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26 मई 2025 · MAY 26 , 2025

आवरण कथा/पहलगाम हमला/नजरियाः युद्ध विकल्प नहीं

युद्ध की अनिश्चितता और लागत, वर्तमान तैयारी के स्तर और दोनों तरफ परमाणु ताकत के कारण भारत के लिए मौजूदा हालात में सीधी लड़ाई तर्कसंगत विकल्प नहीं
जवाबी कार्रवाई क्या होः नई दिल्ली में समीक्षा बैठक में प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी, रक्षा मंत्री राजनाथ सिंह, एनएसए अजित डोभाल और शीर्ष अधिकारी

पहलगाम के पास बैसरन घाटी के मैदान में 22 अप्रैल, 2025 को 26 पुरुषों की उनकी महिलाओं और बच्चों की आंखों के सामने चुन-चुन कर हत्या दिल दहला देने वाली त्रासदी है, और उसके लिए बेहद सख्‍त जवाबी कार्रवाई की दरकार है। इस पर काफी कुछ बोला-लिखा जा चुका है। उन कुछ संजीदा और कुछ बेतुकी बातों को यहां दोहराना बेमानी होगा। घटना की भीषणता के बावजूद, यह याद रखना उपयोगी है कि जम्मू-कश्मीर में पाकिस्तान समर्थित इस्लामी जिहाद के 35 वर्षों में हिंदुओं को चुन-चुन कर निशाना बनाने की यह इकलौती वारदात नहीं है। असल में, इसकी शुरुआत 1988 में हिंदुओं को चुन-चुन कर निशाना बनाने से हुई, जिसकी वजह से 1989-90 तक घाटी से लगभग 1,00,000 कश्मीरी पंडितों का पलायन हुआ। 1988 से 24 अप्रैल 2025 तक राज्य में आतंकवादियों द्वारा मारे गए 15,290 आम लोगों में हिंदुओं और अन्य अल्पसंख्यकों को अक्सर चुनिंदा तरीके से निशाना बनाया गया है (दक्षिण एशिया आतंकवाद पोर्टल डेटा)।

हर बड़ा आतंकवादी हमला जम्मू-कश्मीर में “रणनीतिक बदलावों” और “आतंकवाद के बदलते पैटर्न” को लेकर अमूमन बड़ी मात्रा में अज्ञान से भरी और गैर-जानकारी वाली टिप्पणियों को जन्म देता है। लेकिन जम्मू-कश्मीर में जिहाद लंबी राज्य प्रायोजित लड़ाई है जो 35 वर्षों से अधिक समय से जारी है। इसमें दोनों पक्षों की ओर से असंख्य सामरिक बदलाव देखे गए हैं, जिसमें सुरक्षा बल और आतंकवादी दोनों लगातार होड़ करते रहे हैं। यह दौर टेक्‍नोलॉजी में नाटकीय बदलाव का भी रहा है, और दोनों पक्षों ने उभरती हुई टेक्‍नोलॉजी का फायदा उठाने की कोशिश की है। हालांकि, अहम बात यह है कि दोनों पक्षों के रणनीतिक उद्देश्य और रुख में कोई बदलाव नहीं हुआ है।

जायजाः नियंत्रण रेखा पर पाकिस्तानी फौज प्रमुख आसिम मुनीर (बाएं से दूसरे)

जायजाः नियंत्रण रेखा पर पाकिस्तानी फौज प्रमुख आसिम मुनीर (बाएं से दूसरे)

दरअसल यही बात पाकिस्तान के फौज प्रमुख जनरल आसिम मुनीर के हाल के भाषण को लेकर दनादन आई राय और बयानों को समझ से परे और बेमानी बनाती है। ज्‍यादातर टिप्पणीकारों की बातें ‘भेडि़या आया’ जैसे हो-हल्‍ले की तरह हैं। कई 'विशेषज्ञों' ने 16 अप्रैल को आप्रवासी पाकिस्तानियों की सभा में दिए गए उस भाषण की व्याख्या बैसरन मैदान की घटना के लिए सीधे तौर पर उकसावे की तरह की है। लेकिन जम्मू-कश्मीर में आतंकवाद 22 अप्रैल को शुरू नहीं हुआ, न ही मुनीर की कही किसी बात में कोई नयापन है। ज्‍यादातर की राय उनके इस दावे पर केंद्रित है कि कश्मीर पाकिस्तान के गले की नस है और रहेगी, लेकिन यह ऐसा बयान है जिसे सैकड़ों फौजी और सियासी नेता दशकों से बार-बार कहते रहे हैं। असल में, जनरल परवेज मुशर्रफ ने एक से ज्‍यादा मौकों पर इस मुहावरे का इस्तेमाल किया था, जिनके भारत में कई प्रशंसक हैं, और जिनके साथ भारतीय जनता पार्टी की पिछली सरकार ने कश्मीर पर बातचीत की थी। मुनीर के भाषण में एक और बात भारत में नाराजगी का कारण बनी है, वह यह है कि उन्‍होंने कुरान से बार-बार उद्धृत किए गए उद्धरण दिए, जिसे उनकी ‘कट्टरपंथी और चरमपंथी’ मानसिकता का सबूत मान लिया गया है। लेकिन कई भारतीय नेता और सेवारत तथा सेवानिवृत्त दोनों तरह के शीर्ष सैन्य अधिकारी हैं, जिन्होंने महाभारत, भगवद गीता, वेद या अन्य हिंदू ग्रंथों से उद्धरण देना एक प्रथा जैसी बना ली है। तो, क्या हमें उनकी मानसिकता के बारे में भी ऐसा ही निष्कर्ष निकालना चाहिए? समस्या यह है कि गहरी जानकारी या खुफिया सूचनाओं से दूर कई टिप्पणीकारों ने खुद को मन पढ़ने वाला ईजाद कर लिया है, और मुनीर क्या सोच रहे हैं और क्या योजना बना रहे हैं, इस बारे में अपनी खोज से भोले-भाले लोगों को बहका रहे हैं।

मुनीर, बेशक, पुलवामा हमले के समय इंटर-सर्विसेज इंटेलिजेंस (आइएसआइ) के महानिदेशक थे, जिसमें फरवरी 2019 में 40 केंद्रीय रिजर्व पुलिस बल के जवान मारे गए थे और वही बालाकोट में हवाई हमले का उकसावा बना था। हालांकि, उस वक्‍त फौज प्रमुख जनरल क़मर जावेद बाजवा थे, जिनके बारे में माना जाता है कि उन्होंने कश्मीर मुद्दे पर और भारत के प्रति ‘नरम’ नीति अपनाई थी।

यह साफ-साफ समझना होगा कि 1988 से पाकिस्तान में नौ फौज प्रमुख हो चुके हैं, और उनमें किसी ने भी कश्मीर के ‘मुख्य मुद्दे’ के प्रति रणनीतिक प्रतिबद्धता कम नहीं की है। इस दौरान आतंकवाद के ग्राफ में कई उतार-चढ़ाव देखे गए हैं, लेकिन मुनीर कोई अजूबा या अलग नहीं हैं; वे भी तमाम संभावित साधनों के जरिए जम्मू-कश्मीर को कब्जे में लेने के लिए पाकिस्तानी फौज की प्रतिबद्धता को ही दर्शाते हैं, खासकर छद्म आतंकवाद के जरिए। यह कहना कि मुनीर अचानक एक नई रणनीतिक दिशा या रुख की शुरुआत हैं, न सिर्फ 35 साल के आतंकवाद को, बल्कि इस उद्देश्य के लिए 78 साल की लगातार पाकिस्तानी साजिशों और कोशिशों को भी नजरअंदाज करना है।

यह व्यापक धारणा है कि भारत सरकार पर अब बैसरन घाटी में हुए हमले के प्रतिशोध में कुछ नाटकीय करने का बेहिसाब दबाव है। उन्मादी टीवी एंकरों और सोशल मीडिया योद्धाओं के पसंदीदा ‘पूर्ण युद्ध’ और सर्जिकल स्ट्राइक जैसे दो विकल्प हैं। यह दबाव प्रधानमंत्री सहित विभिन्न शीर्ष नेताओं के मुंहतोड़ जवाब का वादा करने वाले सार्वजनिक बयानों से और भी बढ़ा हो सकता है। अगर कथित सार्वजनिक दबाव के आगे सरकार झुकती है और फैसले करती है तो यह बेहद दुर्भाग्यपूर्ण और अनुत्पादक होगा।

भारत के पास दीर्घकालिक विकल्प

युद्ध की अनिश्चितता और लागत, मौजूदा तैयारियों का स्तर, परमाणु संतुलन और क्षेत्रीय खतरे का माहौल ही भारत के लिए युद्ध को तर्कसंगत विकल्प नहीं बनाते, मौजूदा हालात में तो बिल्‍कुल नहीं। पिछले ‘सर्जिकल स्ट्राइक’ की कामयाबी संदिग्ध रही है। गहराई से देखें, तो लंबे वक्‍त के लिए ऐसी कार्रवाई के सबक संदिग्ध हैं। एकाध वार से पाकिस्तान को आतंकवाद को प्रायोजित करने से रोका नहीं जा सकता है, खासकर जिसमें पाकिस्तान मुकाबले की- या कभी-कभी बेहतर -जवाबी कार्रवाई कर सकता है, ।

पाकिस्तान में 'कश्मीर मुद्दे' पर स्थायी जुनून के मद्देनजर यह जरूरी है कि भारत लंबे संघर्ष की रणनीति तैयार करे, जिसके तहत दुश्‍मन की 'ताकत को तोड़ने और कमजोरियों का फायदा उठाने' की कोशिश हो। भारत के पास आज ऐसी रणनीति अपनाने का बेहतर मौका है। एक बात यह है कि दुनिया में अतीत के उलट अब 'आतंकवाद के प्रति बर्दाश्‍त' कम हो गई है, और पश्चिमी देशों सहित अधिकांश प्रमुख देशों ने बैसरन घाटी की घटना की न केवल निंदा के कड़े संदेश जारी किए हैं, बल्कि उन्होंने नई दिल्ली के जवाबी उपायों के लिए समर्थन भी जाहिर किया है।

महत्वपूर्ण यह है कि पाकिस्तान आज बेहद कमजोर स्थिति में है: उसकी अर्थव्यवस्था बेपटरी है, सियासत में ढेरों विवाद हैं, उसका माहौल और संसाधन तनावग्रस्त हैं, बेरोजगारी और गरीबी बढ़ रही है, रुपये का मूल्य घट रहा है, लंबे समय से मजबूत रही फौज की साख डांवाडोल है, कई तरह के उग्रवादी संगठन फौज को सीधे निशाने पर ले रहे हैं, और हर प्रांत में कबिलाई तथा सांप्रदायिक संघर्ष पाकिस्तान के विचार और द्वि-राष्ट्र सिद्धांत की नींव को कमजोर कर रहे हैं।

इस पृष्ठभूमि में, भारत सरकार के पहले घोषित पांच जवाबी उपायों में सिंधु जल संधि को स्थगित करने का सबसे अधिक असर पड़ने की संभावना है, बशर्ते मौजूदा और बाद की सरकारें इस रणनीति पर अडिग रहने की दृढ़ इच्छाशक्ति दिखाती रहें। इस पर बहुत चर्चा हो चुकी है कि इस उपाय का तत्काल कोई प्रभाव पड़ने की संभावना नहीं है, लेकिन भारत अगर वर्षों से पाकिस्तान में अप्रयुक्त जल के प्रवाह को कम करने में सक्षम हो जाता है, चाहे छोटे प्रतिशत में ही सही, तो उसका पाकिस्तान की अर्थव्यवस्था, राजनीति और आंतरिक टकरावों पर बहुत बुरा असर पड़ेगा, क्‍योंकि वह पहले ही दुनिया के सबसे अधिक जल-संकटग्रस्त देशों में से एक है।

गोपनीय साधनों और कार्रवाइयों की विस्तृत शृंखला पाकिस्तान की मौजूदा कमजोरियों को बहुत बढ़ा सकती है और नेशनल असेंबली और संस्थाओं की बची हुई ताकत और क्षमताओं को कमजोर कर सकती है। हालांकि, यहां उनकी विस्तार से चर्चा करना उचित नहीं है। सभी संभावित साधनों का उपयोग किया जा सकता है, मोटे तौर पर अन्य उपायों के साथ-साथ, युद्ध के बिना सैन्य प्रतिस्पर्धा को कमजोर करना, दोनों देशों के बीच बढ़ते आर्थिक और तकनीकी अंतर का लाभ उठाना, साइबर ऑपरेशन और जहां भी संभव हो छोटी-मोटी सियासी आग को भड़काने जैसे उपाय हो सकते हैं।

महत्वपूर्ण बात यह है कि ये गुप्त ऑपरेशन होते हैं और होने चाहिए- और उनसे वह नाटकीय ‘जीत’ नहीं मिलेगी जो मौजूदा भारतीय शासक दल राजनैतिक लाभ के लिए चाहता है। लिहाजा, पाकिस्तान के खिलाफ सबसे प्रभावी उपाय भारत में सत्तारूढ़ दल के लिए सबसे कम दलीय राजनैतिक लाभ देने वाले ही हो सकते हैं।

 अजय साहनी

(लेखक इंस्टीट्यूट फॉर कॉन्फ्लिक्ट मैनेजमेंट और साउथ एशिया टेररिज्म पोर्टल के कार्यकारी निदेशक हैं। विचार निजी हैं)

 

 

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