महाराष्ट्र के उपमुख्यमंत्री तथा राकांपा (अजीत गुट) के नेता अजित पवार ने बारामती में मालेगांव सहकारी चीनी मिल चुनाव में जीत हासिल कर ली है। पिछले चार दशकों से यह सीट उनकी पहुंच से बाहर थी। 1980 के दशक के बाद पहली बार अजित पवार ने सियासी रूप से बेहद अहम शक्कर सहकारी संस्था पर दबदबा हासिल कर लिया है। बारामती शरद पवार नेतृत्व वाली राकांपा गुट का लंबे समय से गढ़ रहा है।
अजीत की पार्टी ने शरद पवार की राकांपा को तगड़ा झटका देकर 21 में से 20 सीटें जीत ली, जबकि शरद पवार का खाता तक नहीं खुल पाया। इस चुनाव के बाद अजित पवार के चाचा शरद पवार को पारिवारिक गढ़ बारामती गहरा झटका लगा और सियासी दुनिया में चल रही पवार बनाम पवार जंग में अजीत को बढ़त मिल गई। विधानसभा चुनाव के बाद शरद पवार के लिए यह एक और बड़ा झटका है।
महाराष्ट्र के जटिल राजनैतिक तानेबाने, खासकर पश्चिमी और मध्य क्षेत्रों की चीनी मिलों जैसी सहकारी संस्थाएं राजनैतिक सत्ता से गहराई से जुड़ी हुई हैं। चीनी सहकारी समितियां महज आर्थिक उद्यम नहीं हैं, वे राजनैतिक ताकत केंद्र हैं, जो ग्रामीण मतदाताओं, कृषि नीतियों और स्थानीय नेतृत्व संरचनाओं पर महत्वपूर्ण प्रभाव डालती हैं।
असली बॉस
मालेगांव मिल चुनाव में अजीत पवार की जीत को उनके स्वतंत्र राजनैतिक आधार की महत्वपूर्ण दावेदारी के रूप में देखा जा रहा है। खासकर बारामती में, जिसे पारंपरिक रूप से उनके चाचा शरद पवार का गढ़ माना जाता है। पिछले साल राकांपा से अलग होने के बाद से अजीत पवार को उपमुख्यमंत्री के रूप में अपनी भूमिका से परे अपनी चुनावी ताकत और संगठनात्मक पकड़ साबित करने की चुनौती का सामना करना पड़ा है। ऐसे समय में रणनीतिक सहकारी समिति पर नियंत्रण हासिल करना जमीनी स्तर पर उनके बढ़ते प्रभाव को दर्शाता है।
मालेगांव मिल का नेतृत्व हासिल करके उन्होंने स्थानीय सहकारी नेटवर्क पर अपनी पकड़ मजबूत की है, ग्रामीण नेताओं का एक वफादार काडर तैयार किया है और गन्ना किसानों और मिल मजदूरों के बीच अपनी प्रासंगिकता को सिद्ध किया है। यह ऐसा मतदाता समूह है, जिसने ऐतिहासिक रूप से महाराष्ट्र के राजनैतिक संतुलन को हमेशा से प्रभावित किया है।
इस चुनाव की प्रतिष्ठा इस बात से ही समझी जा सकती है कि अजित पवार खुद मालेगांव चुनाव के लिए बारामती में डेरा डाले हुए थे। उन्होंने पहले ही घोषणा कर दी थी कि चेयरमैन तो वे ही बनेंगे। अजित को शरद पवार और तावड़े पैनल से चुनौती मिली थी। यही वजह थी कि मालेगांव चीनी मिल का चुनाव उनके लिए प्रतिष्ठा का मामला बन गया था। अजित पवार ने कहा था कि वे चेयरमैन बनेंगे, तो मालेगांव फैक्ट्री के लिए 500 करोड़ रुपए का फंड लाएंगे। मालेगांव सहकारी चुनाव के लिए 22 जून को वोट डाले गए थे। वोटों की गिनती मंगलवार 24 जून को सुबह 9 बजे से शुरू हुई थी। लेकिन मतगणना में 36 घंटे लग गए और इस वजह से नतीजे देरी से आए।
चीनी मिलों की राजनैतिक ताकत
मध्य और पश्चिमी महाराष्ट्र में चीनी मिलें सिर्फ आर्थिक आधार नहीं हैं, ये राजनीतिक संस्थाएं हैं, जो ग्रामीण क्षेत्र में सत्ता का गणित तय करती हैं। इन सहकारी समितियों पर काबिज नेता अक्सर स्थानीय चुनाव परिणामों पर असर डालते हैं। दबदबा रखने वालों के पास काम करने के लिए स्थायी लोग, वित्तीय नेटवर्क तथा किसानों को नौकरी, ऋण और खरीद संबंधी लाभ देने करने की क्षमता रहती है।
पिछले कई दशकों में महाराष्ट्र के सहकारी चीनी क्षेत्र ने राज्य के कुछ सबसे शक्तिशाली राजनैतिक नेताओं को जन्म दिया है, जिनमें शरद पवार भी एक हैं। इन संस्थाओं पर नियंत्रण का अर्थ है- स्थानीय पंचायतों, जिला परिषदों और अंततः विधानसभा और संसदीय सीटों पर गहरा प्रभाव होना।
इसलिए इस जीत के बाद कहा जा रहा है कि अजित पवार की जीत न केवल क्षेत्र पर नया दावा है, बल्कि उनके चाचा सहित दूसरे प्रतिद्वंद्वियों के लिए भी एक संकेत है कि महाराष्ट्र के ग्रामीण क्षेत्र की लड़ाई अभी खत्म नहीं हुई है।