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किसानों को राहत देने का वक्त

नीति आयोग स्वीकार कर चुका है, किसानों को एमएसपी नहीं मिलता, इस वक्त इनकी सुध लेना जरूरी
कृषि सुधार/नजरिया

कोरोना महामारी और देशव्यापी लॉकडाउन से किसानों को हुए नुकसान की भरपाई और कृषि क्षेत्र में व्यापक सुधार के लिए सरकार जल्द ही अध्यादेश ला सकती है। किसानों को उपज का बेहतर मूल्य मिले और वे अपनी उपज कहीं भी बेच सकें, इसके लिए कृषि उत्पाद विपणन समिति अधिनियम में संशोधन की घोषणा की जा चुकी है। अभी तक किसान, राज्यों की ओर से अधिसूचित मंडियों में ही उपज बेच सकता है।  नए कानून के बाद कृषक इस बंधन से मुक्त हो जाएंगे। इसके अलावा केंद्र सरकार ‘आवश्यक वस्तु अधिनियम’ में संशोधन कर उपज की स्टॉक सीमा को समाप्त करने से जुड़ा कानून भी बनाने जा रही है। इन दोनों कानूनों का मकसद है कि सरकार संकट की इस घड़ी में किसान हितों की रक्षा सुनिश्चित कर सके। 20 लाख करोड़ रुपये के आर्थिक पैकेज में कृषि और किसानों के लिए कई तात्कालिक और दीर्घकालिक कल्याणकारी योजनाएं शामिल हैं। लेकिन इन राहतपूर्ण प्रयासों के बीच कृषि विशेषज्ञ कई बिंदुओं को लेकर आशंकित भी हैं। उनकी चिंता है कि आवश्यक वस्तु अधिनियम 1955 में संशोधन के बाद कहीं किसान और शोषण के शिकार न हों। अनाज और तिलहन समेत अन्य कई उपजों को मौजूदा कानूनी दायरे से बाहर कर दिए जाने के बाद किसानों के सामने फसलों को केवल सरकारी खरीद केंद्रों पर ही बेचने का एकमात्र विकल्प नहीं रह जाएगा। सरकार यह मानकर चल रही है कि किसान निजी व्यापारियों को अनाज बेचकर शायद ज्यादा लाभ कमा सकेंगे। इसके साथ ही अब अनाज जमा करने को लेकर कोई रोक-टोक नहीं रहेगी और अकाल जैसी स्थितियों को छोड़कर यह अधिनियम लागू नहीं रहेगा। इस निर्देश के पीछे की मंशा निश्चित रूप से किसानों के लिए कल्याणकारी है लेकिन इसके दूरगामी परिणाम कुछ और हो सकते हैं। कहीं भी बेचने और जमाखोरी की छूट सिर्फ तात्कालिक हो, तब यह निर्देश भविष्य के लिए चिंताजनक नहीं है लेकिन दीर्घकालीन रूप से इस कानून के प्रभाव में आ जाने से दो बड़ी समस्याएं उत्पन्न हो सकती हैं। पहली, किसानों को एमएसपी से कम कीमत मिलने की संभावना अधिक है। दूसरी, निजी खरीदारों द्वारा भारी मात्रा में जमाखोरी किए जाने से सरकारी खाद्य भंडारण और खाद्य सुरक्षा की मौजूदा व्यवस्था प्रभावित हो सकती है।

भारत जैसे आर्थिक संरचना वाले देश में अनाज भंडारण पर सरकारी नियंत्रण बेहद आवश्यक है। यदि इस महामारी के दौरान अनाज भंडारण निजी क्षेत्रों और व्यक्ति विशेष के हाथों में होता तो भूख से मरने वालों की तादाद कितनी होती? आज फूड कारपोरेशन ऑफ इंडिया के पास 524 लाख टन का अन्न भंडार है। यह मात्रा अकाल और भूखमरी से बचाने के लिए पर्याप्‍त से अधिक है। यदि निजी हाथों में अन्न जमा होने का कानून बन जाएगा तो आगे के लिए यह चिंता लाजिमी है कि भविष्य में अकाल, महामारी जैसी स्थितियों में अनाज की आपूर्ति की स्थिति विकट हो जाएगी। अन्न पर सरकार का नियंत्रण न के बराबर होगा। निस्‍संदेह अनाज की उपलब्धता होगी, लेकिन शर्तें निजी घरानों की ही लागू होंगी। बड़ा खतरा यह भी होगा कि अन्न, जनकल्याण से ज्यादा मुनाफाखोरी की वस्तु बन जाएगा। कई कृषि विशेषज्ञों ने यह चिंता भी जाहिर की है कि निजी नियंत्रण के बाद मुनाफे के चक्कर में देश का अधिकांश अन्न निर्यात भी किया जा सकता है। इससे सार्वजनिक वितरण प्रणाली भी प्रभावित हो सकती है। इस वितरण प्रणाली का मुख्य मकसद सस्ती दरों पर देश के कमजोर वर्ग को अन्न उपलब्ध कराना है। अन्न उपलब्ध कराने वाली मुख्य एजेंसी एफसीआइ की स्थापना 1965 में की गई थी। तब से आज तक यह निगम अनाज और अन्य खाद्य पदार्थों की खरीद, बिक्री, भंडारण, वितरण आदि कर रहा है। किसानों को उपज की सही कीमत प्रदान करना तथा सरकार द्वारा तय दामों पर उपभोक्ताओं को अन्न उपलब्ध करने में इसकी बड़ी भूमिका रही है।

संसद ने 1955 में आवश्यक वस्तु अधिनियम पारित किया था, ताकि ‘आवश्यक वस्तुओं’ का उत्पादन, आपूर्ति और वितरण नियंत्रित किया जा सके और ये चीजें उपभोक्ताओं को उचित दाम पर उपलब्ध हों। ‘आवश्यक वस्तु’ की श्रेणी में घोषित वस्तु का अधिकतम खुदरा मूल्य तय करने का अधिकार सरकार के पास होता है। तय मूल्य से अधिक कीमत पर बेचने पर विक्रेता पर कार्रवाई करने का प्रावधान है। खरीफ-रबी फसलों के लिए हर मौसम में न्यूनतम समर्थन मूल्य की घोषणा होती है। लेकिन हर राज्य से शिकायतें आती रहती हैं कि किसानों को एमएसपी नहीं मिल रहा है। कृषि मंत्रालय तथा नीति आयोग भी स्वीकार कर चुका है कि किसान घोषित एमएसपी से वंचित रह जाते हैं। कृषि उत्पादों के दाम तय करने वाले आयोग, कमीशन फॉर एग्रीकल्चरल कॉस्ट्स ऐंड प्राइस की लागत मूल्य तय करने वाली प्रक्रिया लंबे समय से सवालों के घेरे में रही है। एम. एस. स्वामीनाथन आयोग की सिफारिश जिसमें सी-2 फार्मूले के तहत लागत मूल्य निर्धारित किए जाने की संस्‍तुति की गई थी, अब तक पूरा नहीं हो पाया है। मौसमी फल और सब्जियों का समर्थन मूल्य निर्धारित नहीं होता है। प्रत्येक वर्ष आलू, टमाटर, हरी मिर्च, दूध उत्पादकों को नुकसान उठाना पड़ता है। भारत दूध का सबसे बड़ा और फल-सब्जियों का दूसरा बड़ा उत्पादक है। लेकिन कोल्ड स्टोरेज की क्षमता सिर्फ 11 फीसदी को ही सुरक्षित रखने की है। एसोचैम के एक अध्ययन के अनुसार लगभग 40 फीसदी दूध-फल बर्बाद हो जाता है। यूएन की रिपोर्ट के अनुसार, भारत का 40 फीसदी अनाज उपभोक्ता के पास पहंचने से पहले बर्बाद हो जाता है। 

नए कानून से जुड़ी अब तक की घोषणाओं में यह स्पष्ट नहीं है कि निजी खरीदारों के लिए फसलों के न्यूनतम समर्थन मूल्य को मानना जरूरी होगा या नहीं? किसानों को लाभ तभी सुनिश्चित हो पाएगा जब निजी खरीदारों द्वारा किसानों को दिए जाने वाले मूल्य की गारंटी सुनिश्चित होगी। अब वक्त आ गया है कि राज्य सरकार सख्ती से किसानों को एमएसपी दिलवाए। कोरोना महामारी के बाद किसान-मजदूरों की स्थिति और बदतर हो चुकी है। इस वर्ग को तात्कालिक राहत की ज्यादा आवश्यकता है। मनरेगा के तहत ग्रामीण रोजगार को बल देने की सरकार की पहल स्वागत योग्य है। आशा है सरकार की इस रोजगार गारंटी से मजदूरों को राहत मिलेगी।

(लेखक जदयू के राष्ट्रीय प्रवक्ता हैं)

 

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कहीं भी बेचने और जमाखोरी की छूट तात्कालिक हो, तब चिंता नहीं, लेकिन लंबे समय में इससे समस्या हो सकती है

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