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ड्रिब्लिंग और रफ्तार के जादूगर थे शाहिद

स्टिक के जादूगर मोहम्मद शाहिद के निधन से हाकी प्रेमी स्तब्ध। सरहद पार से भी किया खिलाड़ियों ने याद।
ड्रिब्लिंग और रफ्तार के जादूगर थे शाहिद

अपनी स्टिक की जादूगरी से दुनिया की तमाम टीमों और दुनियाभर के दिग्गज खिलाड़ियों को छकाने वाले मोहम्मद शाहिद की मृत्यु सचमुच एक युग के अंत के समान है। सिर्फ इसलिए नहीं कि भारत के लिए अंतिम बार स्वर्ण जीतने वाली भारतीय हाकी टीम के सदस्य थे, बल्कि इसलिए भी कि स्टिक की वैसी जादूगरी, वैसी ड्रिब्लिंग, प्रतिद्वंद्वियों को छकाने का वैसा कौशल, वैसी रफ्तार अब दिखती कहां है। पाकिस्तान की हाकी टीम के पूर्व कप्तान हसन सरदार ठीक ही कहते हैं कि उनके जैसे खिलाड़ी विरले ही होते हैं। लीवर और किडनी की बीमारी की वजह से अस्पताल में भर्ती होने के दिनों को छोड़ दिया जाये तो मोहम्मद शाहिद हाकी को लेकर हमेशा चिन्तित रहते थे। हाल ही में एक हिन्दी खेल पत्रिका में अपने कालम में उन्होंने लिखा था, ‘रणनीतियों की गुलाम होने के कारण भारतीय हाकी का गौरव खोता जा रहा है। विदेशी कोचों की जरूरतों पर सवाल उठाते हुए उन्होंने लिखा था,  यदि ये विदेशी कोच इतने ही अच्छे हैं तो अपने देश के कोच क्यों नहीं है। हम आठ बार के ओलंपिक चैम्पियन है और हमें इस पर गर्व है लेकिन मौजूदा हालात में हमें रियो ओलंपिक में किसी पदक की उम्मीद नहीं करनी चाहिये।‘

मैदान में आक्रामक लेकिन स्वभाव से बेहद विनम्र और जिंदादिल मोहम्मद शाहिद के फन का लोहा प्रतिदंवद्वी भी मानते रहे। पाकिस्तान हाकी टीम के पूर्व कप्तान हसन सरदार कहते हैं, ‘मैं हमेशा शाहिद से कहता था कि तुम पाकिस्तानी टीम में आ जाओ तो दुनिया की कोई टीम हमें नहीं हरा सकती। वह मुझसे कहता था कि तुम भारत की टीम में आ जाओ तो हम पूरी दुनिया को हरा देंगे। उसके जैसे खिलाड़ी विरले ही होते हैं जिनके पास ड्रिबलिंग कौशल भी हो और रफ्तार भी। मैदान के बाहर वह जितने करीबी दोस्त थे, मैदान पर उतने ही कट्टर प्रतिद्वंद्वी। चूंकि हम अपने अपने देश के लिये खेलते थे तो मैदान के भीतर मकसद एक दूसरे को हराने का ही होता था लेकिन मैदान से बाहर आने के बाद हम दोस्त थे। शाहिद जितना आला दर्जे का खिलाड़ी था, उतना ही उम्दा इंसान भी था। हमने बहुत अच्छे दिन साथ गुजारे।

हाकी मोहम्मद शाहिद के लिए सिर्फ एक खेल नहीं अपितु उनका जीवन थी। वर्ष 1982 में नई दिल्ली में एशियाई खेलों के फाइनल में पाकिस्तान के हाथों मिली हार को वे कभी भुला नहीं पाये। उस प्रतियोगिता में हसन सरदार भी पाकिस्तान टीम में थे और उन्होंने हैट्रिक लगाई थी। वे बताते हैं, ‘दिल्ली एशियाड के बाद दोनों टीमें एसांडा कप खेलने मेलबर्न चली गई। मुझे याद है कि उस हार के बाद शाहिद काफी दुखी थे और दोनों टीमें इसके तुरंत बाद आस्टेलिया में एसांडा कप में मिली तो काफी समय उन्होंने बात भी नहीं की। वहां फाइनल में भारत ने हमें 2 -1 से हरा दिया तो उन्होंने यही कहा कि ऐसा नतीजा एशियाड में मिलता तो अच्छा रहता।’

दिल्ली एशियाड में पाकिस्तान के कप्तान रहे समीउल्लाह शाहिद को याद करते हुए कहते हैं, ‘ मैं 1982 एशियाड में पाकिस्तान का कप्तान था और हमें पता था कि भारत को उसके दर्शकों के सामने हराना कितना कठिन होगा खासकर जफर और शाहिद शानदार फार्म में थे। हमने उन दोनों को रोकने के लिये खास रणनीति बनाई थी और कामयाब रहे। पाकिस्तान वह मैच 7 -। से जीता था।  भले ही हम वह फाइनल जीत गए हो लेकिन जफर और शाहिद की जोड़ी के फन का लोहा पूरी दुनिया ने माना था। उनका खेल देखने में बेहद मजा आता था। शाहिद कराची में 1982 में एशिया कप खेलने आया था और हमारी काफी दोस्ती हो गई थी। फिर वह 2004 में मुझे मिला तो मैने उसे सेहत का ध्यान रखने की सलाह भी दी थी। वह ऐसे चुनिंदा खिलाडि़यों में से था जिनके दम पर भारत और पाकिस्तान ने विश्व हाकी पर राज किया था।’

पूर्व हाकी खिलाड़ी एमके कौशिक मास्को ओलंपिक की यादों को ताजा करते हुए कहते हैं, ‘वह 1980 में काफी युवा था और हम उससे सीनियर थे। वह सभी का सम्मान करता और खूब हंसी मजाक करता लेकिन इसका पूरा ध्यान रखता कि कोई आहत ना हो। उसके ड्रिबलिंग कौशल ने भारत को स्वर्ण पदक जिताने में मदद की और पूरी दुनिया ने उसके फन का लोहा माना। पेनल्टी कार्नर बनाने से लेकर गोल करने तक में उसका कोई सानी नहीं था।  वह गरीब परिवार से निकलकर इस मुकाम तक पहुंचे थे। संयुक्त परिवार में रहने के कारण उनमें टीम भावना गजब की थी। उनकी जिंदादिली अंत तक उनके साथ रही और कभी उनको देखकर लगता ही नहीं था कि वह इतने बीमार हैं। हम अस्पताल में उनसे मिलने गए तो उन्होंने कहा था कि जल्दी ही ठीक हो जाऊंगा लेकिन होनी को यह मंजूर नहीं था।’

विश्व कप 1975 में भारत की खिताबी जीत के नायक और मेजर ध्यानचंद के बेटे अशोक कुमार कहते हैं, ‘ ध्यानचंद के बाद के दौर में इनामुर रहमान और पाकिस्तान के शहनाज शेख के अलावा किसी को ड्रिबल के लिये जाना गया तो वह शाहिद थे। दुनिया के महानतम ड्रिबलरों में से एक और 1980 ओलंपिक में तो उनका खेल शबाब पर था। मैं शाहिद को लखनऊ होस्टल के दिनों से जानता था जब हम इंडियन एयरलाइंस के सालाना शिविर के लिये केडी सिंह बाबू स्टेडियम जाते थे। मैं युवा लड़कों के साथ अभ्यास करना पसंद करता था जिनमें से शाहिद एक था। उसका खेल इतनी कम उम्र में भी सीनियर खिलाडि़यों की तरह था और मैं तभी समझ गया था कि एक दिन यह भारत के महानतम खिलाडि़यों में से एक होगा।’

वाराणसी के निवासी शाहिद ने 70 के दशक के आखिर में और 80 के दशक की शुरूआत में अपनी स्टिक की जादूगरी से दुनिया भर को मुरीद बनाया।  वाराणसी में 14 अप्रैल 1960 को जन्मे शाहिद ने 19 बरस की उम्र में फ्रांस के खिलाफ जूनियर विश्व कप के जरिये 1979 में अंतरराष्ट्रीय स्तर पर पदार्पण किया। वह 1980 में सीनियर टीम में आये जब वासुदेवन भास्करन की कप्तानी में भारत ने कुआलालम्पुर में चार देशों का टूर्नामेंट खेला। शाहिद को 1980 में कराची में चैम्पियंस ट्राफी में सर्वश्रेष्ठ फारवर्ड का पुरस्कार मिला। वह मास्को ओलंपिक 1980 में आठवां और आखिरी स्वर्ण पदक जीतने वाली भारतीय टीम के सदस्य थे। इसके अलावा उन्होंने 1982 दिल्ली एशियाई खेलों में रजत और 1986 में कांस्य पदक जीता। शाहिद 1986 की आल स्टार एशियाई टीम के भी सदस्य रहे। शाहिद उस भारतीय टीम का हिस्सा थे जिसमें जफर इकबाल, मर्विन फर्नांडिस, चरणजीत कुमार, एमएम सोमैया, सुरिंदर सिंह सोढी और एमके कौशिक जैसे धुरंधर थे लेकिन उन्होंने अपनी अलग पहचान बनाई। उन्हें 1980-81 में अर्जु पुरस्कार और 1986 में पद्मश्री से नवाजा गया। 1985-86 में भारतीय टीम के वह कप्तान रहे। बाद में वह वाराणसी में भारतीय रेलवे के खेल अधिकारी भी रहे। लंबे समय तक मैदान पर साथ रहे जफर इकबाल ठीक ही कहते हैं, ‘उनके जैसा खिलाड़ी मैंने अपने जीवन में नहीं देखा। हाकी जगत को यह अपूरणीय क्षति हुई है। मैदान पर हमारा शानदार तालमेल था। उनकी कमी खलेगी।’

एजेंसी

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