स्त्री के लिए आजीविका का सबसे आम साधन विवाह है और उसमें वह संभवतः वेश्यावृत्ति से भी काफी अधिक अवांछित यौन संबंध सहती है।
बर्ट्रेंड रसेल, मैरिज ऐंड मॉरल्स
बहस यकीनन पुरानी है। उससे भी पुरानी जब स्वतंत्रता, स्वायत्तता के विचार दुनिया को आंदोलित करने लगे, नारीवाद के उभार से पितृसत्तात्मक समाज को चुनौती दी जाने लगी और हर रस्म-रिवाज, कायदे-कानून को इन्हीं कसौटियों पर कसा जाने लगा, स्त्री-पुरुष संबंधों और रति-सुख के साथ विवाह संस्था के चाल-चलन पर सवाल उठने लगे। दुनिया के और अपने यहां भी प्राचीन ग्रंथों और महाकाव्यों में कई वृत्तांतों में स्त्री स्वतंत्रता का सवाल मार्मिक ढंग से आंदोलित करता है। महाकवि तुलसीदास का वह पद ही याद कर लीजिए, कत विधि सृजि नारि जग माही, पराधिन सुख सपनेहु नाही। लेकिन हर बार जब भी कोई घटना होती है, बहस नए सिरे से तेज हो उठती है। हाल में दुनिया के दोनों गोलार्द्धों पश्चिम और पूरब, खासकर भारत में दो अलग संदर्भों और घटनाओं से विवाह में बलात्कार, यौन-सुख और स्त्री-देह अधिकार के मूल सवाल फिर जोरदार बहस का सबब बन गए हैं। हाल में हॉलीवुड के चर्चित अभिनेता जॉनी डेप की पूर्व पत्नी एंबर हर्ड ने कई सनसनीखेज आरोप लगाए, तो उसे चर्चित मी-टू अभियान का विस्तार बताया गया और विवाह में स्त्री यौन अधिकारों के प्रति आक्रामक चर्चाएं छिड़ गईं। तलाक के बाद एंबर हर दिन एक नया खुलासा कर रही हैं। एंबर का आरोप है कि डेप ने उनके प्राइवेट पार्ट में न सिर्फ शराब की बोतल घुसा दी थी, बल्कि वह हर दिन उनके साथ शारीरिक, मानसिक और मौखिक हिंसा करते थे। इससे विवाह संस्था पर नए प्रश्नचिन्ह उभर आए हैं, जो दुनिया भर को आंदोलित कर रहे हैं।
अपने यहां भारत में यही सवाल दिल्ली हाइकोर्ट के मई के दूसरे हफ्ते में एक खंडित फैसले में बाहर आया और विवाह में बलात्कार के सवाल पर पक्ष-विपक्ष में तेज और तीखी आवाजों को हवा दी। हाइकोर्ट के दो जजों की राय भिन्न थी कि भारतीय दंड संहिता (आइपीसी) की धारा 375 में वैवाहिक बलात्कार का अपवाद होना संवैधानिक है या नहीं। धारा 375 का अपवाद 2 कहता है, “पुरुष का अपनी पत्नी के साथ संसर्ग या यौन कृत्य बलात्कार नहीं है, बशर्ते पत्नी 15 वर्ष से कम आयु की न हो।”
न्यायमूर्ति राजीव शकधर ने वैवाहिक बलात्कार अपवाद को संविधान के अनुच्छेद 14, 15(1), 19(1) (ए) और 21 का उल्लंघन मानकर रद्द कर दिया, जबकि न्यायमूर्ति हरिशंकर ने आइपीसी की धारा 375 के अपवाद 2 को संवैधानिक रूप से वैध ठहराया। विभाजित फैसले और इस मुद्दे के महत्व को देखते हुए जजों ने एकमत से सुप्रीम कोर्ट में अपील करने की अनुमति दी। अब याचिकाएं सुप्रीम कोर्ट में दायर हो चुकी हैं और सुप्रीम कोर्ट इस गहन मुद्दे पर विचार करेगी।
लेकिन इसको लेकर देश में उठा कोलाहल तो देखिए! कम से कम सोशल मीडिया पर विवाह में बलात्कार को जायज मानने या अपराध न मानने वालों की आई बाढ़ देख हैरानी होती है। शायद इससे देश में तारी नए माहौल का भी अंदाजा लगता है। विवाह में बलात्कार को अपराध की श्रेणी में रखने के खिलाफ हैशटैग #MarriageStrike से 57,500 से ज्यादा ट्वीट किए गए। कुछ ट्वीट बहादुरों ने तो इसे विवाह संस्था और हिंदू विरोधी भी बता दिया। कुछ यह आशंका भी जाहिर कर रहे हैं कि अगर विवाह में बलात्कार को अपराध की श्रेणी में डाला गया तो उसके दुरुपयोग से विवाह संस्था और समाज पर प्रतिकूल असर पड़ सकता है।
शायद इसके अक्स हाइकोर्ट के जजों के विभाजित फैसले में भी दिख सकते हैं। न्यायमूर्ति हरिशंकर के मुताबिक आइपीसी की धारा 375 का अपवाद 2 संविधान के अनुच्छेद 14 के तहत दी गई समानता की गारंटी का उल्लंघन नहीं करता, क्योंकि विवाह के भीतर पति की ओर से किए गए बलात्कार और विवाह के बाहर किए गए बलात्कार (चाहे अंतरंग साथी हो या अजनबी) के बीच ‘सुस्पष्ट अंतर’ है। न्यायमूर्ति हरिशंकर की राय विवाह संस्था और विवाह में यौन सुख की ‘जायज अपेक्षा’ को महत्व देती है और इस तथ्य को भी कि पति और पत्नी के बीच यौन संबंध ‘पवित्र’ है। हालांकि वे यह भी मानते हैं कि विवाह असमान लोगों के बीच हो सकते हैं, अच्छे या बुरे हो सकते हैं, सुखद और दुखद हो सकते हैं।
इसके विपरीत न्यायमूर्ति शकधर कहते हैं, इस कानून का औपनिवेशिक इतिहास बताता है कि इसका आधार ‘पितृसत्तात्मकता समाज और स्त्री-द्वेष’ है और उसने मनुष्य जाति की अर्जित स्वतंत्रताओं के हनन में योगदान दिया है। उनका फैसला विवाह संस्था के धुंधले पड़ते जाने की पृष्ठभूमि में महिला की स्वायत्तता, गरिमा और निजता को केंद्र में रखता है। इसीलिए वे कहते हैं कि समाज की तरफ से पति के आचरण के प्रति अपनी ‘अस्वीकृति’ जाहिर करने के तरीके के तौर पर वैवाहिक बलात्कार को ‘बलात्कार कहे जाने की जरूरत’ है।
उल्लेखनीय है कि इस सबमें सरकार ने, चाहे वह केंद्र की हो या दिल्ली की, इस मुद्दे के पक्ष या विरोध में कोई रुख नहीं अपनाया है। मुद्दे की अहमियत को देखते हुए केंद्र ने सलाह-मशविरे के लिए ज्यादा समय की मांग भर की है। शायद इसकी एक वजह बहुसंख्यक आबादी की नाराजगी का डर हो सकता है और दूसरी, दुरुपयोग की आशंका, जैसा कि दहेज विरोधी कानून के मामले में देखा गया है। लेकिन समाजशास्त्री और साउथ एशियन यूनिवर्सिटी के प्रोफेसर देवनाथ पाठक कहते हैं, “दुरुपयोग अगर डर का कारण है, तो कौन से कानून का दुरुपयोग नहीं होता है। जिनके पास शक्ति कम है, वे भी करते हैं, जिनके पास ज्यादा शक्ति है, वे भी करते हैं। वैवाहिक बलात्कार को अपराध की श्रेणी में न लाने का यह बहुत कमजोर तर्क है। होना तो यह चाहिए कि व्यवस्था को पुख्ता बनाया जाए। लेकिन यह सब तो बाद की बात है। पहले मुद्दे को तो स्वीकार कीजिए।”
दुनिया में कुछ ही देश ऐसे हैं, जिनमें वैवाहिक बलात्कार अपराध नहीं है। इस कानून के स्त्री द्वेष और पितृसत्तात्मक पृष्ठभूमि के मद्देनजर ब्रिटेन, अमेरिका, कनाडा, दक्षिण अफ्रीका, इस्त्राइल, रूस जैसे अधिकतर देशों में वैवाहिक बलात्कार को बलात्कार या यौन उत्पीड़न माना जाता है और इसके अपराध के लिए दंड का विधान है। दुनिया भर में अभी तक सिर्फ 32 देशों में वैवाहिक बलात्कार को अपराध नहीं माना जाता है। इनमें भारत, बांग्लादेश, चीन, हैती, लाओस, माली, म्यांमार, नाइजीरिया, सेनेगल, अफगानिस्तान, ताजिकिस्तान, लेबनान, मलेशिया, सिंगापुर, मिस्र, लीबिया, ओमान, यमन, कुवैत जैसे प्रमुख नाम हैं।
दरअसल विवाह में बलात्कार को अपराध की श्रेणी में न रखने के वर्तमान इतिहास को 17वीं सदी के जज सर मैथ्यू हेल के जरिए प्रतिपादित सिद्धांत में खोजा जा सकता है। मैथ्यू हेल ने 1736 में ‘हिस्ट्री ऑफ द प्लीज ऑफ द क्राउन’ नामक लेख में लिखा था कि महिला ने विवाह की अनुमति दे दी, तो “पत्नी ने स्वयं को पति के हाथों में ऐसे सौंप दिया, जिससे वह पीछे नहीं हट सकती।” कहा जाता है कि वे महिलाओं को दोयम दर्जे का मानते थे, जिसे गर्भपात के लिए आपराधिक रूप से दंडित किया जाना चाहिए। असल में, थॉमस डॉब्ज बनाम जैक्सन वीमेन्स हेल्थ ऑर्गनाइजेशन मुकदमे में अमेरिकी सुप्रीम कोर्ट के हाल ही में लीक मसौदे से पता चला कि न्यायमूर्ति एलीटो ने, रो बनाम वेड के मामले में गर्भपात अधिकारों के दशकों पुराने न्यायशास्त्र को उलटने के लिए सर मैथ्यू हेल की राय पर ही भरोसा किया।
हालांकि वैवाहिक बलात्कार या स्त्री की यौन इच्छाओं पर बहस भी दुनिया भर में कई आंदोलनों के केंद्र में रहे हैं। उनका समाज और कानून पर भी असर पड़ा है। भारत में आधुनिक दौर में इस बहस की गूंज स्वतंत्रता आंदोलन के दौरान ही सुनाई पड़ने लगी थी। अब सोशल मीडिया के दौर में महिलाएं खुलकर इसका इजहार भी करने लगी हैं। हाल में हिंदी की एक लेखिका अणुशक्ति सिंह ने एक कंडोम कंपनी के सर्वे के हवाले से फेसबुक लाइव डिबेट में कहा कि भारत में 70 फीसदी महिलाओं को चरम सुख हासिल नहीं होता। उनका इतना कहना ही हंगामा बरपाने के लिए काफी था। उन्हें सार्वजनिक रूप से न सिर्फ भद्दी गालियां दी गईं, बल्कि एसिड फेंकने की धमकी भी दी गई। हालांकि उनके विपरीत दलील भी है। मसलन, युवा लेखक अंबर पांडेय का कहना है, “बात साहित्य की हो तो किसे आपत्ति है। यह बात किसी कहानी या उपन्यास में नहीं कही गई है। यह सिर्फ बयान है। और अगर बोलने वाला पब्लिक इंटलेक्चुअल हो, तो उसकी बात ध्यान से सुनी जाएगी। साहित्य में लिखने की बड़ी परंपरा है। मृदुला गर्ग के उपन्यास चित्तकोबरा पर बहुत बात हुई थी। लेकिन उन्होंने यह उपन्यास मात्र सनसनी के लिए नहीं लिखा था।”
असल में आइपीसी की धारा 375 के अपवाद 2 के समर्थकों की कुछ दलीलें गौरतलब हैं। इसमें कुछ तो निहायत ही गलत समझ पर टिकी हैं। मसलन, एक तो यही कि इसे रद्द करके अदालत विधायिका की भूमिका में दखल दे रही है और कानून बना रही है। यह दलील इस आधार पर फौरन खारिज कर दी जा सकती है कि किसी भी कानून की संवैधानिकता की समीक्षा अदालत के दायरे में है। ऐसी अनेक मिसालें हैं कि अदालत ने कानून की कई धाराओं को निरस्त कर दिया। एक उदाहरण आइपीसी की धारा 377 को ही निरस्त करने का है।
दूसरी दलील यह है कि वैवाहिक बलात्कार को आपराधिक बना दिया गया तो इसका गंभीर दुरुपयोग होगा। भारतीय विधि-व्यवस्था में यह स्थापित तथ्य है कि कोई वाजिब मानवाधिकार संबंधी कानून बनाने के दौरान दुरुपयोग की आशंका मात्र को ध्यान में न रखा जाए या किसी कानून की नाजायज लगने वाली धारा को निरस्त करने से न हिचका जाए। ऐसा फैसला सुप्रीम कोर्ट बुधन चौधरी बनाम बिहार राज्य, 1955 में सुना चुका है। दुरुपयोग की दलीलें तब भी दी गई थीं जब 2005 में घरेलू हिंसा कानून संसद में लाया गया था या जब उसमें महिलाओं के विरुद्ध क्रूरता को आपराधिक करार दिया गया था। दुरुपयोग की चिंताओं को दूर करने के लिए सुधार किए जा सकते हैं।
तीसरी दलील यह है कि मौजूदा कानून विवाह की पवित्रता को बनाए रखने के लिए अनिवार्य है। जैसा आशय न्यायमूर्ति हरिशंकर भी पेश करते लगते हैं कि पति को पत्नी का बलात्कारी मानने की संभावना “विवाह संस्था मात्र के ही पूरी तरह विरुद्ध” है। लेकिन यह सवाल तो उठाना ही चाहिए कि क्या हम विवाह के उस संस्करण की रक्षा करना चाहते हैं जो पति और पत्नी के बीच गैर-बराबरी को और मजबूत करता है, या फिर स्त्री की सहमति और स्वायत्तता को महत्व देते हैं?
बेशक, यह सवाल अहम है और न्यायमूर्ति हरिशंकर ने भी इस तथ्य को रेखांकित किया है कि “विवाह का मतलब यह नहीं है कि महिला हर समय तैयार, इच्छुक और सहमत (शारीरिक संबंध स्थापित करने के लिए) है।”
दिक्कत यह है कि विवाह में बलात्कार की बात तो दूर, देश में घरेलू हिंसा के खिलाफ कानून के बावजूद बहुत कम महिलाएं पुलिस के पास शिकायत लेकर जाती हैं। इसके पीछे सीधा सा कारण परिवार की ‘इज्जत’ के सामाजिक लांछन का डर होता है। लेकिन यह विडंबना ही है कि अब तक देश की अदालतें भी इस पर एकमत नहीं हो पाई हैं कि ‘वैवाहिक बलात्कार’ अपराध है। इस मामले में वरिष्ठ वकील प्रशांत भूषण की राय गौरतलब है। वैवाहिक बलात्कार पर फैसला आने के बाद उन्होंने ट्वीट किया कि, “वैवाहिक बलात्कार पर दिल्ली हाइकोर्ट का विभाजित फैसला दुर्भाग्यपूर्ण है। वर्तमान कानून यह मानता है कि पत्नी अपने पति को उसके साथ बलात्कार करने की अनुमति देने के लिए वैवाहिक दासता से बंधी है। यह एक मध्यकालीन कानून है, जिसे तब बनाया गया था जब महिलाओं को उनके पति का अधिकार माना जाता था। पत्नी को भी ना कहने का अधिकार होना चाहिए।”
मनस्थली की संस्थापक और मनोचिकित्सक डॉ. ज्योति कपूर मानती हैं कि स्त्री की यौनिक इच्छा या अनिच्छा पर विवाद के पीछे मानसिकता यही रहती है कि समाज खुलेपन से इसे स्वीकार नहीं कर पाता। वैवाहिक बलात्कार पर वे कहती हैं, “जबरदती कोई खाना भी खिलाए तो बुरा लगता है फिर यह तो गहराई से जुड़े संबंधों का मसला है। अगर पति-पत्नी में इमोशनल इंटीमेसी नहीं है, तो यह शारीरिक रूप से नहीं आ पाएगी। पुरुषों के लिए यह एक तरह से शक्ति प्रदर्शन है, जबकि महिलाओं के लिए भावनात्मक मुद्दा। महिलाओं के लिए सेक्सुअल डिजायर भावनात्मक मुद्दा होता है। फिर चाहे वह चरम सुख का मसला हो या वैवाहिक बलात्कार का। मैरिटल रेप वास्तविकता है और उसे स्वीकार करना होगा।”
एक बड़ा तबका मानता है कि भारत में स्त्री विमर्श जैसी कोई चीज है ही नहीं, जो भी है वह बस पुरुष विरोध है। देवनाथ पाठक कहते हैं, “भारत में पौराणिक काल से स्त्री विमर्श रहा है। विदेश से इसकी प्रकृति अलग हो सकती है लेकिन है यह स्त्री विमर्श ही। गांधी जी के आंदोलन को देखिए, उन आंदोलनों में महिलाओं को केंद्र में रख कर कितने काम हुए। सरोजिनी नायडू उन्हीं की प्रतीक बन गईं। पर्यावरण की रक्षा के लिए चिपको आंदोलन याद कीजिए। महिलाओं ने पेड़ों को ही अपना शरीर बना लिया। यह विमर्श नहीं तो और क्या है। दुर्भाग्य से लोग स्त्री विमर्श समझते नहीं हैं। उन्हें परंपरा का ज्ञान नहीं रहता। कुंती, गांधारी, द्रौपदी को देखें, ये स्त्री विमर्श का केंद्र रही हैं।”
उनका मानना है कि हमारी न्यायिक पद्धति को सोचने की जरूरत है क्योंकि कई बार संकीर्ण विचारधारा का प्रभाव भी निर्णयों पर पड़ता है। जब तक नैतिकता हावी रहेगी, तब तक घरों में लैंगिक हिंसा होती रहेगी। नैतिकता की आड़ में कोई बाहर कुछ बोलेगा नहीं और शोषण जारी रहेगा और विद्रूप रूप में हिंसा समाज का हिस्सा बनी रहेगी।
कुछ लोगों को डर रहता है कि यदि स्त्री पुरुष के बराबर हो जाएगी तो परिवार टूट जाएगा। लेकिन ऐसे लोग समझ नहीं पाते कि संवेदनशील रहे तो सब ठीक रहेगा। आखिर उसे अपनी बात कहने का अधिकार क्यों नहीं होना चाहिए। यह उसका भी मूलभूत अधिकार है। प्रोफेसर पाठक कहते हैं, “आप स्त्री का अधिकार नहीं मानेंगे, तो आगे चलकर बच्चों के भी नहीं मानेंगे। उनके साथ जो दुष्कर्म होता है, उसमें तो उनकी इच्छा शामिल नहीं होती। लेकिन फिर भी पास्को एक्ट बना ही है न। जब इच्छा को मानना ही नहीं है, तो इसे भी हटा देना चाहिए।”
जबकि डॉ. कपूर मानती हैं कि तलाक की दर कम करना है, तो वैवाहिक बलात्कार को कानूनी जामा पहनाना ही होगा। बड़ी संख्या में यह विवाह टूटने की वजह है। महिलाओं के प्रति शारीरिक, मानसिक, मौखिक हिंसा में तभी कमी आएगी, जब सेक्सुअल इंस्टिंक्ट को सामान्य समझा जाने लगेगा। मर्यादा के साथ कुछ भी कहना गलत नहीं है। इसकी शुरुआत घर से ही होगी।
मुद्दा यह नहीं है कि पति कमरे में पत्नी के साथ क्या करते हैं, या कोई महिला चरम सुख पर क्या बोलती है। मुख्य मुद्दा यह है कि भारतीय समाज में पुरुष अब भी असहमति को नहीं समझते। इस असहमति को सामाजिक स्वीकार्यता दिलाने का ही एक रास्ता कानून को मानवीय बनाना और स्त्री की स्वतंत्रता तथा स्वायत्तता की रक्षा करना है।
कब क्या हुआ
1860: भारतीय दंड संहिता (आइपीसी) लागू होने के दौरान वैवाहिक बलात्कार को अपवाद की श्रेणी में डाला गया था, शर्त थी कि महिला की उम्र दस साल से ऊपर हो।
1940: आइपीसी में संशोधन कर उम्र सीमा 10 साल से बढ़ाकर 15 साल की गई। 2017 में सुप्रीम कोर्ट ने इसे 18 वर्ष कर दिया।
11 अप्रैल 2016: आइपीसी में वैवाहिक बलात्कार से जुड़े अपवाद को चुनौती देते हुए हाइकोर्ट में याचिका डाली गई। अदालत ने केंद्र सरकार को नोटिस जारी किया और उसका रुख पूछा।
29 अगस्त 2017: केंद्र सरकार ने हाइकोर्ट को बताया कि वैवाहिक बलात्कार को अपराध की श्रेणी में नहीं लाया जा सकता क्योंकि इससे विवाह संस्था अस्थिर हो जाएगी।
18 जनवरी 2018: दिल्ली सरकार ने हाइकोर्ट से कहा कि वैवाहिक दुष्कर्म पहले से ही कानून के तहत क्रूर अपराध है और कोई महिला अपने पति के साथ संबंध स्थापित करने से इनकार करने की हकदार है।
7 जनवरी 2022: हाइकोर्ट ने वैवाहिक दुष्कर्म को अपराध घोषित करने के अनुरोध वाली याचिकाओं पर हर दिन सुनवाई शुरू की।
13 जनवरी: केंद्र ने हाइकोर्ट से कहा कि वह मामले से अवगत है और वैवाहिक दुष्कर्म को अपराध घोषित करने के मुद्दे पर विचार कर रहा है। राज्य सरकारों और केंद्र शासित प्रदेशों सहित विभिन्न हितधारकों से सुझाव मांगे गए हैं।
17 जनवरी: हाइकोर्ट ने केंद्र से अपनी स्थिति स्पष्ट करने को कहा।
24 जनवरी: केंद्र ने अदालत से अपनी स्थिति रखने के लिए समय की मांग की।
17 मईः विवाह में बलात्कार आपराधिक श्रेणी में हो या नहीं, इसकी सुनवाई सुप्रीम कोर्ट पहुंची।