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550वां प्रकाश पर्व: कलि तारन गुरू नानक आया

आज फिर से जरूरत है एक और बाबा नानक की जो मौजूदा परिस्थितियों में जगत की अगुआई कर सके
प्रकाशोत्सवः गुरु नानक की शिक्षा आज भी उनके जीवन काल जितनी ही प्रासंगिक

श्री गुरु नानक देव के धर्म, उनकी शिक्षाओं और उनके दर्शन में आखिर ऐसा क्या है कि यह धर्म इतनी तेज गति से विश्व भर में प्रचलित हो गया, ऐसी कोई दूसरी मिसाल कहीं और है भी नहीं। जाहिर है, कुछ तो रहा होगा बाबा जी की सोच में, जिसे अपनाकर उन्होंने आमजन को उस मार्ग पर चलाया, जहां अलौकिक आनंद की अनुभूति होती है, सामाजिक बराबरी होती है, और मेरा-तेरा का फर्क मिटाकर परमात्मा के सही स्वरूप के दर्शन करवाए। उनके 550वें प्रकाशोत्सव पर यह चर्चा करना बहुत सुखद लगता है कि दुनिया भर के जाने-माने और स्थापित धर्मों के बीच उन्होंने अपनी जगह कैसे बनाई और कैसे उसका दायरा बढ़ाया।

जब गुरु नानक देव का जन्म हुआ तो सही और सच्चे धर्म कहीं इसलिए नजर नहीं आ रहे थे, क्योंकि हर धर्म बुराई का प्रतीक बन चुका था। उनकी वाणी के अनुसार, धर्म पंखु कर उडरिया, अर्थात धर्म तो पंख लगाकर उड़ चुका था। 1469 में महता कालू के यहां जन्म लेते ही वे कुछ ऐसे संकेत देने लगे, जिससे लगा यह कोई अद्वितीय बालक है जो अलौकिक ज्ञान से भरपूर है। पढ़ने गए तो पढ़ाकर आ गए, बड़े हुए तो भैंसें चराईं, खेती की, नौकरी की और व्यापार भी किया। समाज के चलन के मुताबिक हर काम करके देखा लेकिन सुरति हर समय परमपिता से जुड़ी रही। सुल्तानपुर लोधी की काली बेईं नदी में स्नान करने गए तो एक अलौकिक ज्ञान की प्राप्ति हुई। तब उन्होंने सोचा कि धरा पर आने का जो असल मकसद है, उसके बारे में लोगों को बताया जाना चाहिए।

बाबा नानक की शिक्षाएं आज भी उतनी ही प्रासंगिक हैं, जितनी उनके जीवन काल में थीं। मजहबी कारणों से जितने सामाजिक सरोकार प्रभावित हो रहे थे, उनके निराकरण की आवश्यकता तो थी, लेकिन आगे कौन आए। और फिर उन्हीं की आड़ में लोगों को आपस में बांटकर अलग-अलग सरदारियां कायम थीं। धर्म तो दुकानों की तरह विचरण कर रहे थे। यह वही समय था, जब पश्चिम में विज्ञान पांव पसार रहा था, लेकिन ईसाई लोग इसलिए इसका खंडन कर रहे थे क्योंकि ये उनके वर्चस्व को सीधी चुनौती थी, इससे उनकी आय समाप्त हो सकती थी। जिस डिवाइन पावर को वे अपनी जेब में बताते थे, वह उनसे छिन सकती थी। धार्मिक आडंबरों और भगवान से डराकर ही तो पैसा ऐंठा जाता है। राजनीतिक तौर पर नेताओं और पोप में छत्तीस का आंकड़ा बना हुआ था। मार्टिन लूथर पोप को धता बताता था। ऐसे में किसी ऐसे शख्स की जरूरत थी जो ऊंच-नीच से ऊपर उठकर मानवता का उपकार कर पाता। बाबा नानक ऐसे समय ही प्रकट हुए। उन्होंने सबसे पहले कहा, आदि सच, जुगादि सच। अर्थात परमात्मा ही आदिकाल से सत्य है और युगों तक इसका अस्तित्व रहेगा, यही सच्चाई है। यदि कोई और यह दावा करता है कि वह स्वयं भगवान है या फिर भगवान का भेजा कोई पीर-पैगंबर है तो वह झूठ है।

वर्ण व्यवस्था पर करारी चोट करते हुए बाबा नानक ने कहा, नीचा अंदरि नीच जाति, नीचीहूं अति नीच, नानक तिन के संग साथ, वडिया सियों क्या रीस। अर्थात बाबा नानक तो समाज की सबसे नीच जाति के साथ खड़े थे। इसका असर यह हुआ कि दबा-कुचला वह वर्ग, जो तिरस्कृत था, जिसे वेद तक पढ़ने की इजाजत नहीं थी, जिसे धार्मिक अनुष्ठान करने की मनाही थी, जो बड़ी जाति वालों की जूतियों में बैठा करता था, वह वर्ग बाबा नानक का अनुयायी हो गया। जरा सोचें, आज भी ऐसे बहुत से मंदिर हैं, जहां तथाकथित नीची जाति वालों को प्रवेश नहीं मिलता। दूसरी तरफ गुरु जी एक कथित ऊंचे घराने और उच्च जाति में पैदा हुए तो जरूर लेकिन उन्होंने सारी बंदिशों को तोड़ डाला और नीच कहे जाने वाले वर्ग के साथ जाकर बैठ गए। एक पिता, एकस के हम बारिक। अर्थात जो भी मनुष्य है वह एक ही पिता की संतान है, तो फिर भेदभाव क्यों? गुरु जी ने अरब, मिस्र, चीन, तिब्बत, अफगानिस्तान, नेपाल और श्रीलंका तक भ्रमण करके धार्मिक सौहार्द का प्रचार किया, वो भी बिना किसी भय के। हिंदू बड़ा कि मुसलमान, इसके उत्तर में वे कहते हैं, बाबा आखे हाजीआ, सुभ अमलां बाझों दोनों रोई, हिंदु मुसलमान दोई, दरगह अंदर लहन न ढोई। अर्थात जब तक शुभ कर्म नहीं करेंगे फिर वो हिंदू हो या मुसलमान, उन्हें उस परमात्मा की दरगाह में शरण नहीं मिलने वाली। इस उपदेश का ही सदका था कि हर धर्म और हर वर्ग के लोग गुर नानक से जुड़ते चले गए। उन्होंने नफरत और अहंकार का शिकार और निम्न कहे जाने वाले लोगों की मुक्ति का बीड़ा उठा लिया और चल दिए चहुं दिशाओं में प्रचार करने।

गुरु जी की चार उदासियों (यात्राओं) का जिक्र भी यहां प्रासंगिक है। पहली उदासी के लिए वो हिंदू धर्म केंद्रों की ओर गए। भाई गुरदास लिखते हैं, भेखी प्रभु ना पाइया। अर्थात सिर्फ भेस बदल लेने ही से भगवान नहीं मिलता। इस तरह उन्होंने जनमानस को समझाया कि झुककर चलने से ही परमात्मा की प्राप्ति होती है, भेस बदलने से नहीं। उनका मकसद नीच जाति कहे जाने वालों का उद्धार करने का था। वे 1497 से 1508 तक इस यात्रा पर रहे। इस दौरान वे कुरुक्षेत्र पहुंचे तो सूर्यग्रहण का समय था, लोगों को वहमों और भ्रमों से बाहर निकालकर इस प्राकृ‌ितक प्रक्रिया को समझाया, हरिद्वार पहुंचे तो उगते सूर्य को अरघ दे रहे लोगों को समझाया कि इससे कुछ नहीं होता, दूसरी ओर मुंह करके पानी फेंकने लगे, पंडितों ने पूछा, क्या कर रहे हो, तो उत्तर मिला, मैं करतारपुर में अपने खेतों को पानी दे रहा हूं। विवाद खड़ा हो गया, पंडित अड़ गए कि यहां से फेंका पानी करतारपुर कैसे पहुंचेगा, तो जवाब मिला, ‘जब सूर्य तक पहुंच सकता है तो करतारपुर क्यों नहीं।’  ये थी बाबा नानक की वैज्ञानिक सोच और तर्क शक्ति। वे कामरूप आसाम गए, जगन्नाथपुरी गए जहां, गगनु महि थाल रवि चंद बने दीपक तारिका मंडल जनक मोती, सबद का उच्चारण किया।

दूसरी यात्रा में वे बौद्ध धर्म के केंद्रों की ओर गए। बीकानेर, सांगलादीप और काजला वन की यात्राएं कीं। राजपुताने का चक्कर काट जब इंदौर पहुंचे तो मानव मांस खाने वाले कौडा राक्षस के डेरे पर गए, उसने एक बार उनकी बाणी सुनी तो सबकुछ छोड़ उनका अनुयायी बन गया। तीसरी उदासी (यात्रा) में गुरु जी कैलाश पर्वत गए, तो सिद्धों के साथ गोष्ठी करके अपने ज्ञान का लोहा मनवाया। योगियों और नाथों के केंद्रों में घूमे। उनको उपदेश दिया कि वे कर्म करना छोड़कर परजीवी बन गए हैं। कुछ सिद्ध बाद में उनके प्रभाव में सिख भी बने। चौथी उदासी के दौरान पश्चिम में मुस्लिम धार्मिक केंद्रों की ओर गए।

बाबा फिर मक्का के आया, नील वस्‍त्र धार बनवारी। उन्होंने हाजियों जैसे वस्‍त्र धारण किए। केवल भाई मर्दाना उनके साथ था। अल्लाह केवल पश्चिम में ही रहता है, इस वहम को दूर करने के लिए वे मुसलमानों के सामने काबे की ओर पांव तानकर सो गए। सबने समझा कि ये तो गया, सुबह तक जिंदा नहीं रहेगा, लेकिन ऐसा नहीं हुआ। फिर भी किसी ने सलाह दी कि पांव दूसरी तरफ कर लो, वे बोले, मेरे पांव आप ही उस तरफ कर दो जिस तरफ खुदा नहीं है। सभी को समझ आ गया और वहम जाता रहा।

पाक पट्टन, बगदाद, पंजा साहिब की यात्रा के बाद ऐमनाबाद पहुंचे, जहां काबुल से आए बाबर की सेना ने कोहराम मचा रखा था। पाप दी जंज लै काबलों धाइया और ऐती मार पई कुरलाणे तैं की दरद ना आया, जैसे सबदों की रचना यहीं हुई। उन्होंने बाबर से लोहा लेने की ठानी, बाबर ने उन्हें जेल में डाल दिया लेकिन उन्होंने रिहाई की मांग नहीं की। बाद में बाबर को जब इस संत की असलियत का पता चला तो स्वयं हाजिर होकर रिहा किया, माफी मांगी। जाहिर है, जुल्म-ओ-जब्र की परवाह बाबा नानक को नहीं थी। जुल्म से डरकर वे समझौता नहीं करते थे। उनका ये चलन उनके अनुयायियों में ताकत और नाइंसाफी से टकराने का परिचायक बना। आज भी जहां जुल्म होता है, सिख बाबा नानक का नाम लेकर उससे टक्कर लेने के लिए आगे बढ़ते हैं। देशप्रेम की भावना इसी का एक रूप है। बाबा जी का कथन है कि महज सिद्धांत को जान लेना ही काफी नहीं, उसपर अमल की जरूरत है। सही दिशा में सही सिद्धांत पर अमल करने से ही मुक्ति मिलती है। क्योंकि उस समय धार्मिक नेता अमल ही तो नहीं करते थे इसलिए उन्होंने कहा:

राह दसाए ओथे को जाए, करणी बाझों भिस्त न पाए।

सभनां का दर लेखा होय करणी बाझों तरे न कोय।

साध्य इष्ट के सर्वसांझे विचार के जनक नानक ने साफ कहा कि उनका धर्म न तो व्यक्तिगत खुशहाली प्रदान करता है और न ही व्यक्तिगत मुक्ति। उनका स्वार्थ से परे जीवन में निपुणता हासिल करने और औरों को निपुण बनाने का संदेश आज भी उतना ही प्रासंगिक है। मनै तरे तारे गुरसिख। अर्थात जो गुरु की बात मानता है वह स्वयं भी आगे निकलता है और दूसरों को निकलने में सहायक होता है। उनका ये भी मानना था कि जो ज्ञान आपने अर्जित किया है उसे अपने साथ ही खत्म करने के बजाय उसे बांटना आवश्यक है। गुणा का होवै वासुला कढ वास लइजै, जो गुण होवन साजना, मिलि साझ करीजै। अर्थात जहां से भी ज्ञान मिल सके, ले लो, यदि आपके मित्र के पास गुण है तो उससे भी साझा करें। लेकिन वो सिर्फ गुणों का ही साझा करने की बात करते हैं अवगुणों का नहीं। साझ कीजै गुणा केरी छोड़ अवगुण चल्लिअै। अर्थात गुण तो ठीक हैं लेकिन अवगुणों को छोड़ देना ही उचित है।

स्वाभिमान भी गुरु जी के लिए एक बहुत जरूरी अवयव था। जे जीवे पत लत्थी जाए, सभु हराम जेता किछु खाए। यदि स्वाभिमान नहीं है और जीवित रहते आपकी इज्जत उतर रही है तो फिर आपने जो कुछ आज तक खाया-पहना वह सब हराम है। समाज में फैले वहमों और भ्रमों की खुलकर कड़ी निंदा की है बाबा नानक ने। खासकर जो कर्मकांड समाज को ग्रहण की तरह खा रहे थे, उनकी।

नैतिक गुणों की दुहाई देते वे कहते हैं, गली असीं चंगिआ, आचारी बुरियाह, मनहु कसुधा कालीआ, बाहर चिटविआह। अर्थात बातों में तो हम बहुत अच्छे हैं लेकिन हमारा आचरण बुरा है। मन से हम काले हैं और बाहर सफेद हैं। एक खास बात ये कि बाबा नानक विनम्रता को जीवन का मूल समझते थे। मिठतु नीवीं नानका, गुण चंगिआइयां ततु। अर्थात बाबा नानक कहते हैं कि मीठा बोलना और नीचा होकर (झुककर) चलना ही सभी गुणों का सार है।

भाई गुरदास एक जगह लिखते हैं, सुणी पुकार दातारु प्रभु, गुरु नानक जगु मांहि पठाइया, कलियुग बाबे तारिया, सतिनामु मंत्र सुणाइआ, कलि तारणु गुरु नानक आया। अर्थात, जब प्रभु ने पीड़ित जनों की पुकार सुनी तो बाबा नानक को इस दुनिया में भेजा, बाबा ने कलियुग में आमजन को भवसागर से पार लगाने के लिए सतिनामु का मंत्र दिया।

(लेखक साहित्यकार और वरिष्ठ पत्रकार हैं)

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