इस साल दुनिया भर में 20वीं सदी के सबसे महत्वपूर्ण स्पैनिश नाटककार फेडरिको गार्सिया लोर्का (1898-1936) की 125वीं जन्मशती मनाई जा रही है। लोर्का ऐतिहासिक गृहयुद्ध के सबसे चर्चित शिकार भी थे, जिसके बाद तानाशाह फ्रांको का उदय हुआ था। लोर्का के नाटक, खासकर ब्लड वेडिंग (1933), येर्मा (1934) और हाउस ऑफ बर्नार्डा अल्बा (1936) की त्रयी ने एकाधिक कला विधाओं में सक्रिय रचनाकारों पर भारी प्रभाव छोड़ा था।
लोर्का के सवालः लोर्का के नाटक बर्नार्डा अल्बा पर निहलाणी की बनाई फिल्म रुक्मावती की हवेली का दृश्य
फिल्मकार गोविंद निहलाणी 1991 में बर्नार्डा अल्बा की तर्ज पर बनाई अपनी फिल्म रुक्मावती की हवेली में दर्शकों को 20वीं सदी की शुरुआत में राजस्थान के एक गांव में ले जाते हैं। रुक्मावती ने पति की मृत्यु के बाद परिवार में पांच साल की शोक अवधि की घोषणा की। इस दौरान सभी को काले कपड़े पहनने थे और हर तरह के सामाजिक मेलजोल को तोड़ लेना था, लेकिन उनकी पांच जवान बेटियां- लोर्का के मूल नाटक में स्पैनिश बहनों की तरह- इस त्याग को बमुश्किल ही झेल सकीं। आंखों में चमक और अंगों में सिहरन लिए वे हवेली के भीतर और आंगन में काले, उदास साये की तरह मंडराया करती थीं। आखिर में जुनून और जीने की उत्कट इच्छा वर्ग, इज्जत-आबरू और परंपरा के दमघोंटू माहौल में मातृसत्ता की ज्यादतियों पर भारी पड़ती है तो त्रासदी से मातम का घटाटोप सन्नाटा तार-तार हो जाता है। उसकी छोटी बेटी रात में एक अनदेखे अजनबी से संसर्ग के बाद फांसी लगा लेती है, तब भी बुरी तरह टूट चुकी मगर अडिग रुक्मावती कहती है, ‘‘मेरी बेटी कुंवारी मरी’’, जो कोरा झूठ है- वैसा ही दयनीय और लाचार, जैसे निरंकुश सत्ता और प्रकृत्ति के नियमों की बुद्धिहीन, निर्मम अवहेलना से उपजे सैकड़ों झूठ होते हैं। ऐसी थीम जो धरती पर स्त्री जाति जितनी ही प्राचीन और इतिहास, विरासत, परंपरा वगैरह के नाम पर भारतीय लोकाचार में समकालीन दखल के प्रयासों जितनी नई है, उसके साथ निहलाणी के साक्षात्कार पर नए सिरे से गौर करने की दरकार है। वाकई इसमें शक है कि फिल्मकार को इसके लिए राजस्थान से बेहतर सेटिंग मिली होती, जैसे इसमें नृशंसता और वितंडा या पाखंड को उद्घाटित किया गया, जिसे वहां के पूर्व शासक, जमींदार और दूसरे सुविधा-संपन्न वर्ग शौर्य और साहस बताया करते।
हाउस ऑफ बर्नार्डा अल्बा का दृश्य
रुक्मावती जैसे बेहद कठोर और संकीर्ण पीछेदेखू नजरिये वाले लोग सिर्फ एक परिवार को ही नहीं, समूचे समाज या पूरे देश को बर्बाद कर सकते हैं। छोटे-बड़े सभी आततायियों के पुलिसिया नजरिये की आलोचना में रुक्मावती की हवेली भारतीय राजनीति में ऐसे तत्वों के खिलाफ लोगों को चेताती है, जो अपने क्षुद्र फायदों के लिए इतिहास की गति को मोड़ना चाहते हैं। ऐसे तत्व कभी हिंदीभाषी पट्टी में मजबूत हुआ करते थे, लेकिन अब उन क्षेत्रों में भी बाहुबल दिखाने लगे हैं जो पहले इससे अछूते थे। वे सभ्यता की सुई को पीछे खींचने में जरा नहीं सोचेंगे, बस हमेशा ‘‘प्राचीन गौरव’’ का मोहक मंत्र जपते रहते हैं (थोड़ी ढिठाई से एक बात कहने को जी चाहता है कि रुक्मावती युवा रूपकंवर को झूठी देवत्व/संन्यासिनी की पदवी से नवाजे जाने को खुले हृदय से स्वीकार करती, जिसे 1987 में राजस्थान के दिवराला में ससुराल वालों और गांव के बुजुर्गों ने उसके पति की चिता पर बैठा दिया था)।
लोर्का हिंसक अंत का शिकार हुए, जब वे 40 साल के भी नहीं थे क्योंकि उन्होंने यथास्थिति की राजनीति के बेतुकेपन और क्रूरता को देखा, उसे अपनी यादगार कविताओं, नाटकों और दूसरे लेखन में अभिव्यक्त किया। उनमें सामंतवाद, अंध-धार्मिकता और सैनिकवाद के खिलाफ खुला विद्रोह है। एक ही सांस में उन्होंने चर्च, जमींदार श्रेष्ठि वर्ग और सेना को खिलाफ कर लिया, जिससे घातक प्रतिगामी ताकतों के गठजोड़ की कल्पना भी शायद मुश्किल होगी। लोर्का की हत्या के लगभग नौ दशक बाद भी उन्हें याद करके दुनिया भर के लोग उन अतिगंभीर, विलक्षण विचारों और चमकते आदर्शों के प्रति आदरभाव जाहिर करते हैं, जिसके लिए वे मार डाले गए और जिन्हें उन्होंने खुबसूरत कविताई के अंदाज में पेश किया। यह समझना मुश्किल नहीं है कि आज के भारत में लोर्का खासकर इतने प्रासंगिक क्यों लगते हैं। आज अच्छी-खासी संख्या में भारतीय लोग ऐसे प्रतिक्रियावादी अफसाने में जकड़े हुए हैं कि उनकी संकीर्ण दृष्टि का विरोध करने वाले हर किसी को फौरन हमला झेलना पड़ सकता है। अतिशय या अंध-देशभक्ति अनेक स्वेच्छाचारी तत्वों के लिए सुरक्षित और फायदेमंद पनाहगाह है। बरट्रेंड रसेल युद्ध के वर्षों के दौरान अपने इन विचारों में सही साबित हुए, लेकिन ब्रितानी युद्धोन्मादियों के हाथों खासी परेशानियों से नहीं बच सके। एडवर्ड सईद अपने कई विशिष्ठ भाषणों और लेखों में यही नजरिया जाहिर कर चुके हैं। अपने असमय अंत के कुछ साल पहले जेएनयू और दिल्ली विश्वविद्यालय के छात्रों और अध्यापकों को अपने संबोधन में उन्होंने देशभक्ति के अतिवादी भाव को खारिज करते हुए दो-टूक कहा कि अंध-देशभक्ति के प्रति सहज समाजों को रूढि़वादियों और कट्टरवादियों के दमघोंटू फंदे में जकड़े जाने की भारी कीमत चुकानी पड़ती है।
लोर्का देशभक्त थे लेकिन उसी हद तक जितना उनका कवि मन तथा गेय प्रकृति, उनका सामाजिक विवेक, और वर्तमान की राजनैतिक सच्चाइयों की समझ-बूझ उन्हें इजाजत देती थी। उन्होंने कट्टरतावाद को तौबा कहा, जिसे कई लोग अपने देश और लोगों के प्रति दायित्व मान बैठने की गलती करते हैं। आज भारत में सत्तारूढ़ अंध-राष्ट्रवादियों के हाथों और उनकी डिजाइन में संदिग्ध क्षेत्रीय संगठनों से जुड़े मौकापरस्तों तथा हाथ साफ करने वालों की मदद से जैसी स्थितियां बन रही हैं, उसमें देश के लोगों के लिए इसमें महत्वपूर्ण सबक हैं, वे इसे अपनी कीमत पर ही खारिज कर सकते हैं।
(लेखक कोलकाता स्थित पुरस्कार प्राप्त फिल्म समालोचक और लेखक हैं)