ओम निश्चल
उदय प्रकाश बेशक आज कहानी के क्षेत्र में एक स्थापित हस्ताक्षर हैं, पर इससे पहले वे हमारे समय के एक चर्चित कवि हैं। हाल ही आए अंबर में अबाबील कविता संग्रह में जहां उन्होंने बहुत आत्मीय किस्म की कविताएं लिखी हैं, वहीं भाषा, देश, स्त्रियों के हालात और रोजमर्रा के जीवन के कठिन अनुभवों को संवेदनासिक्त कविताओं में पिरोया है। उदय प्रकाश की कविता हमारी सत्यचित वेदना में अपना स्वर मिलाती है तथा किसी भी मानवीय चीख को अनसुना नहीं करती। हम कविता में उदय प्रकाश की उपस्थिति पर विचार करते हुए यह न भूलें कि यह कवि अपनी कहानियों में लगातार विडंबनाओं पर प्रहार करता आया है।
आठवें दशक में उनके तमाम समकालीन कवियों में एक खास किस्म की होड़ मची थी। कोई प्रतीकों से खेल रहा था, कोई रूपक बुन रहा था। वे अपनी कविताओं में अपने समय को प्रतिबिंबित कर रहे थे। शुरुआती दौर के उनके कविता संग्रहों सुनो कारीगर और अबूतर कबूतर से भले ही एक इन्नोसेंट कवि की छवि उभरती हो, यह समय जैसे-जैसे चालाक और क्रूर होता गया, उनकी कविताओं में ‘ईंट की नींव हो तुम दीदी’ जैसे स्वर ओझल होते गए और ‘औरतें’ और ‘यह किसका शव’ जैसी कविताओं का यथार्थ आच्छादित होता गया।
अपने नए संग्रह अंबर में अबाबील में वे कहते हैं, “लगभग चार दशकों की लंबी अवधि के दौरान सदी ही नहीं, हजार वर्षों की काल रेखा खींचने वाली पूरी सहस्राब्दी बदल चुकी है.. दिक् और काल समय और यथार्थ बदल गया।” एक बौद्धिक मनुष्य के रूप में इन चार दशकों में उदय प्रकाश ने इन बदलावों को शिद्दत से महसूस ही नहीं किया, अनेक से वे एक मानवीय इकाई के रूप में गुजरे भी हैं। बौद्धिकों के पतनोन्मुख चरित्र की वेदना को भी गहरे महसूस किया है। अंबर में अबाबील इस वेदना की काव्यात्मक अभिव्यक्ति है।
अंबर में अबाबील संग्रह के पीछे अबाबीलों का भी एक स्मृतिपरक आख्यान कवि के मन में कहीं दुबका रहा है। बचपन में देखी गई अबाबीलें, आकाश में मंडराती हुई अबाबीलें, अपने अलग से घोंसले में रहने वाली अबाबीलें जो अपने ही घरौंदे की एक नवेली वास्तुकार हुआ करती थीं, कवि की स्मृति में घर बनाती हैं। पर गांव लौटती हैं अजनबी की तरह। विंध्य की पहाड़ियों के निकट चार दशकों बाद अपने घर पहुंचते हुए कवि को भी जैसे अपनी अजनबियत का आभास होता है। प्राकृतिक वनस्पतियों के बीच कवि का गांव आज सोन नदी के रेत माफियाओं की गिरफ्त में है। सोन नदी इस रेत खनन से जैसे मर रही है। कवि इसी मरती हुई सभ्यता और संस्कृति का शोकगीत लिखने के लिए बाध्य है। वह विस्थापित अबाबीलों के रूपक में विस्थापित तिब्बत, फिलिस्तीन और विस्थापित कश्मीर की वेदना को भी महसूस करता है।
उदय प्रकाश एक जीनियस हैं, पर यह वक्त शायद जीनियसों के लिए नहीं है। वे याद करते हैं कि जैसे अबाबीलों को कोई घर नसीब नहीं होता, उनकी कविताओं को भी कागज पर जगह नहीं मिली। लिहाजा ये साइबर स्पेस में अपने घर और अपने घोंसले की खोज में उड़ान भरती विस्थापित कविताएं हैं। उनमें यह बोध रात में हारमोनियम से प्रबल होता दिखता है, एक भाषा हुआ करती है में परवान चढ़ता है और अंबर में अबाबील तक आकर एक नैराश्य में बदल जाता है। अबाबील केवल अबाबील ही नहीं, खुद कवि का भी रूपक है। उसकी नियति को कवि अपनी नियति से जोड़ कर देखता है। उसे लगता है यह लिंचिंग का समय है। यह अबाबीलों के विस्थापन का समय है। अच्छे मूल्यों के विस्थापन का समय है।
इस संग्रह की कुछ कविताएं बहुत मार्मिक हैं। जैसे नक्षत्र, दुख और एक ठगे गए मृतक का बयान। पर बुद्ध को आधार बना कर लिखी सिद्धार्थ, कहीं और चले जाओ अलग से उल्लेखनीय है। कवि किसके लिए लिखता है? क्या सत्ता के लिए, क्या खुद के लिए? क्या इस तंत्र के लिए? क्या पीड़ित मनुष्यता के लिए? हां, वह जानता है कि उसका लेखन सत्ता-व्यवस्था के विरोध में है, लेकिन उसकी कविताएं व्यवस्था के लिए नहीं हैं, वे मनुष्यों द्वारा पढ़े जाने के लिए हैं। वे आज के भयावह परिदृश्य का तर्जुमा इन शब्दों में करते हैं- जो बोलेगा सच/अफवाहों से घेर दिया जाएगा उसे/जो होगा सबसे कमजोर और वध्य/उसे बना दिया जाएगा संदिग्ध और डरावना (सत्ता, अंबर में अबाबील)।
उदय प्रकाश के शब्दों में, “हर अच्छी कविता चिड़ियों के रैनबसेरे की मूल भाषा में होती है। हवा उसका अनुवाद कायनात के लिए करती है/ कुदरत उस रोजनामचे को बांचता है।” (कविता का बजट सत्र)। अरुंधति, मुझे प्यार चाहिए, मैं जीना चाहता हूं, भाग्यरेखाएं, उनका उनके पास, छह दिसंबर उन्नीस सौ बानवे, रेख्ते में कविता, भाषा बहती वैतरणी के साथ पुन: पुरानी तिब्बत कविता के साथ तिब्बत पर कुछ और बातों और बचपन में प्रवेश करते हुए संस्मरणों की शृंखला कवि ने अंत में जिस आत्मीयता से सहेजी है, वह उदय प्रकाश के काव्य संसार को समझने के लिए जरूरी है। 'भरोसा' कविता की पंक्तियां- साधू ठग निकल आये, बैंक बंद हो जाये/कतार में खड़ी खरे सर की अम्मां मर जाये/जहाज का मालिक विदेश भाग जाये आज की घटनाओं पर तंज करती हैं।
जिस उत्तर औद्योगिक, उत्तर आधुनिक समय में हम रह रहे हैं, जिस तरह आम आदमी के सुख-दुख, उसकी समस्याएं, सत्ता, पूंजी, कॉरपोरेट और आत्महीन चैनलों की आवाजों के कोलाहल में तिरस्कृत तथा ओझल हैं, उनकी गहरी शिनाख्त उदय प्रकाश ने अपनी कविताओं में की है। आचार्य रामचंद्र शुक्ल ने कहा था, जैसे-जैसे सभ्यता विकसित होती जाएगी, कवि कर्म कठिन होता जाएगा। इस कठिन कवि-समय में भी उदय प्रकाश ने हमारे समय के दारुण यथार्थ को कविता की सबसे विश्वसनीय इकाई में व्यक्त किया है।
अंबर में अबाबील (कविता संग्रह)
उदय प्रकाश
प्रकाशक | वाणी प्रकाशन
मूल्यः 199 रुपये | पृष्ठ: 152