-हम अपने घर में हर चीज का ख्याल रखते हैं, अपने अपनों का कुछ ज्यादा ख्याल रखते हैं। आइए, अब ख्याल का दायरा बढ़ाते हैं, उनकी सेहत के लिए हवा शुद्ध बनाते हैं...
-मां हूं इसलिए प्रोटेक्टिव हूं। जब मुझे पता चला कि मेरे घर का एक्यूआइ 500 हो जाता है, जबकि डब्ल्यूएचओ के मुताबिक यह 25 होना चाहिए। इसलिए मेरे घर पर है एयर प्युरिफायर
-बच्चों के लिए सही ब्रीदिंग जरूरी है। लेकिन सही हवा के बिना सही ब्रीदिंग कैसे, क्योंकि इनडोर हवा में कई पॉल्यूटेंट्स होते हैं। इसलिए हमें एयर प्युरिफायर की जरूरत है
जब-जब हवा खराब होती है, खासकर दिल्ली और फिर देश भर से दनादन वायु प्रदूषण की सुर्खियां टीवी के परदों और अखबार-पत्रिकाओं में छाने लगती हैं, उसी के साथ छोटे परदे और अखबार-पत्रिकाएं उन विज्ञापनों से भी भर उठती हैं जिनमें करीना कपूर, राहुल द्रविड़ सरीखे सेलेब्रिटी और मॉडल आपको खराब हवा के खतरे गिनाकर बाजार में तरह-तरह के उत्पादों की ओर मुखातिब कर देते हैं। अब “सांस का बाजार” यकीनन हकीकत बन चुका है। कोई बोतलबंद हवा बेच रहा है, तो कोई एसी, हीटर की तरह एयर प्युरिफायर से आपको लुभा रहा है। तो, क्या करीब ढाई दशक पहले जैसे पानी बिकने लगा, अब हवा भी बिकने लगेगी? तब पानी का प्रदूषण बीमारियों का खजाना बना था और कंपनियों की चांदी, अब हवा रोगी बनाने लगी है तो वह भी कंपनियों के लिए नया बाजार खोल रही है।
बेशक, न प्रदूषित पानी का डर बेवजह था, न अब वायु प्रदूषण का भय बेमानी है। लेकिन क्या वाकई कंपनियों के ये उत्पाद आपका जीवन सुरक्षित बनाते हैं? आइए जानें जानकार क्या कहते हैं। जानकारों का मानना है कि वायु प्रदूषण को लेकर बढ़ती जागरूकता ने देश में भले उत्पादों का एक नया बाजार खड़ा कर दिया हो, लेकिन फेफड़े में जमा हो रही जहरीली हवा से बचाने में ये ज्यादा असरकारी नहीं हैं। देश के शीर्ष अस्पताल दिल्ली में अखिल भारतीय आयुर्विज्ञान संस्थान (एम्स) के निदेशक, सांस रोग विशेषज्ञ डॉ. रणदीप गुलेरिया आउटलुक से कहते हैं, “जब लोगों को प्रदूषण का एहसास होता है, सांस लेने में तकलीफ होने लगती है तो वे व्यक्तिगत स्तर पर इन चीजों का इस्तेमाल करने लगते हैं। इनसे थोड़ा फर्क तो पड़ता है, लेकिन प्रदूषण की समस्या का यह न तो स्थायी और न ही व्यावहारिक समाधान है।” उनके मुताबिक इन उत्पादों के असर को लेकर डाटा जुटाने और रिसर्च की जरूरत है।
लेकिन बाजार में एंटी पॉल्यूशन मास्क, एयर प्युरिफाइंग मशीनें, हवा की गुणवत्ता नापने वाले डिजिटल मॉनिटर, बोतलबंद हवा जैसे उत्पादों की भरमार हो गई है। सांस के बाजार में प्रोडक्ट बेचने की मार्केटिंग डर पर टिकी हुई है। तमाम दलीलों और रिसर्च का हवाला देकर बताया जा रहा है कि वायु प्रदूषण से लाखों लोग असमय मर रहे हैं। इस मार्केटिंग का ही परिणाम है कि केवल तीन साल में ही यह इंडस्ट्री सात गुना बढ़ चुकी है। यह दूसरी बात है कि भारतीयों के स्वास्थ्य पर वायु प्रदूषण कितने बड़े पैमाने पर असर डाल रहा है, इसका देश में आज तक कोई अध्ययन ही नहीं हुआ है। फिर भी बढ़ती डिमांड का ही असर है कि अब इस क्षेत्र में एलजी इंडिया, सैमसंग इंडिया, केंट आरओ सिस्टम, पैनासोनिक, यूरेका फोर्ब्स, शाओमी, एयूजएयर जैसी कंपनियां बाजार में उतर चुकी है। इनके उत्पाद ऑनलाइन और ऑफलाइन दोनों माध्यमों से बिक रहे हैं।
फ्लिपकार्ट के प्रवक्ता ने बताया कि एयर प्युरिफायर की डिमांड लगातार बढ़ रही है। अक्टूबर 2017 से नवंबर 2018 के बीच एयर प्युरिफायर की बिक्री उनके प्लेटफार्म से 400 फीसदी की दर से बढ़ी है, जबकि पिछले साल इसी अवधि में यह 250 फीसदी की दर से बढ़ी थी। सैमसंग इंडिया के कंज्यूमर इलेक्ट्रॉनिक्स डिवीजन के बिजनेस डायरेक्टर सौरभ कात्याल के अनुसार एयर प्युरिफायर का मार्केट तीन से साढ़े लाख यूनिट सालाना तक पहुंच चुका है, जो तीन साल पहले करीब 50 हजार यूनिट का था।
वैसे तो वायु प्रदूषण को लेकर ज्यादातर बातें दिल्ली-एनसीआर को लेकर ही होती हैं, लेकिन एयर प्युरिफायर की बिक्री छोटे शहरों में भी तेजी से बढ़ रही है। फ्लिपकार्ट के अनुसार कानपुर, पटना जैसे शहरों में बढ़ती डिमांड को देख कंपनी छोटे शहरों में अलग से मार्केटिंग ड्राइव भी चलाने जा रही है। देश में इस समय करीब 75 फीसदी एयर प्युरिफायर उत्तर भारत में बिक रहे हैं। इसके अलावा मुंबई, बेंगलूरू जैसे शहरों में भी डिमांड बढ़ रही है। इस साल उत्तर भारत में आठ गुना, पश्चिमी भारत में पांच गुना, पूर्वी और दक्षिण भारत में दो गुना बिक्री बढ़ी है।
मेरा ज्यादा बेहतर
मार्केटिंग का यह हाल है कि कंपनियों में अब अपने प्रोडक्ट को सबसे अच्छा बताने की भी होड़ लग गई है। बाजार में 4,500 रुपये से एयर प्युरिफायर की रेंज शुरू हो जाती है। दो लाख रुपये तक के एयर प्युरिफायर भी बाजार में हैं। एलजी इंडिया की प्रवक्ता के अनुसार कंपनी का इस समय एक एयर प्युरिफायर प्रोडक्ट बाजार में है, जिसकी कीमत 98 हजार रुपये है। इसकी खासियत यह है कि 1.0 पीएम साइज तक के कणों को फिल्टर करता है, जिससे हवा कहीं ज्यादा सुरक्षित हो जाती है।
"एम्स सहित दिल्ली के चार केंद्रीय अस्पताल बीते करीब साल भर से सांस के मरीजों के आंकड़े इकट्ठा कर रहे हैं। इससे पता चलता है कि एक्यूआइ में बदलाव से सांस के रोगियों की संख्या घटती-बढ़ती है"
-अनुप्रिया पटेल, राज्यमंत्री, केंद्रीय स्वास्थ्य एवं परिवार कल्याण
बोतल में हवा
मार्केट की संभावना को देखते हुए ऑस्ट्रेलिया की कंपनी एयूजएयर ने भारत में शुद्ध हवा को बोतल में पैक कर बेचना शुरू कर दिया है। कंपनी का दावा है कि उनका प्रोडक्ट हवा में मौजूद ऑक्सीजन से ज्यादा शुद्ध है। कंपनी इस समय 7.5 लीटर और 15 लीटर की बोतल में हवा बेच रही है। 15 लीटर बोतल की कीमत जहां 1999 रुपये है, वहीं 7.5 लीटर की कीमत 1499 रुपये है। यानी 133 रुपये से लेकर 200 रुपये लीटर के हिसाब से हवा बिक रही है। कंपनी के एक ब्लॉग के अनुसार साल 2015 तक भारत में वायु प्रदूषण से 15.9 लाख लोग समय से पहले मौत के शिकार हो चुके हैं। यह संख्या साल 2040 तक 17 लाख पहुंचने की आशंका है। इसी तरह, मास्क पहनने का चलन भी बढ़ता जा रहा है। मास्क की बिक्री सालाना 25 फीसदी की दर से बढ़ रही है।
लेकिन, दिलचस्प यह है कि 99 फीसदी तक इनडोर एयर पॉल्यूटेंट खत्म करने और 99 फीसदी तक पीएम 2.5 को रोकने के दावों को प्रमाणित करने के पुख्ता वैज्ञानिक सबूत नहीं हैं। एम्स दिल्ली के पल्मेनरी डिपार्टमेंट में असिस्टेंट प्रोफेसर डॉ. करण मदान ने आउटलुक को बताया कि प्रदूषण बढ़ने पर सांस लेने में परेशानी, थकान, जलन, सिर भारी होना जैसी शिकायतें आम होती हैं। इस तरह की शिकायतों के साथ इलाज के लिए पहुंचने वालों में काफी लोग ऐसे होते हैं जो मास्क, एयर प्युरिफायर वगैरह का इस्तेमाल करते हैं। जाहिर है, यह समस्या का समाधान नहीं है। डॉ. मदान की मानें तो मास्क का इस्तेमाल करने वाले कई मरीज सांस लेने में दिक्कत आने की भी शिकायत करते हैं।
ऐसे में ताज्जुब नहीं कि संध्या मुखर्जी जैसी माताओं की अपने बच्चों के स्वास्थ्य को लेकर चिंताएं बढ़ती ही जा रही हैं। दिल्ली के सफदरजंग एन्क्लेव में रहने वाली संध्या ने आउटलुक को बताया, “प्रदूषण के कारण मैं अपने दोनों बच्चों को घर से बाहर खेलने नहीं देती। बच्चे बाहर निकलते भी हैं तो मास्क पहने होते हैं। घर में एयर प्युरिफायर लगा रखा है। डॉक्टरों ने कहा कि स्कूल घर के करीब हो तो तीन साल में बच्चों के दो स्कूल बदल चुकी हूं। फिर भी मेरे दोनों बच्चों को सांस से जुड़ी बीमारी हो गई है।”
वैसे भी जब वायु गुणवत्ता सूचकांक (एक्यूआइ) तीन सौ से नीचे आने का नाम न ले और कब पांच सौ को पार कर जाए तो बचाव के ये उपाय अंधेरे में तीर जैसे ही लगते हैं। दीपावली के दिन दिल्ली में एक्यूआइ एक हजार हो गया था। केंद्रीय प्रदूषण नियंत्रण बोर्ड (सीपीसीबी) के हालिया आंकड़े बताते हैं कि देश के 60 शहरों में एक्यूआइ ‘खराब’ है। देश की राजधानी दिल्ली और उसके आसपास के इलाकों में यह ‘बहुत खराब’ से ‘गंभीर’ के बीच झूल रहा है। इससे भी डरावना तथ्य यह है कि देश के केवल 72 शहरों में ही सीपीसीबी रोजाना एक्यूआइ की मॉनिटरिंग करता है, जबकि विश्व स्वास्थ्य संगठन (डब्ल्यूएचओ) की सालाना रिपोर्ट के मुताबिक दुनिया के 20 सबसे प्रदूषित शहरों में से 14 भारत के हैं।
डब्ल्यूएचओ की रिपोर्ट के अनुसार, देश में हर साल 20 लाख से ज्यादा लोग प्रदूषित हवा की वजह से मरते हैं। वंशानुगत कारणों, खान-पान में गड़बड़ी और लापरवाह जीवनशैली से होने वाले डायबिटीज में भी वायु प्रदूषण ने एक नया आयाम जोड़ दिया है। लैंसेट डायबिटीज ऐंड एंडोक्रायोलॉजी जर्नल में छपे एक अध्ययन में बताया गया है कि भारत में घर से बाहर का प्रदूषण लोगों में डायबिटीज को जन्म दे रहा है और इसके ज्यादातर शिकार बच्चे हो रहे हैं। डब्ल्यूएचओ के एक अनुमान के मुताबिक 2016 में 15 वर्ष से कम उम्र के करीब छह लाख बच्चों को वायु प्रदूषण से होने वाले श्वास नली के संक्रमण के चलते जान गंवानी पड़ी। एनर्जी पॉलिसी इंस्टीट्यूट एट द यूनिवर्सिटी ऑफ शिकागो की ‘एयर क्वालिटी लाइफ इंडेक्स ऐंड एकॉम्पनिंग’ रिपोर्ट के मुताबिक वायु प्रदूषण से दुनिया भर में लाइफ एक्सपेक्टेंसी यानी जिंदगी की औसत उम्र में 1.8 साल की कमी आई है। लेकिन, भारत में यह 4.3 साल कम हुई है, जबकि 1998 में इसमें 2.2 साल की कमी का अनुमान लगाया गया था। रिपोर्ट की मानें बीते दो दशक में दिल्ली की हवा की गुणवत्ता 2016 में सबसे ज्यादा घातक थी। इतनी घातक कि इससे यहां रहने वाले नागरिकों की लाइफ एक्सपेक्टेंसी में 10 साल से ज्यादा की कमी आई है।
ऐसे में ताज्जुब नहीं होना चाहिए कि हवा की गुणवत्ता खराब होते ही खासकर सर्दी के मौसम में अस्पतालों के पल्मेनरी डिपार्टमेंट में मरीजों की संख्या 15-20 फीसदी बढ़ जाती है। डॉ. मदान ने बताया कि बीते तीन साल से यह ट्रेंड दिख रहा है। इनमें पांच से दस फीसदी ऐसे मरीज होते हैं जिन्हें पहले कभी सांस की बीमारी नहीं हुई होती है। दिल्ली के सर गंगाराम अस्पताल के डॉ. अरविंद कुमार ने बताया कि 90 के दशक तक उनके पास फेफड़े की बीमारी वाले जो मरीज आते थे, वे अमूमन धूम्रपान करते थे। अब 60 फीसदी मरीज ऐसे होते हैं जिन्होंने कभी धूम्रपान नहीं किया होता है। लेकिन, केंद्र सरकार के पास वायु प्रदूषण से होने वाली असमय मौतों का कोई आंकड़ा नहीं है। इसी साल जुलाई में केंद्रीय पर्यावरण मंत्रालय ने संसद में बताया था कि देश में इस तरह के कोई आंकड़े नहीं हैं जिससे यह पता चले कि ‘वायु प्रदूषण का मौत या बीमारी से कोई प्रत्यक्ष संबंध है’।
"जब लोगों को सांस लेने में तकलीफ होने लगती है तो वे व्यक्तिगत स्तर पर बचाव के उपाय करते हैं। इनसे थोड़ा फर्क तो पड़ता है, लेकिन यह न तो प्रदूषण की समस्या का स्थायी और न ही व्यावहारिक समाधान है"
-डॉ. रणदीप गुलेरिया, निदेशक, एम्स, दिल्ली
केंद्रीय स्वास्थ्य एवं परिवार कल्याण राज्यमंत्री अनुप्रिया पटेल ने आउटलुक को बताया कि स्वास्थ्य पर वायु प्रदूषण से पड़ने वाले दुष्प्रभावों का अध्ययन करने के लिए केंद्र सरकार ने एक उच्चस्तरीय समिति का गठन किया है। इस समिति के सुझाव पर दिल्ली के चार अस्पताल (एम्स, लेडी हार्डिंग मेडिकल कॉलेज, सफदरजंग और राम मनोहर लोहिया) 10 नवंबर 2017 से राष्ट्रीय रोग नियंत्रण केन्द्र (एनसीडीसी) को सांस के मरीजों के आंकड़े प्रतिदिन उपलब्ध कराते हैं। इन आंकड़ों के आधार पर पता चलता है कि एक्यूआइ में बदलाव से सांस के मरीजों की संख्या घटती-बढ़ती है। डॉ. गुलेरिया ने बताया कि अगले साल मार्च में अध्ययन पूरा होने के बाद ही यह पूरी तरह स्पष्ट हो पाएगा कि वायु प्रदूषण कितने बड़े पैमाने पर स्वास्थ्य पर असर डाल रहा है। पटेल ने बताया कि इसके अलावा देश के 20 अत्यधिक प्रदूषित शहरों में भी इस तरह का अध्ययन शुरू करने की योजना है।
डॉ. गुलेरिया ने बताया कि प्रदूषण की बातें जब भी होती हैं तो वह ज्यादातर दिल्ली-एनसीआर पर ही केंद्रित होती है, जबकि अब ये छोटे-छोटे शहरों में भी गंभीर समस्या बन गई है। उत्तर और मध्य भारत खासकर इंडो गैंगेटिक बेल्ट के आसपास के शहरों में वायु की गुणवत्ता बेहद खराब है। लेकिन, इन शहरों पर फोकस नहीं होने के कारण प्रदूषण को लेकर जागरूकता भी नहीं है। उन्होंने बताया, “इस समस्या से निपटने के लिए हर जगह के लिए अलग-अलग प्लान बनाकर उसे लागू करने की जरूरत है। प्रदूषण बढ़ने पर उससे बचने के फौरी तरीके खोजने के बजाय हमें उन स्रोतों को नियंत्रित करने पर ध्यान केंद्रित करना चाहिए, जिनसे वायु की गुणवत्ता खराब हो रही है।” उन्होंने बताया कि दिल्ली-एनसीआर में तेजी से बढ़ती वाहनों की संख्या, निर्माण कार्य, औद्योगिक इकाइयां, पराली जलाने और कूड़ाघर वायुमंडल में धूल और जहरीली गैसों के कणों को बढ़ा रहे हैं। वहीं, छोटे शहरों में इसका एक बड़ा कारण ईंट के भट्ठे भी हैं।
सेंटर फॉर पॉलिसी रिसर्च की रिसर्चर कांची कोहली ने आउटलुक को बताया, “तमाम अध्ययनों से यह स्पष्ट हो चुका है कि वायु प्रदूषण के लिए कौन-कौन से सेक्टर जिम्मेदार हैं। लेकिन, जिस तरह से पॉलिसी बन रही हैं उससे तो लगता है कि हालात और खराब होंगे, क्योंकि प्रदूषण रोकने की बात नहीं हो रही।” उन्होंने बताया, “प्रदूषण कॉमन प्रॉब्लम है, इसलिए यह किसी के लिए समस्या नहीं है। इसे रोकने की व्यवस्था है। नियम-कायदे तय हैं। अदालत भी कई बार निर्देश दे चुकी है। लेकिन, जवाबदेही तय नहीं है। इसके कारण केंद्र, राज्य सरकारों, एजेंसियों और वायु प्रदूषण फैलाने वाले सेक्टर के बीच मामला फंसा हुआ है।”
कोहली ने बताया कि बीते तीन-चार साल में जो सबसे बड़ी बात हुई है, वह यह है कि अब प्रदूषण मुद्दा बनता जा रहा है। उन्होंने बताया, “छोटे शहरों में तो हालात पहले से ही ज्यादा खराब थे। लेकिन, जब से दिल्ली-एनसीआर में यह समस्या गंभीर हुई है अब इस पर बात होने लगी है।” उन्होंने बताया कि चिंता की बात यह है कि जागरूकता बढ़ने के साथ कन्फ्यूजन भी बढ़ रहा है। आम नागरिक खुद क्या कर सकते हैं, इसको लेकर कन्फ्यूज हैं। वे सोचते हैं प्रदूषण से निपटना सरकार का काम है। वहीं, सरकारी स्तर पर कन्फ्यूजन अलग-अलग विभागों से मामला जुड़े होने के कारण है।
जाहिर है, जब तक कन्फ्यूजन के बादल नहीं छंटेंगे हम यूं ही जहरीली हवा फेफड़े में भरने को मजबूर रहेंगे और कंपनियां डर भुनाती रहेंगी!
क्या है पीएम ?
एयर क्वालिटी इंडेक्स (एक्यूआइ) को मापने का सबसे प्रचलित पैमाना है हवा में पीएम 2.5 और पीएम 10 का पता लगाना। पीएम का मतलब पार्टिकुलेट मैटर यानी हवा में मौजूद सूक्ष्म कण और 2.5 या 10 कण का साइज बताता है जो माइक्रोन में होता है। 2.5 माइक्रोन का मोटा मतलब है हवा की मोटाई से 30 गुणा कम। अमूमन हमारे शरीर के बाल पीएम 50 साइज के होते हैं। एक इंच में 25 हजार माइक्रोन होते हैं। अब आप आसानी से अंदाजा लगा सकते हैं कि पीएम 2.5 कितने बारीक होते होंगे। इन कणों को विशेष उपकरणों की मदद से ही देखा जा सकता है। जब ये जमा होते हैं तो स्मॉग की स्थिति बन जाती है। सांस के जरिए हमारे शरीर में प्रवेश कर ये कण खून में घुल जाते है। इससे अस्थमा, सांस की परेशानी, फेफड़े सिकुड़ने जैसी कई समस्याएं पैदा हो सकती हैं।