मध्यकालीन भारत के इतिहास के बारे में ‘अगर ऐसा होता तो’ सवाल किया जाए तो सबसे बड़ा सवाल होगा- औरंगजेब की जगह दारा शिकोह बादशाह होता तो क्या होता? आज भले ही लोग ‘मुगल’ और ‘भारतीय’ शब्दों के अलग अर्थ निकालते हों, लेकिन यह अंतर इतिहास में नहीं है। आजकल ‘मुगल’ का मतलब अमूमन उस दौर में बनी इमारतों, किलों, स्मारकों वगैरह से लिया जाता है। यह विचार अंग्रेजों के समय ही पनपा। हालांकि उस दौर में जो घटा, वह काफी पेचीदा था। अपनी मूल संस्कृति की खास छाप छोड़कर स्थानीयता का अंगीकार और संस्कृतियों का संगम अधिक गहरा था। लेकिन पश्चिम का खासकर औपनिवेशिक काल में जिस भारत से परिचय हुआ, वह उसके लिए परिवर्तनकारी था। हालांकि इस परिवर्तन की कड़ी की सबसे बड़ी शख्सियत थी दारा शिकोह। लेकिन दारा शिकोह खुद कहां था? वह दोआब की मिट्टी में कहीं लापता हो गया था।
अभी तक किसी भी अभिनेता ने दारा शिकोह की भूमिका नहीं निभाई, उसके लिए कोई मुगल-ए-आजम नहीं बनी (हालांकि करन जौहर ने हाल ही में ऐसा करने की घोषणा की)। उसके खिलाफ कोई राजनीतिक आंदोलन भी नहीं खड़ा हुआ। इसकी जरूरत भी नहीं थी। आप किस बात का विरोध करेंगे? उसने अपनी देख-रेख में उपनिषदों का अनुवाद करवाया इसलिए? उसी के बाद उपनिषद पश्चिम में पहुंचे, अन्यथा पश्चिम का बौद्धिक इतिहास अलहदा होता। अपने ही भाई औरंगजेब के आदेश के बाद दारा शिकोह का 1659 में सिर कलम कर दिया गया। इसके बाद कहीं उसकी चर्चा नहीं मिलती।
वह इस तरह गायब हुआ कि मौत के 300 साल बाद भी यह रहस्य बरकरार है कि उसे कहां दफनाया गया था। आखिरकार रोशनी की एक किरण मिली है जो हमें उसकी कब्र तक ले जाती है। इतिहास में उपलब्ध दस्तावेज विरोधाभासी हैं। क्या उसका सिर कलम किया गया था? क्या उसका सिर और धड़ अलग-अलग दफनाए गए थे? उस समय के किस रिकॉर्ड को विश्वसनीय माना जाए? भाई की कब्र के बारे में औरंगजेब का रवैया क्या था? इस बात पर काफी हद तक एक राय है कि दारा शिकोह को हुमायूं के मकबरे में दफनाया गया था, लेकिन यहां मुगल परिवार के सदस्यों की 140 कब्रें हैं। इसलिए दारा शिकोह की कब्र कौन सी है, यह नहीं मालूम था। कोई इतिहासकार या अनुसंधानकर्ता अभी तक उसके करीब नहीं पहुंच सका था।
इस काम को पूरा करने का प्रयास ऐसी पार्टी की सरकार ने किया जो कम से कम मुगलों के प्रति प्रेम के लिए तो नहीं जानी जाती है। इसी साल फरवरी में लॉकडाउन से कुछ दिनों पहले केंद्रीय संस्कृति मंत्रालय ने अतीत के इस रहस्य को सुलझाने का फैसला किया। आमतौर पर सरकारें जो करती हैं, इसने भी दारा की कब्र तलाशने के लिए देश के सात नामचीन वास्तुविदों की समिति बना दी। समिति कुछ करती, इससे पहले ही लॉकडाउन के चलते सब कुछ थम गया। तीन महीने बाद जब जीवन धीरे-धीरे सामान्य होने लगा और समिति के सदस्य बैठक करने ही वाले थे कि एक घटना हो गई। दक्षिण दिल्ली नगर निगम के 49 वर्षीय सिविल इंजीनियर संजीव कुमार सिंह ने आश्चर्यजनक रूप से हुमायूं के मकबरे में दारा शिकोह की कब्र खोजने का दावा कर दिया।
संजीव का कहना है कि मकबरे के प्रथम तल पर एक कक्ष में दारा की कब्र पर लगा पत्थर (कुतबा) है। इसके साथ दो और कुतबा हैं जो अकबर के बेटों दनियाल और मुराद के हैं। सवाल है कि इतिहासकार अभी तक जिस दरवाजे तक पहुंच नहीं सके थे, एक नगर निगम इंजीनियर ने उसका ताला कैसे खोल दिया? इसके पीछे संजीव का चार साल का परिश्रम है। उन्होंने इतिहास पढ़ा, ऐतिहासिक दस्तावेजों का अध्ययन किया, एक विद्वान जो भी करता है वह सब उन्होंने किया। इसी दिलचस्प खोज का नतीजा उनका यह मजबूत दावा है। इतना मजबूत कि सरकार की बनाई समिति के पांच सदस्यों ने उनकी तारीफ की है। इनमें पद्मश्री के.के. मुहम्मद, राष्ट्रीय संग्रहालय के पूर्व महानिदेशक डॉ. बी.आर. मनी और भारतीय पुरातत्व विभाग के तीन पूर्व निदेशक डॉ. सैयद जमाल हसन, बी.एम. पांडे और गुलाम सैयद ख्वाजा शामिल हैं।
इतिहास के अंधेरे में गुम इस तथ्य तक संजीव कैसे पहुंचे? उन्होंने इसकी तलाश 2016 में शुरू की। इतिहासकारों की तरह उन्होंने भी यही माना कि दारा शिकोह की कब्र हुमायूं के मकबरे में है, लेकिन इसके अलावा और कोई जानकारी नहीं थी। संजीव बताते हैं, “धार्मिक मान्यताओं के अनुरूप भूतल पर कब्र की कोई कंक्रीट की बनावट नहीं होती। यही कारण है कि हुमायूं के मकबरे में प्लिंथ के नीचे कब्रें बनी हुई हैं और इनके ऊपर कब्र का पत्थर लगा है। इस बारे में कोई महत्वपूर्ण साक्ष्य उपलब्ध नहीं होने के कारण उन्हें दस्तावेजी और साहित्यिक सबूतों की जरूरत थी। इसलिए उन्होंने मुगलों के कुतबे की वास्तुकला और डिजाइन के बारे में ऑनलाइन उपलब्ध सारी सामग्री पढ़ डाली- काबुल में बाबर से लेकर रंगून में बहादुर शाह जफर के कुतबे तक। उस समय के मशहूर यात्रियों और इतिहासकारों ने जो लिखा था, उन्हें पढ़ा। इसके बाद मुगलकालीन आधिकारिक दस्तावेज और जीवनियां पढ़ीं। इनमें उन्हें अनेक सूचनाएं मिलीं। हालांकि ये भी ऐसी नहीं थीं कि उन्हें अंतिम सुबूत मान लिया जाए। संजीव के अनुसार जहांगीर, नूरजहां, असफ खान समेत कई मशहूर मुगल हस्तियों की कब्रें पाकिस्तान में हैं। उन्होंने निजामुद्दीन दरगाह, महरौली में कुतुबुद्दीन बख्तियार काकी की कब्र, सिकंदरा में अकबर का मकबरा, सफदरजंग का मकबरा, आगरा में इतिमाद-उद-दौला की कब्र (ताज का एक प्रोटोटाइप) और ताजमहल का मुआयना किया।
उन्हें इन सबमें कुछ पैटर्न देखने को मिले। एक तो महिलाओं और पुरुषों की कब्रें बिलकुल अलग थीं। एक ही समय में अलग-अलग जगहों की कब्रों में भी अंतर था। इसके अलावा समय के साथ होने वाले बदलाव भी थे। संजीव ने पश्चिम के तीन तत्कालीन यात्रियों- फ्रैंकोइस बर्नियर, ज्यां बैप्टिस्टे टैवरनियर और निकोलो मानुची के लेख पढ़े, लेकिन अन्य स्रोतों की तरह यहां भी उन्हें चंद सुराग ही मिले। मानुची के अनुसार, दारा शिकोह का सिर आगरा में ताज में और धड़ हुमायूं के मकबरे में दफनाया गया। बर्नियर ने हुमायूं के मकबरे में ही सिर कलम करने और दफनाने की बात, तो टैवरनियर ने सिर्फ सिर कलम किए जाने की बात लिखी है। संजीव कहते हैं, “तीनों ने अलग-अलग बातें लिखी हैं, लेकिन मैंने बर्नियर पर ज्यादा भरोसा किया क्योंकि वह दिल्ली में मौजूद थे।”
इन सामग्रियों से दारा शिकोह के व्यक्तित्व के नए पहलुओं का भी पता चला। एक तो आम धारणा यही है कि दारा, कठोर औरंगजेब की तुलना में काफी मृदु था। संजीव के अनुसार, “जब मैंने बर्नियर को पढ़ा तो पता चला कि कई बार सवाल पूछे जाने पर दारा क्रोधित हो जाता था। सवाल पूछने वाले के प्रति उसका व्यवहार काफी अक्खड़ होता था।” इतिहासकारों में इस बात पर मतभेद है, लेकिन इससे एक अतिरिक्त जानकारी तो मिलती ही है।
संजीव को अमल-ए-सालेह (जिसे शाहजहां के जीवनीकार मोहम्मद सालेह कंबोह ने लिखा था), आलमगीरनामा (मिर्जा मुहम्मद काजिम), मासिर-ए-आलमगीरी (साकी मुस्तइद खां), मुंतखाब-अल-लुबाब (मुहम्मद हाशिम खाफी खां) और तारीख-ए-फराहबख्श (मुहम्मद फैज बख्श) से भी काफी जानकारियां मिलीं। उन्होंने कुछ आधुनिक रचनाओं का भी अध्ययन किया। इनमें जॉर्ज थॉमस की मिलिट्री मेमॉयर्स, फैनी पार्क्स की वैंडरिंग्स ऑफ पिलग्रिम, विलियम स्लीमैन की रैंबल्स एेंड रीकलेक्शंस, स्टीफन कार की आर्कियोलॉजी ऐंड मोनुमेंटल रिमेंस ऑफ डेल्ही और मौलवी मुहम्मद अशरफ हुसैन की मेमॉयर्स शामिल हैं।
संजीव के सामने भाषा की चुनौती थी। मुगलों के ज्यादातर मूल लेख फारसी में हैं। संजीव कहते हैं, “मुझे थोड़ी बहुत उर्दू आती है। अक्षरों में समानता होती है, इसलिए मैंने उन्हें पढ़कर कुछ दस्तावेज छांटे और उन्हें दिल्ली विश्वविद्यालय में फारसी विभाग के प्रमुख डॉ. अलीम अशरफ खान के पास ले गया।” सबसे महत्वपूर्ण जानकारी आलमगीरनामा में मिली। इसमें लिखा है, “उसका शरीर हुमायूं के मकबरे में ले जाया गया और गुंबद के नीचे तहखाने में दफन कर दिया गया, जहां अकबर के बेटे दनियाल और मुराद दफन हैं।” यह अभी तक का सबसे स्पष्ट सुबूत था, लेकिन यह भी निर्णायक नहीं था। तब संजीव ने कब्रों की वास्तुकला पर गौर किया। वह कहते हैं, “हुमायूं के मकबरे में गुंबद के नीचे प्रथम तल पर विभिन्न कक्षों में मौजूद सभी कब्र के पत्थरों की डिजाइन का अध्ययन किया।” अंततः उन्हें वह चैंबर मिला जिसमें तीन पुरुषों के कब्र के पत्थर थे।
यहां अकबर के दो बेटों मुराद मिर्जा और दनियाल मिर्जा की कब्रें हैं, जिन्हें क्रमशः वर्ष 1599 और 1605 में दफनाया गया था। तीसरी कब्र संभवतः दारा शिकोह की थी जिसे लगभग आधी सदी बाद 1659 में दफनाया गया। कब्रों का क्रम भी तार्किक लग रहा था। पहले मुराद की मौत हुई थी इसलिए उसकी कब्र बीच में थी। उसकी एक तरफ दनियाल की कब्र थी। संजीव बताते हैं, “अगर आप प्रथम तल पर कक्ष में प्रवेश करें तो दारा की कब्र का पत्थर आखिर में मिलेगा, लेकिन अगर आप तहखाने में जाएं, जहां वास्तव में कब्रें हैं, तो पहली कब्र दारा की मिलेगी क्योंकि वहां प्रवेश द्वार विपरीत दिशा में है।” इस निर्णय पर पहुंचने की संजीव एक और वजह बताते हैं। मुराद और दनियाल की कब्रें लगभग एक सी हैं क्योंकि उनके बीच सिर्फ छह साल का अंतर था। तीसरी कब्र काफी अलग है। संजीव के अनुसार, “हम दारा को दफनाए जाने की तारीख के आसपास गौर करें तो उस समय की दूसरी कब्रों और दारा की कब्र में समानताएं हैं। उदाहरण के लिए अकबर के सौतेले भाई मिर्जा अजीज कोकलतश का स्मारक जिसे 1624 में दफनाया गया, इतिमाद-उद-दौला की आगरा की कब्र जिसे 1622 में दफनाया गया और लाहौर में 1645 में बनी नूरजहां की कब्र में एकरूपता है। हालांकि जगह के हिसाब से इनमें भिन्नताएं भी हैं।”
ज्यादातर विशेषज्ञ संजीव के निष्कर्ष से सहमत हैं। भारतीय पुरातत्व विभाग के पूर्व क्षेत्रीय डायरेक्टर पद्मश्री के.के. मुहम्मद कहते हैं, “इतने ऐतिहासिक और वास्तु संबंधी तथ्यों की जानकारी मुझे भी नहीं थी। उन्होंने उपलब्ध संसाधनों में से सार निकाला है।” पुरातत्व विभाग में पुरालेख के निदेशक रहे गुलाम सैयद ख्वाजा भी कहते हैं, “उन्होंने गंभीर और अग्रगामी रिसर्च किया है।” डॉ. मनी इसे विश्वसनीय और उपयुक्त मानते हैं। जाने-माने पुराविद बी.एम. पांडे और सैयद जमाल हसन भी इनकी राय से सहमत हैं।
दारा शिकोह की तलाश लंबे समय से चुनौती रही है। येल यूनिवर्सिटी की सुप्रिया गांधी, जिन्होंने दारा पर नवीनतम किताब ‘द एंपेरर हू नेवर वाज’ (2019) लिखी है, भी इस चुनौती से वाकिफ हैं। उन्होंने अभी तक संजीव की रिसर्च नहीं देखी है, लेकिन आउटलुक को ईमेल पर उन्होंने दारा की कब्र पहचानने के पुराने प्रयासों के बारे में जानकारी दी। वह कहती हैं, “औरंगजेब के दरबार की रिपोर्टों से यह तो पता चलता है कि दारा की कब्र पर कुतबा था, लेकिन दस्तावेजी साक्ष्यों के आधार पर यह पता करना मुश्किल है कि वह वास्तव में कहां है।”
यह कहना बिलकुल सही है कि कोई भी लिखित सबूत ऐसा नहीं जिससे अंतिम निष्कर्ष पर पहुंचा जा सके। सुप्रिया कहती हैं, “आलमगीरनामा में सिर्फ यह कहा गया है कि दारा शिकोह को वहीं दफनाया गया जहां मुराद और दनियाल को दफनाया गया था। इसमें सही जगह के बारे में कोई जानकारी नहीं है।” सच तो यह है कि हुमायूं के मकबरे में गुंबद के नीचे पांच तहखाने हैं और इन सबके कक्ष प्रथम तल पर हैं। इनमें 11 स्मारक हैं, छह महिलाओं के और पांच पुरुषों के। पुरुषों में हुमायूं का स्मारक भी है जो केंद्रीय कक्ष (संख्या 1) में है। दक्षिण-पश्चिम कक्ष (संख्या 4) में एक पुरुष और एक महिला के स्मारक हैं। कक्ष 2 और 3 सिर्फ महिलाओं के लिए हैं। उत्तर-पश्चिमी कक्ष (संख्या 5) में तीन पुरुष हैं। इनके नीचे का तहखाना तीनों शहजादों के लिए सर्वाधिक उपयुक्त लगता है।
स्मारक संख्या 3 में अकबर के काल की सभी विशेषताएं हैं। इसलिए यह बात मजबूती से कही जा सकती है कि यह शहजादा मुराद का है जिसकी मौत 22 मई 1599 को हुई थी। उसकी मौत पहले हुई थी इसलिए वह बीच में है। पूरब में प्रवेश द्वार की ओर स्थित स्मारक संख्या 2 में अकबर और जहांगीर काल की मिली-जुली विशेषताएं हैं। इसलिए इसे शहजादा दनियाल का माना जा सकता है, जिसकी मौत 11 मार्च 1605 को हुई थी। पश्चिम की तरफ तीसरे स्मारक की वास्तु विशेषता शाहजहां के काल से मिलती-जुलती है, इसलिए संजीव इसे दारा शिकोह का मानते हैं।
सुप्रिया पूरी तरह आश्वस्त नहीं हैं। उन्हें लगता है कि एक साथ तीन कब्रों की तलाश सब कर रहे हैं, लेकिन तीनों कब्रों के इस तरह एक दूसरे के पास होने की बात किसी भी तत्कालीन दस्तावेज में नहीं है। वह कहती हैं, “आलमगीरनामा में कहीं भी ऐसा नहीं कहा गया है जिससे यह पता चले कि तीनों स्मारक एक दूसरे के आस-पास हैं।”
सुप्रिया के अनुसार, “इतिहास हमें अन्य संभावित दिशाओं के संकेत भी देता है। उदाहरण के लिए औरंगजेब के दरबार के लेखों से पता चलता है कि दारा की कब्र टूट-फूट रही थी। इसका यह मतलब हो सकता है कि यह भीतरी इमारत में स्थित होने के बजाय बाहर किसी चबूतरे पर हो। लेकिन हम पूरी तरह आश्वस्त नहीं हो सकते।” हालांकि सुप्रिया और अन्य इतिहासकारों को इस बात में संदेह नहीं कि दारा अत्यंत प्रभावशाली था।
जवाहरलाल नेहरू विश्वविद्यालय में फारसी के विद्वान प्रोफेसर अखलाक अहमद अंसारी कहते हैं कि दारा शिकोह का मिजाज इस कदर व्यवस्था विरोधी था कि उसके दोस्त और आलीम-फाजिल भी उससे दूर हो गए थे। लेकिन उस समय की भारतीय संस्कृति में दारा शिकोह इकलौता नहीं था जिसके लिए धर्म खास मायने नहीं रखता था। अंसारी के मुताबिक, अंग्रेजों से पहले भारत में विद्वता कभी धार्मिक पहचान से नहीं जुड़ी थी। वे कहते हैं, “अब्दुल-उल-कादर-बदायूंनी को लीजिए। वह एक कट्टरपंथी मुसलमान थे, लेकिन रामायण का फारसी में अनुवाद किया और उस पर कभी विवाद नहीं हुआ। इसी तरह कट्टरपंथी ब्राह्मण भी इस्लाम के विद्वान हुए हैं।” वास्तव में भारत में वही विचार न जाने किस कब्र में खो गया है, जिसकी तलाश जारी है।