एक्स वाई का जेड वरिष्ठ गद्यकार एवं अनुवादक प्रभात रंजन के हालिया प्रकाशित कहानी संग्रह का शीर्षक है। इस पुस्तक की अधिकांश कहानियों की थीम को ध्यान में रखें तो लगता है यह शीर्षक न केवल विगत प्रेम प्रसंगों की याद दिलाता है बल्कि उस प्रेम की वर्तमान में प्रासंगिकता एवं प्रेमी की वापसी की स्थिति में संलग्नता की नई परिभाषा तलाश करने का प्रयास भी करता है।
पुस्तक की कहानियां संस्मरणात्मक हैं। कथाकार का कहन इन कहानियों को साधारण हो जाने से बचा लेता है। हाजिरजवाबी का इस्तेमाल कई जगह लाजवाब तरीके से किया गया है। 'समरहिल में डनहिल' कहानी में साहित्यिक दस्तावेजों का संकलन भी है। कहानी का मुख्य पात्र डनहिल सिगरेट के बहाने साहित्यकार कमलेश्वर और उनकी आवाज को याद करता है। सहज प्रवाह इस कहानी की खूबसूरती है। चूंकि यह एक प्रेम कहानी है इसलिए कुछ सुंदर प्रेम विषयक पंक्तियां भी इस कहानी में (अन्य कहानियों में भी) मौजूद हैं, “वह लड़की याद आई जिसकी आंखें बहुत पनियाली थीं। ऐसे जैसे गुलाब की पंखुड़ी के खिलते ही उसकी एक बूंद ढब से गिर जाए।”
इसी रौ में लिखी गई कहानी 'कभी यूं भी आ मेरी आंख में' एक लड़की के प्रेम में कहानी का प्रथम पुरुष 'तुझे हर बहाने से हम देखते हैं' वाले शायराना मोड में है। अब वह हुसैन बंधुओं की कैसेट हो या हॉस्टल का जीवन, उसे वह लड़की ही याद आती है।
'यार को हमने जा बजा देखा' यानी प्रेमी को हर कहीं, हर जगह देखा। इस कहानी में प्रेम और अतीत संश्लिष्ट मात्रा में मौजूद हैं। इस कहानी में टांके का निशान एक प्रतीकात्मक अवयव है। इस निशान का मिट जाना और एक पुराने घाव का उभर आना दोनों एक साथ घटित होते हैं। अगली कहानी (धूप की गंध, मृत्यु की गंध होती है) में धूप उस प्रतीकात्मक अवयव की तरह काम करती है। सिंबॉलिज्म से चलकर कहानीकार धीरे-धीरे एब्स्ट्रेक्ट होने लगता है और अगली कहानी 'शार्ट फिल्म' को एक ओपन एंडिंग देकर छोड़ देता है।
'देश की बात देश का किस्सा' कहानी तक आते-आते पुस्तक राजनीतिक मामलों को छूने लगती है। यहां इमरजेंसी के दौरान छुपे रुस्तम की विजय होती है। राजनीति में जातिवाद एवं कूटनीति के प्रयोगों सहित एक आम आदमी द्वारा संसद पर मासूम वक्रोक्ति अंत में यही सवाल छोड़ जाती है कि गांधी का अंतिम आदमी आज भी न सत्ता को ठीक से जानता है और न अपने वजूद को। और सत्ता तो उसे केवल वोट के लिए जानती है।
'अनुवाद की ग़लती' कहानी के तार पत्रकारिता विषय के बहाने नक्सलवाद से जुड़ते हैं। इस कहानी में छुटभैया पत्रकारों के छोटे-मोटे लालचों का ज़िक्र भी है। कस्बों और छोटे शहरों में पत्रकारिता कुछ इसी तरह संचालित होती रही है। हालांकि इंटरनेट क्रांति का इस पर क्या असर हुआ और पत्रकारिता कितनी प्रासंगिक रह गई है, यह इस कहानी में नहीं बताया गया है। शायद यह बताने का स्कोप भी नहीं था। इसी क्रम में छोटे शहरों के छोटे राजनैतिक लोभ और दुखांत 'पत्र लेखक साहित्य और खिड़की' कहानी की आधारवस्तु हैं।
'किस्सा छकौरी पहलवान और चौतरा हनुमान का' संग्रह की सबसे अच्छी कहानी है। यह कहानी भारत में मान्यताओं के प्रसार और बाजार पर मार्मिक प्रहार करती है। यहां 'बाजार' शब्द मैंने इसलिए इस्तेमाल किया क्योंकि कहानी के अनुसार ही मंदिरों का भाग्य भी बदलता रहता है। इस कहानी में लेखक का विट अपने चरम पर है, “सड़कों की भीड़ कई बार यह भी बता देती है कि आसपास कोई मंदिर है। अनुभव से कह रहा हूं। किसी ख़ास दिन अचानक गाड़ी, पैदल, रिक्शा, टैंपो की भीड़ मंदिर का रास्ता बता देती है। जिस मंदिर में भीड़ बढ़ने लगती है, लोग उसे प्राचीन बताने लगते हैं। बचपन से आज तक कितने शहरों में इतने प्राचीन मंदिर देखे जितना कि यह देश भी प्राचीन नहीं होगा।”
संग्रह की शीर्षक कहानी 'एक्स, वाई का जेड' मुझे कई तकनीकों का मिश्रण लगती है और अपनी राह से तनिक भटकी हुई भी। यह सोशल मीडिया के युग में किसी पुराने प्रेम के उल्लेख से वर्तमान जीवन में होने वाली उठापटक को बयान करती है। यही बात अगली कहानी 'वह हमसफ़र था मगर उससे हमनवाई न थी' में कुछ आसान ढंग से कही गई है।
कुल मिलाकर संग्रह सहजता और प्रेम, छोटे कस्बों की राजनीति जैसे विषयों के कारण सामान्य पाठक के लिए पठनीय है।
एक्स वाई का जेड
प्रभात रंजन
शिवना प्रकाशन
149 रुपए
समीक्षक : देवेश पथ सारिया
(ताइवान में खगोल शास्त्र में पोस्ट डाक्टरल शोधार्थी। मूल रूप से राजस्थान के राजगढ़ (अलवर) से संबंध।)