भारतीय जनता पार्टी की उत्तर प्रदेश में बदायूं की सांसद संघमित्रा मौर्य संयोग से (अब) समाजवादी पार्टी के नेता स्वामी प्रसाद मौर्य की बेटी हैं। उनसे आउटलुक के लिए अभिषेक श्रीवास्तव ने बातचीत की। मुख्य अंशः
मंडल की राजनीति में आप दूसरी पीढ़ी की नेता हैं और सत्तारूढ़ पार्टी से सांसद हैं। सामाजिक न्याय पर आपका विजन क्या है?
दो दशकों में हम हिस्सेदारी तक पहुंचे हैं तो सामाजिक न्याय भी हमारे हक में होगा। आने वाली पीढि़यों की सोच बदल रही है। छुआछूत, भेदभाव से हम बहुत दूर आ चुके हैं। कहीं-कहीं लोग वंचित हैं सामाजिक न्याय से, लेकिन कह सकते हैं कि 75 फीसदी तक यह भाव दूर हो चुका है।
सामाजिक न्याय की ताकतों के बीच क्या किसी किस्म की एकता आप देखती हैं?
बहुत-से संगठन सामाजिक-सांस्कृतिक लोगों को अलग-अलग तरीके से जागरूक करते हैं और जरूरत पड़ने पर एक मंच पर आते हैं। सिर्फ सांस्कृतिक ही नहीं, राजनीतिक नेताओं से भी वे मिलते हैं और हर पार्टी के समान विचार वाले नेताओं को जोड़ने का काम करते हैं।
लेकिन वोट की राजनीति में तो चुनाव आते ही सारा भाईचारा खत्म हो जाता है। सारे धड़े एक-दूसरे के खिलाफ खड़े हो जाते हैं। ये पार्टीगत राजनीति की दिक्कत है या कुछ और?
हर व्यक्ति, नेता और पार्टी की अलग-अलग विचारधारा है। जिसकी विचारधारा जहां सेट होती है, वहां वह सेट हो जाता है। कोई किसी पार्टी में है तो उस विचारधारा के तहत ही है। जहां तक वोट की बात है, हर व्यक्ति का एक ही वोट होता है। मालिक जनता है, यह जनता के विचार पर निर्भर है किसको चुनती है और कौन कितनी होशियारी से उसे अपने पक्ष में कर लेता है।
लेकिन मैं हिस्सेदारी के आगे की बात कर रहा हूं। सामाजिक बदलाव की लंबी प्रक्रिया में भाजपा की अपनी विचारधारा के कारण कोई अंतर्विरोध पैदा हो सकता है?
ऐसा मुझे बिलकुल नहीं लगता है। सामाजिक न्याय की चर्चा हो रही है, तो बिरसा मुंडा जी को कोई याद नहीं करता था। प्रधानमंत्री जी के नेतृत्व में उन्हें और आदिवासी समाज को जो जगह मिली, वो कोई नहीं दे सकता। इस देश के मुखिया पर हम कोई सवाल ही नहीं उठा सकते कि किसी को सामाजिक न्याय नहीं मिलेगा। आने वाले समय में भी नहीं लगता कि किसी तरह का दुर्व्यवहार होगा।
क्या जातिगत जनगणना पर वे तैयार होंगे?
मुझे लगता है कि निश्चित तौर पर होंगे। प्रधानमंत्रीजी जनता के मन को जानते हैं। जब उन्हें अहसास होगा कि ये एक दो नहीं सबकी डिमांड है तो इस पर भी जरूर मुहर लगेगी।
ऐसे में ओबीसी के भीतर के विभाजनों में क्या स्थिति बन सकती है? खासकर रोहिणी कमीशन की रिपोर्ट के आने के बाद क्या आपको नहीं लगता कि अतिपिछड़ी जातियों और हिस्सेदारी पा चुकी पिछड़ी जातियों में दरार आएगी?
हो सकता है। मजबूत पिछड़ी जातियां विरोध कर सकती हैं। लेकिन ये मेरा व्यक्तिगत बयान है। मुझे लगता है कि अतिपिछड़ी जातियों में कोई ऐसा समाज है जो निकल के सामने आता है तो उसे प्रतिनिधित्व मिलना ही चाहिए। मेरा तो मानना है कि हम सब एक हैं और हमें अब जाति और धर्म से ऊपर निकल कर राजनीति करनी चाहिए, जाति में बंट कर नहीं। जातियां हममें मनमुटाव और दूरियां पैदा कर रही हैं।
आप एक साथ जातिगत जनगणना की बात भी कर रही हैं और जाति से ऊपर उठने की बात भी कर रही हैं? ये कैसे संभव है।
हम जातिगत जनगणना की बात तब करते हैं जब हमारे साथ कहीं न कहीं भेदभाव होता है। तब जरूरत लगती है कि जनगणना होनी चाहिए। हां, जातियों की समाप्ति की बात करें तो मुझे नहीं लगता कि उसकी जरूरत पड़ेगी। हां, हम सब को उसके लिए मन बड़ा करना पड़ेगा। जब तक मन नहीं बड़ा करेंगे, कितना ही चिल्लाते रहें कि जाति-धर्म से उठकर राजनीति करनी चाहिए, संभव नहीं हो पाएगा।
आप संसद में पहले भी जातिगत जनगणना की बात कर चुकी हैं। अभी बिहार में यह हो भी रहा है। इससे लाभ क्या होगा?
अगर जनगणना होगी तो क्षमता के आधार पर जनता को ताकत मिलेगी। बहुत से ऐसे तबके हैं जो संख्या के हिसाब से राजनीति में अछूते रह गए हैं, उनको मौका मिलेगा और जो लोग एकछत्र राज करते आ रहे हैं उनका डिमोशन भी होगा।
जैसे? कौन एकछत्र राज करता आ रहा है?
किसी एक समाज ने हर जगह राज नहीं किया है। जातिगत जनगणना से ही तय होगा कि कौन कहां राज कर रहा है।
लेकिन मोहन भागवत ने तो कह दिया है कि जाति ब्राह्मणों की बनाई हुई है?
वो बहुत बड़े वक्ता हैं। उन्होंने अगर कोई बात कही है तो उसमें कुछ न कुछ जरूर होगा। क्या सोचकर उन्होंने कहा इस पर टिप्पणी करना मैं उचित नहीं समझती हूं। कुछ तो महत्वपूर्ण जरूर रहा होगा।
आप जिस पार्टी में हैं, उससे आपका निजी विचार कितना मेल खाता है?
मुझे इस पार्टी में काम करने में कोई दिक्कत नहीं है। मैं इस देश की आधी आबादी का प्रतिनिधित्व करती हूं। सामाजिक न्याय की राजनीति में महिलाओं को अनिवार्य रूप से होना होगा। इसी विचार को लेकर मैं यहां हूं।
कोई साझा विजन जैसा है क्या सामाजिक न्याय की राजनीति करने वाले नेताओं के बीच?
बातचीत तो हर किसी से होती ही है। दूसरी पार्टी के नेताओं से मेरी बात नहीं होती है।
ऐसा क्यों है? क्या कोई रोक है या लोग खुद ही सेंसर लगाए हुए हैं अपने ऊपर?
जब हर विचार का व्यक्ति एक ही घर में हो और हर चीज का समाधान शीर्ष से हो रहा हो तो हमें दूसरे के घर में झांकने की जरूरत क्या है। हो सकता है दूसरे घरों के लोग इधर झांकते हों, लेकिन हमें इससे क्या मतलब।
मतलब हम मान के चलें कि आप अगले चुनाव तक भाजपा में संतुष्ट हैं?
बिलकुल संतुष्ट हूं।
यानी 2024 में यथास्थिति कायम रहेगी?
बिलकुल कायम रहेगी।