वाकई मैदानी या मंचीय कला में कलाकार का फॉर्म नरम-गरम होता रहता है, लेकिन महान कलाकार इससे निबटना जानते हैं। इसीलिए खेल के मैदान या संगीत के मंच पर उनका प्रदर्शन एक स्तर से नीचे नहीं गिरता। बंद दरवाजों में कला साधने वाले लेखक या चित्रकार जादुई स्पर्श हासिल करने तक या तो लगन लगाए रहते हैं या इस उम्मीद में कुछ दिन विराम ले लेते हैं कि जल्दी ही वे जादू जगा पाएंगे।
भारतीय क्रिकेट के स्टार विराट कोहली ने भी ऐसा ही कुछ कर दिखाया। जब चारों तरफ उनके फॉर्म में न होने का शोर उठने लगा था, कुछ लोग तो उन्हें बेमतलब टीम में रखने पर सवाल उठाने लगे, तब उन्होंने एशिया कप 2022 में अफगानिस्तान के खिलाफ शतक जड़कर और पूरे टुर्नामेंट में 276 रन बनाकर सबसे ज्यादा रन बनाने वाले दूसरे नंबर के खिलाड़ी बनकर उन्हें झुठला दिया। दरअसल फॉर्म के बारे में इंग्लैंड के पूर्व कप्तान, मनोवैज्ञानिक तथा दार्शनिक माइक ब्रेअरली ऑन फॉर्म की अपनी चमत्कारी अवधारणा में लिखते हैं, ‘‘हुनर और आजादी से जुड़े जिंदगी के हर पहलू में फॉर्म को पाने और उसे खो बैठने का सिलसिला चलता रहता है।’’
जब आलोचक कहते हैं कि ‘‘प्रदर्शन में जान नहीं है’’ या फिर यह कहें कि तकनीकी रूप से कुछ भी गलत नहीं था मगर पता नहीं क्यों प्रदर्शन में वह बात नहीं दिखी, तो वे फॉर्म के न होने के विलोम जैसी किसी अवस्था की ओर इशारा कर रहे होते हैं। यानी उस ‘दायरे’ में होने की बात, जिसे हंगरी के मनोवैज्ञानिक मी हाइ ने चेतना की अवस्था पर लिखते हुए ‘प्रवाह’ कहा है। यह वही दायरा है जिसके बारे में खिलाड़ी अकसर बात करते हैं।
पैवेलिय से निराश लौटते गावस्कर
1958 के फुटबॉल विश्व कप में स्वीडेन के खिलाफ अपने प्रदर्शन के बारे में पेले को सुनिए, ‘‘मैंने एक अजीब-सी शांति महसूस की, वह परम हर्षोल्लास जैसी थी। मुझे लगा कि मैं पूरे दिन बिना थके दौड़ सकता हूं, कि मैं उनकी किसी टीम या सबको एक साथ ड्रिबल कर सकता हूं, कि मैं उन सबको पीछे छोड़ सकता हूं। वह अजेयता का एहसास था।’’
कवि यीट्स इसे इस तरह कहते हैं, ‘‘...मेरी खुशी इतनी थी/जैसे मुझ पर सौभाग्य उतर आया था और दूसरों को धन्य कर सकता था।’’ यानी परम सुख या सबको सुख देने की अवस्था।
वैसे तो उस दायरे या प्रवाह के बारे में काफी कुछ लिखा जा चुका है जब सब कुछ चमत्कारिक ढंग से एकदम सटीक हो जाता है, लेकिन उसकी विपरीत अवस्था-अचानक या लगातार फॉर्म न पाने के बारे में इतनी ही बारीकी से बातें नहीं हुई हैं। इसी मामले में चेतना के शिखर के बारे में बेहतर समझा जा सकता है। दोनों ही मामलों में कुछ अनजाना है, वजहें रहस्यमय हैं, मगर नतीजा साफ और सबकी नजरों के सामने होता है।
कैसे कोई कलाकार अचानक अपना जादू खो बैठता है और उसे याद करने की कोशिश में लगा रहता है कि वह क्या था, जो उसमें स्वाभाविक-सा था? कैसे आप अपने दिमाग, शरीर और भावना को एकरूप करके वह फिर से हासिल कर लें, जो हाल तक स्वाभाविक-सा लगता था? प्रवाह के बारे में सबसे दिलचस्प यह है कि जैसे ही आपको उसका ख्याल आता है, आप सचेत हो जाते हैं और गंवा बैठते हैं।
कई बार आप अचानक मैदान में ही फॉर्म गंवा बैठते हैं और कई बार अचानक खेलते हुए फॉर्म लौट आता है। कई बार फॉर्म इस कदर रूठा रहता है कि उसे दोबारा हासिल कर पाने के पहले करिअर ही खत्म हो जाता है। ब्रेअरली ने लिखा, ‘‘जैसे लेखक और कलाकार खाली पन्नों या कैनवास के आगे बिसूरते रहते हैं, बेचैनी हमारे भीतर वैसे ही होती है। हम इस उम्मीद में बार-बार वही कुछ लिखते या उकेरते रहते हैं, इस उम्मीद में, कि कुछ काम प्रकट हो जाएगा।’’ वह बीच करिअर में भी हो सकता है। औसत दर्जे वाले ही हमेशा बुलंदी पर रहते हैं। महान खिलाड़ियों के ऊंच-नीच दौर आते-जाते रहते हैं मगर वे जानते हैं कि कैसे बुलंदियों को आगे किया जाए और निचाइयों को छुपा लिया जाए।
भारत के महान बल्लेबाज सुनील गवास्कर और सचिन तेंडुलकर फॉर्म गंवा बैठने के शिकार हुए, अपने पर भरोसा खो बैठे और लोगों की नाराजगी का भी शिकार हुए। अब बारी विराट कोहली की है, जो ऐसे ही दौर से गुजर रहे हैं। शरीर से तो कतई परेशान नहीं दिखते, मगर आप जब फॉर्म में होते हैं तो अकसर कुछ करने के ख्याल की गलती कर बैठते हैं। इससे खुद पर संदेह उभर आता है। आपके दिमाग में सवाल उभरता है: क्या अब कभी निजात नहीं मिलेगी? रन बनाने की बेचैनी में आप हर गेंद को खेलना चाहते हैं, आप बल्ले और उसके हत्थे पर और मजबूत पकड़ बना लेते हैं, बेचैनी में बल्ला उस सहजता से नहीं चलता जैसे पहले चला करता था। विडंबना यह है कि क्रिकेट दिमागी खेल है और ऐसे मौके मांग करते हैं कि ज्यादा सोचिए मत, बस प्रवाह के साथ हो लीजिए, और ऐसा मन बनाइए कि एक पारी, एक स्ट्रोक या एक कामयाब पल सब कुछ बदल देगा, और वह फॉर्म हासिल करें जो अब तक रहा है: कोहली के नाम 463 अंतरराष्ट्रीय मैच में 23,726 रन और 70 शतक दर्ज हैं।
उनका बुरा दौर ढाई साल से जारी है, हालांकि इस बुरे दौर में भी उन्होंने सभी फॉर्मेट की 79 पारियों में 2,500 से ज्यादा रन 35.5 के औसत से बनाए हैं। यह सिर्फ क्रिस गेल के करिअर औसत से ही कुछ पीछे है जबकि सनत जयसूर्या, युवराज सिंह और जो बटलर से ज्यादा है।
फिर भी कोहली से उम्मीदें बेपनाह हैं। आइपीएल के दौरान जब उनसे पूछा गया कि दर्शकों से आप क्या उम्मीद करते हैं, कोहली बोले, ‘‘यह ऐसा पल है जब आप कमरे में एकदम शून्य आत्मविश्वास के साथ बैठे होते हैं, यह भी ख्याल नहीं आता कि अगले दिन खेलना है, और पता नहीं इससे कैसे उबरा जाता है।’’ सुपरस्टार भी आखिर आदमी ही तो होते हैं।
फॉर्म गंवा बैठना, या इसे जो चाहे कहें, हर क्षेत्र में हो सकता है, लेकिन क्रिकेट में क्या कुछ ऐसा है जो उसे तेज करता है? दिवंगत पीटर रीबक ने लिखा है, ‘‘अजीब है कि क्रिकेट असुरक्षा से ग्रस्त बहुत सारे लोगों को आकर्षित करता है। यह बेहद गंभीर आदमी के लिए सबसे बुरा खेल है, फिर भी खिलाड़ियों में अतिसंवेदनशीलता होती है। कल्पना और आदर्श से अभिभूत लोग इसके जादू के झांसे में आ जाते हैं।’’ रीबक खुद औसत खिलाड़ी मगर सम्मानित कप्तान थे। खेल में उनका दिमाग काफी चलता था। वे इसके जादू में फंसे और अपनी जान दे बैठे।
कोहली सचेत नियंत्रण और स्वाभाविक प्रतिभा के बीच फंस गए हैं। हर (अपेक्षाकृत) नाकामी उन्हें और फंसाती चलती है। संभव है उनका आत्मविश्वास और निश्चय ही उनके खिलाफ काम कर रहा हो। लेकिन उन्होंने एक बार फिर साबित किया कि वे अपनी नाकामियों से उबर सकते हैं। उन्होंने सहज होकर खेला तो फॉर्म वापस आने लगा। उन्हें सहज हो जाना चाहिए। किसी खिलाड़ी या कलाकार के लिए यह मुश्किल है, खासकर जो फॉर्म की तलाश कर रहा हो मगर उनमें अपने निश्चय को सहज करने की क्षमता है। तो, फिर उम्मीद कीजिए कि विराट का बल्ला बोलेगा।
(लेखक खेल स्तंभकार हैं, यहां व्यक्त विचार निजी हैं)