों वाला लड़का और नुक्ताचीं जैसी कुछ कहानियां अलग हैं और नई कहानी के जैसी अवैयक्तिक नहीं हैं। इस कारण बाकी कहानियों जैसे इनका विश्लेषण नई कहानी के तकनीकी तौर पर नहीं किया सकता। इनका प्रसंग परंपरागत कहानी के ज्यादा करीब है। गुप्त के कहानी लेखन की विविधता का इसी से पता चलती है।
एक छोटा सा झूठ कहानी ऐसे काल पर आधारित है, जिस से कुछ भी अछूता नहीं रहा। पर फिर भी इस में केवल तथ्यनुमा आख्यान है और कहीं भी नैतिक मूल्यों या सही गलत का दावा या शिक्षा नहीं है। ये नई कहानी विधा का बहुत ही महत्वपूर्ण मानक है। अवैयक्तिक का मतलब भाव रहित नहीं है। गाँठ कहानी में पाठक समाज और अपने शरीर में गामठ को महसूस करता है। खो रही है माँ में समय के चलायमान न होने की रसीद देता है और तेरहवाम महीना में अपने सारे अधूरे सपनों और उन सभी अनुभवों, जिन से वह वंचित रह गया है, उनसे रूबरू होता है।
मशीन आदमी और उसके यंत्रों के बीच एक अजब रिश्ते को दिखाता है। आवाजों की चोरी ऐसी अवस्था की बात करती है जिसका एहसास हर व्यक्ति को कभी न कभी जीवन के किसी पड़ाव पर जरूर हुआ है। हवा में जहर घुलने और उससे गूंगा होने या भावुक रूप से गूंगे हो चुके लोगों से बात करने की कोशिश की हताशा को कौन नहीं जानता। तीसरा शहर और एक आवाज़ बात करती है इंसान के जेहनी नक्शे और रिश्ते बनने-बिगड़ने के बारे में।
गुप्त के इस संग्रह की कहानियां व्यक्तिगत होने से आगे इंसानी अनुभवों, कुंठाओं और संघर्षों की बात करती हैं और अपने नए कथ्य शिल्प से हर तरह के पाठक के साथ एक जुड़ाव बनाती हैं। ये कहानियां इस समय के लिए, पढ़ने वालों और लिखने वालों के लिए बहुत महत्वपूर्ण हैं।
तेरहवां महीना
सुधांशु गुप्त
भावना प्रकाशन
225 रुपये
152 पृष्ठ
समीक्षकः स्वाति शर्मा