बॉलीवुड प्रकाश वर्ष से भी तेज घूमता है। अलबत्ता, नायकों के लिए कुछ धीमा, नायिकाओं के लिए कुछ तेज। दर्शक नायकों को भले ही मोहलत दे दें लेकिन नायिकाओं के लिए दिल की जगह तीन-चार फिल्मों बाद ही छोटी पड़ने लगती है। फिल्में बदल रही हैं, सो इनकी नायिकाएं भी। नई लड़कियां कभी प्रतिभा से लबरेज कदम रखती हैं, तो कभी बहुत ग्लैमरस अंदाज में। बस अंतर इतना है कि बॉलीवुड नाम से प्रसिद्ध यह उद्योग नायक से ज्यादा नायिकाएं बदलने को बेताब रहता है। नायक बरसों बरस वही चले आए हैं, लेकिन नायिकाओं की ‘शेल्फ लाइफ’ कम रहती है। बॉलीवुड हर दौर में नई नायिकाएं गढ़ता है। गढ़न की इस प्रक्रिया में कुछ नायिकाएं इतिहास बन जाती हैं, कुछ इतिहास रच देती हैं।

अनीत पड्डा की पहली ही फिल्म सैयारा ने सारे रिकॉर्ड तोड़ दिए
हालांकि ‘पेज-3’ इतिहास में सिमटी नायिकाओं को बेरोजगार होने के एहसास-ए-कमतरी से बचा ले जाता है, क्योंकि चमक आखिर चमक होती है, जो सबकी आंखों को सुहाती है। जैसे आजकल वामिका गब्बी, अनीत पड्डा और सारा अर्जुन की है। यूं तो वामिका गब्बी ने कई फिल्मों में काम किया लेकिन राजकुमार राव के साथ आई भूल चूक माफ (2025) ने उन्हें जाना पहचाना चेहरा बना दिया। अनीत पड्डा की पहली फिल्म सैयारा (2025) की सफलता किसी से छुपी हुई नहीं है। इसी साल हिंदी फिल्मों के दर्शकों ने एक और लड़की में स्टार मटेरियल देखा और उसे हाथोहाथ लिया। रणवीर सिंह को धुरंधर (2025) के लिए जितनी तारीफ मिल रही है, सारा अर्जुन को उससे कम नहीं मिल रही। सितारा बनी ये लड़कियां कभी एक फिल्म में चमक बिखेर कर रह जाती हैं, तो कभी लंबी पारी खेलती हैं। अगर कभी शादी, परिवार की जिम्मेदारी निभाने की खातिर फिल्मों से दूर भी होती हैं, तो पूरा दम लगा कर वापसी करती हैं। रकुल प्रीत सिंह, कियारा आडवाणी अपनी दूसरी पारी के लिए कमर कस कर तैयार हैं।
दरअसल बॉलीवुड हमेशा से ही नायक और नायिकाओं के बीच फर्क करने के लिए (कु) ख्यात रहा है। लेकिन बॉलीवुड से प्रेम करने वाले, उसे सराहने वाले और फिल्मी दुनिया की सबसे बड़ी पूंजी कहे जाने वाले दर्शक भी कुछ कम नहीं हैं। कोई परदे पर कुछ भी कर ले लेकिन उनका फैसला जैसे पत्थर पर लकीर होता है। नायक उनके ‘स्थायी’ होते हैं, लेकिन नायिकाएं जल्दी मुरझा जाती हैं। पहले होता था कि ताजगी खोई नायिकाएं या तो साइड रोल करती थीं या मां-भाभी बन जाती थीं। लेकिन ओटीटी ने करीना कपूर को जाने जान (2023) में उतना ही स्पेस दिया, जितना उन्हें बड़े परदे पर मिलता।

गैर फिल्मी परिवार की नितांशी गोयल ने सबका ध्यान खींचा, लापता लेडीज फिल्म के लिए पुरस्कार भी मिला
दीपिका पादुकोण, आलिया भट्ट परिवार बसा कर, मां बन कर भी मैदान में डटी हैं और नई लड़कियों को होड़ दे रही हैं। लेकिन कल तक इन दोनों की तारीफ करते नहीं अघा रहे बॉलीवुड के दर्शकों को जब अनीत पड्डा, वामिका गब्बी और तृप्ति डिमरी, सारा अर्जुन के रूप में नई आमद मिली, तो पलड़ा नई लड़कियों की ओर झुक गया। दिलकश पड्डा आहन कपूर के साथ सैयारा में आईं, और आते ही लाखों दिलों की धड़कन बन गईं। किसी ने रोते हुए फिल्म देखी, कोई हॉल में बेहोश हो गया, तो कोई परदे पर आई इस नई परी को देखने के लिए ऐसा बेकरार हुआ कि अपनी टूटी टांग की भी परवाह नहीं की।
हिरोइनों पर दिलो जान कुर्बान करने वालों के दिन में 72 धड़कनों में से चार धड़कनें अनीत, वामिका तृप्ति और सारा के नाम हो गईं। यह नायिकाओं की बिलकुल नई पीढ़ी है, जो 70 एमएम के परदे पर अपनी जगह बनाने से पहले ही अपना दर्शक वर्ग तैयार कर लेती हैं। ओटीटी के बढ़ते प्रभाव, खाली थिएटर और नेपोटिज्म की बहस के बीच इन बाहरी और कुछ फिल्मी परिवार की लड़कियों के बीच होड़ लगी है। अनन्या पांडे का नाम लीजिए, नेपोटिज्म विरोधी तुरंत कहेंगे किरण राव ने बिलकुल नई लड़की नितांशी गोयल को लापता लेडिज जैसी अनूठी फिल्म में काम करने का मौका दिया और उन्होंने बेस्ट डेब्यू का फिल्मफेयर जीत लिया। नई पीढ़ी का सबसे दिलचस्प द्वंद्व यही है। पिछले कुछ साल में लगता है जैसे हिरोइनों की बाढ़ आ रही है। हर कुछ वक्त में कोई न कोई लड़की डेब्यू कर रही होती है, चाहे वह फिल्मी परिवार से हो या गैर फिल्मी परिवार से। कुछ अभिनेत्रियां हैं, जो ‘पारिवारिक चमक’ के कारण लाइमलाइट में हैं, इनके बीच कुछ ऐसी भी हैं, जो परफॉर्मेंस के दम पर टिकी हुई हैं और लगातार आगे बढ़ रही हैं। जाहिर-सी बात है, इन सबमें रश्मिका मंदाना और तृप्ति डिमरी अभी दौड़ में सबसे आगे हैं। एनिमल फिल्म ने दोनों को शानदार मौका दिया है। दोनों ही गैर फिल्मी परिवार से हैं और दोनों ही हिंदी सिनेमा की कम समय में चहेती बन गई हैं।
नए दौर में सिर्फ अभिनय ही काफी नहीं है। इस लंबी दौड़ में, सोशल मीडिया फॉलोअर, ब्रांड एंडोर्समेंट और हाइ-प्रोफाइल फैशन शो में शो स्टॉपर बनने का मौका न मिले, तो कम से कम बड़े डिजाइनर के लिए रैंप वॉक शामिल है। इतना सब होने के बाद भी जरूरी नहीं कि कोई बॉलीवुड की गद्दी संभाल ही लेगा। दर्शक इतने निर्दयी हैं कि जिस लड़की की तरह-तरह की ‘रील्स’ वह बिना पलक झपकाए घंटों देख सकता है, वही जब सिनेमा के परदे पर नायिका बन आती है, तो उसे अचानक ‘क्वालिटी’ की याद आने लगती है, वह अचानक अभिनय का पारखी बन जाता है और उसे दमदार अभिनय की दरकार होती है।
बॉलीवुड, जिसकी आत्मा दशकों तक ‘खानत्रयी’ की खनक और ‘कपूर खानदान’ की चमक पर टिकी रही, अचानक उसे याद आया है कि कलाकार में प्रतिभा होना जरूरी है। अब अभिनेत्रियां सिर्फ खूबसूरत चेहरे के बल पर नहीं टिक सकतीं। उन्हें भी दम दिखना होता है, ‘सजावट’ सामान से ज्यादा आगे आना होता है। डिजिटल उपस्थिति से छवि तो गढ़ी जा सकती है लेकिन ठोस जमीन के लिए अभिनय की कसौटी पर कदम रखना ही पड़ता है।
पिछले कुछ साल में नायिका प्रधान फिल्मों ने ऐसी तमाम लड़कियों की राह आसान की, जिसमें सूरत से ज्यादा सीरत को तरजीह दी गई। अब जब भी सिनेमा की नई ‘महारानी’ की बात होगी, तो वह ‘परंपरागत’ तरीके से नहीं, बल्कि संघर्ष, सोशल मीडिया ट्रैफिक और दर्शकों की अस्थायी और तेजी से बदलती पसंद के बावजूद टिके रहने के कौशल पर होगी।
नामों की सूची लंबी है, लेकिन निर्णायक नहीं है। नेपो किड जाह्नवी कपूर और स्थापित हो चुकी दीपिका पादुकोण के बीच, जब तृप्ति डिमरी की बात होती है, तो लगता है जैसे उनके अभिनय का रहस्यमयी मौन सिनेमा को फिर से उसकी आत्मा लौटा रही है। बुलबुल (2020) और कला (2022) के बौद्धिक कलेवर से निकलकर जब वह एनिमल में प्रकट होती हैं, तो कैमरा उन्हें पकड़ नहीं पाता। वे दृश्य से ज्यादा अनुभव बन जाती हैं। अचानक, सोशल मीडिया पर लोग उन्हें खोजने लगते हैं और हर तीसरी रील में उनका चेहरा प्रकट होने लगता है। बच्ची सी दिखने वाली नितांशी गोयल की कहानी बॉलीवुड में लगभग लुप्त होती उस नैतिकता की याद दिलाती है जहां अभिनय से ऊपर रिश्ते और सुंदरता हुआ करती थी। लेकिन नितांशी को मौका मिलना उन लड़कियों के लिए सहारा बनता है, जो आंखों में मायानगरी के सपने को पाल रही हैं। लापता लेडीज (2023) में उनका सहज, लेकिन औसत चेहरा, असाधारण भावनात्मक भावना से भरा लगता है। आइफा में सर्वश्रेष्ठ अभिनेत्री का पुरस्कार जीतने वाली 17 साल की यह लड़की बॉलीवुड को याद दिलाती है कि उम्र महज एक संख्या है और प्रतिभा सबसे अचूक हथियार है।
कृति भी गैर-फिल्मी परिवार से हैं और नायिकाओं के नंबर वन वाली पूरी बहस में चुपचाप अपने काम में लगी दिखती हैं। बरेली की बर्फी, मिमी से लेकर किल बिल के हिंदी रीमेक तक, वे अपनी परिपक्वता को दिखाते हुए ‘हीरोइन’ शब्द को फिर से परिभाषित करने में जुटी हुई हैं। वे न किसी ग्रुप में फंसती हैं न किसी लोकप्रिय ट्रेंड में बहती हैं।
यह पीढ़ी संक्रमणकाल से गुजर रही है। यहां दर्शकों को सुंदरता भी चाहिए और अभिनय भी। पहले अभिनय के लिए नायक ही काफी होता था। अब नायिका से भी उम्मीद की जाती है कि वह दर्शकों को बांधे रखे। एक गाना गा लेने या थोड़ा सा रोमांस कर लेने से दर्शकों को टिकट का पैसा वसूल नहीं लगता। दीपिका पादुकोण, आलिया भट्ट और कंगना रनौत के बाद जो नई खेप सामने आई है, वह कई मायनों में असमंजस में है। यह खेप न पूरी तरह प्रयोगधर्मी है, न सिर्फ ग्लैमर की गुलाम।
आलिया भट्ट ने वाकई इस संतुलन को साधा है। उड़ता पंजाब में उन्होंने बहुत जोखिम लिया। यह भूमिका ऐसी लड़की की थी, जो नशे के सौदागरों के हाथ पड़ जाती है। पहले खेतिहर मजदूर के रूप में उन्होंने अपने ग्लैमरस रूप को ऐसा किया कि यकीन करना मुश्किल था कि यह वही आलिया है। फिल्म भले ही न चली, पर इससे आलिया का सिक्का चल निकला। उनके काम ने यह भी बताया कि विरासत का दरवाजा हुनर की चाभी से ही खुलता है। जाह्नवी कपूर इसी मॉडल की कोशिश करती दिखती हैं। श्रीदेवी की बेटी होने का सौभाग्य उनके पक्ष में रहा है, लेकिन उन्हें अभी भी खुद को साबित करते रहना पड़ रहा है। अभी भी वे संभावनाओं से भरी कलाकार की सूची में हैं। उन्हें सेट पर मेहनत करना पसंद है और यह दिन ब दिन निखर रहे उनके अभिनय में दिखता भी है। गुंजन सक्सेना में उन्होंने वह झलक दिखाई, पर अब भी वे एक निर्णायक भूमिका की तलाश में हैं। उनके अभिनय पर नजर रखने वाले समीक्षकों का मानना है कि उनका कमजोर पक्ष संवाद अदायगी है, जिस पर उन्हें काम करना ही चाहिए। उनके मुकाबले उम्र में छोटी ग्लैमर से भरपूर अनन्या पांडे ने अपना रास्ता खोज लिया है। इस चमकती तस्वीर में अनन्या पांडे अपने अभिनय से ज्यादा इस बात के लिए चर्चा में रहती हैं कि आइपीएल सीजन में बीच-बीच में आने वाले विज्ञापनों में सबसे ज्यादा वह दिखाई दीं। उन्हें अभिनेत्री बनने से ज्यादा ब्रॉन्ड एंडोर्समेंट हस्ती बनने की हसरत ज्यादा थी। इन सबके बीच आलिया ने हाइवे, उड़ता पंजाब, राजी से लेकर गंगूबाई और ब्रह्मास्त्र तक के सफर में बार-बार खुद को साबित किया। जाह्नवी इस द्वंद्व से पूरी तरह उभर नहीं पाई हैं कि वे सिर्फ ग्लैमर चाहती हैं, नो मेकअप लुक में आलिया की तरह दमदार अभिनय चाहती हैं या ऐसी फिल्म करना चाहती हैं, जिसे राष्ट्रीय पुरस्कार मिले। कभी-कभी लगता है कि स्क्रीन की चमक उन्हें पॉलिश करती है, लेकिन फिर भी कुछ अधूरा छूट जाता है। वे फिल्में तो कर रही हैं, लेकिन अभिनय के पारखी अभी भी उन्हें उस खांचे में नहीं डाल रहे, जहां पहुंचना किसी कलाकार का सपना होता है।
वे जानती हैं कि अभिनय में आगे आने के लिए जो चाहिए वह उनके पास नहीं है, सो वे सोशल मीडिया का चमकता सितारा बन कर खुश हैं। अभिनय की कसौटी पर फीकी पड़ जाने से बेहतर है, वे किसी न किसी रूप में दिखती रहें। वामिका गब्बी की उपस्थिति इस पूरी पीढ़ी में उम्मीद जगाती हैं। उनके अभिनय में एक ठहराव, एक संवेदना है। यह ठहराव आज की अभिनेत्रियों में दुर्लभ हो चला है। इन सबमें रश्मिका मंदाना का मामला थोड़ा अलग है। दक्षिण भारतीय फिल्मों की ऐसी स्टार हैं, जिनकी पॉपुलैरिटी उत्तर भारत में भी बढ़ रही है। एनिमल फिल्म में अल्फा मेल की खूब बात हुई। इस बहाने मर्दानकी की बहस के बीच भी रश्मिका को कोई अनदेखा नहीं कर सका। रणवीर कपूर के सामने वे कहीं कमजोर दिखाई नहीं दीं। एनिमल के मुकाबले छावा बिलकुल अलग जॉनर की फिल्म थी। रश्मिका विकी कौशल के साथ बराबर से खड़ी रहीं।
अभिनय की जमीन पर नई पौध में शनाया कपूर, खुशी कपूर, न्यासा देवगन, राशा थडानी अब ‘किसकी बेटी हैं’ तक ही सीमित नहीं है। द आर्चीज में सुहाना और खुशी ने कोशिश की, लेकिन कैमरे के सामने उनकी झिझक साफ देखी जा सकती है।
अब बॉलीवुड में ‘महारानी’ बनने का खेल सिर्फ अभिनय नहीं, बल्कि पर्सनल ब्रांडिंग, इंस्टाग्राम एल्गोरिद्म और उस पब्लिक के इमोशनल इंटेलिजेंस को भुनाने का खेल भी है, जो कभी रेखा की आंखों में बसता था, कभी श्रीदेवी के चुलबुलेपन में दिखता था, कभी माधुरी की मुस्कान पर फिदा था, काजोल की अदाओं में ठहर जाता था। शायद यही सिनेमा का सच्चा रूप है, जहां दर्शक ही राजा है। और उसकी महारानी वही होगी, जो उसके सबसे गहरे जख्म को सबसे सुंदर मुस्कान में बदल सके।