ओम थानवी- महाराष्ट्र में डॉ नरेंद्र दाभोलकर और गोविन्द पनसारे की हत्या को अभी लम्बा समय नहीं गुजरा, आज कर्णाटक के धारवाड़ में एक और बुद्धिजीवी की हत्या कर दी गई - लेखक और इतिहासकार एमएम कुलवर्गी ने हत्या की आशंका जताई थी, फिर भी उन्हें सुरक्षा नहीं दी जा सकी। हम शांति और सूफीवाद की बातें करते हैं, और देश पता नहीं किस दिशा में जा रहा है।
मोहम्मद अनस- नरेंद्र दाभोलकर, गोविंद पंसारे जैसे हिंदुत्व विरोधी वैचारिकी वाले लोगों की हत्या करने के बाद आज एक और विद्वान की हत्या कर दी गई। इस देश में अब उन्हीं लोगों की लेखनी चलेगी जो ब्राह्मणवादी लाइन पर चलेंगे या उसके आसपास रहते हुए लिखेंगे। जो ऐसा नहीं करेंगे या तो वे गाली खाएंगे या फिर मार दिए जाएंगे। साथियों, बहुत खराब दौर है यह। चुप कराने के लिए मनुवादी रवैया अपनाया जा रहा है।
सुधा उपाध्याय- कलबुर्गी की हत्या की जितनी भी निंदा की जाए कम है।
बृजेश कुमार- हर रोज, हत्या होती, लोकतंत्र में,लोकतंत्र की ।
श्यामसुंदर बी मौर्या -अच्छे दिन लाए जा रहे हैं। कन्नड़ लेखक कलबुर्गी की हत्या की खबर किसी भी अखबार ने प्रथम पेज पर नहीं छापी है ...अधिकांश ने तो छापी भी नहीं है .ट्विटरबाज ने भी कोई ट्वीट किया क्या ?? आपको नहीं लगता सब सुनियोजित ढंग से हो रहा है ?
पंकज कुमार- हिंदू फासीवादी बजुर्गों की पूजा ही नहीं करते मुक्ति भी देते हैं।
कृष्ण कांत- कन्नड़ साहित्यकार एमएम कलबुर्गी की हत्या कर दी गई। साहित्य अकादमी प्राप्त कलबुर्गी हम्पी विश्वविद्यालय के कुलपति रह चुके थे। वह धार्मिक अंधविश्वास और सामाजिक अन्याय के आलोचक थे। इसके पहले धार्मिक अंधविश्वास पर अभियान चलाने वाले नरेंद्र दभोलकर और गोविंद पानसरे की हत्याएं हो चुकी हैं। ठीक वैसे ही जैसे बांग्लादेश में नास्तिक धर्मनिरपेक्षता के पक्ष में लिखने वाले चार ब्लॉगरों की हत्या हो गई। कुछ दिन पहले संघी गुंडों से उकताकर तमिल साहित्यकार पेरुमल मुरुगन ने अपनी मौत की घोषणा कर दी थी। भारतीय लोकतंत्र पाकिस्तान और बांग्लादेश की राह पर है। यदि सही गलत कहने के लिए आपके साहित्यकारों की हत्या की जा सकती है तो आप सब अपनी जुबान को आजाद न समझें। जबान कटने की अगली बारी आपकी होगी। यकीनन अब आप उदार भारतीय लोकतंत्र में नहीं, हिंदू तालिबान में रह रहे हैं। उन्माद से भरा यह संघी राष्ट्रवादी लोकतंत्र आप सबको मुबारक हो।
सत्यानंद निरुपम- साहित्य अकादेमी पुरस्कार से सम्मानित एक बुजुर्ग कन्नड़ लेखक को गोली मार दी गई। वे दिवंगत हो गए। हम उनके बारे में क्या जानते थे? हम उनकी हत्या की खबर किस तरह कब जान पा रहे हैं? क्या देश-हित में उनकी हत्या की जानकारी शीना की हत्या की खबर से कम महत्व की है ? हिंदीपट्टी की गपड़चौथ और टीआरपी बटोरू खबरों से बाहर भी है भारत जहां बहुत कुछ हो रहा है। हम उन खबरों से दूर रखे जा रहे हैं। हम उनके बारे में जानने को उत्सुक भी नहीं के बराबर ही हैं शायद। जो मारे गए हैं वो कोई गुमनाम लेखक नहीं थे। फिर भी उनका नाम कितना बेपहचाना -सा लगेगा आपको, खबर पढ़ कर देखें। सोचिए कि जो समाज अपने लेखकों, चिंतकों की परवाह नहीं करता, वह मूढ़मति क्यों न बन कर रहेगा।