पटना से लगभग 90 किलोमीटर दूर मुजफ्फरपुर के 50 वर्षीय नरेश सहनी कहते हैं, ‘‘36 प्रतिशत आबादी के वोट जिसे मिलेंगे, सरकार उसकी ही बनेगी।’’ वे जिस ‘36 प्रतिशत’ का जिक्र कर रहे हैं, वह बिहार के अति पिछड़ा वर्ग यानी ईबीसी है। ये सौ से ज्यादा अलग-अलग छोटी जातियों का समूह है। इनमें लगभग 10 प्रतिशत मुस्लिम अति पिछड़ा वर्ग समुदायों से हैं। सहनी खुद भी इसी अति पिछड़ा वर्ग से आते हैं। सहनी या मल्लाह समुदाय में लगभग 20 उप-जातियां शामिल हैं। पंचपनिया नाम से चर्चित अति पिछड़ी जातियों को लुभाने के लिए राजनैतिक प्रयास हो रहे हैं।
प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी ने भी पूर्व मुख्यमंत्री कर्पूरी ठाकुर के गांव से चुनाव प्रचार का आगाज किया। पिछले साल केंद्र सरकार ने उन्हें भारत रत्न दिया था। नाई जाति के ठाकुर राज्य के प्रमुख ईबीसी नेता थे। जनता दल (यू) ने सितंबर में अति पिछड़ा संवाद रथ यात्रा शुरू की तो राष्ट्रीय जनता दल ने धानुक समुदाय के सदस्य मंगनी लाल मंडल को बिहार का अध्यक्ष बनाया। कांग्रेस ने भी पहली बार अति पिछड़ा वर्ग प्रकोष्ठ की स्थापना की, जिसका नेतृत्व कुम्हार जाति के शशि भूषण पंडित कर रहे हैं। कांग्रेस नेता राहुल गांधी ने भी पिछड़ी जातियों के सदस्यों से मुलाकात की। महागठबंधन में मुकेश सहनी की विकासशील इंसान पार्टी और प्रभावशाली तांती जाति के नेता आइपी गुप्ता भी ईबीसी जातियों को गोलबंद करने की कोशिश कर रहे हैं।
ईबीसी में 100 से अधिक जातियां शामिल हैं, जिनमें ज्यादातर बढ़ई, कुम्हार, लोहार, नाई और धोबी हैं। बाकी छोटी जातियों में तेली 2.81 प्रतिशत, मल्लाह 2.6 प्रतिशत, कनु 2.21 प्रतिशत और धनुक 2.13 प्रतिशत हैं। इस तरह यह 120 उपजातियां का अहम समूह है। पिछड़ी जातियों की दो सूचियां अनुलग्नक 1 और अनुलग्नक 2 बनाई गई थीं। पहली सूची में ‘अत्यंत पिछड़े’ को शामिल किया गया था, लेकिन आंकड़ों की कमी के कारण कार्रवाई में देरी हुई। 1971 में मुख्यमंत्री कर्पूरी ठाकुर ने अति पिछड़ी जातियों की पहचान के लिए 20 सदस्यीय आयोग का गठन किया, लेकिन उसे भंग करना पड़ा। उसी वर्ष बाद में, तत्कालीन मुख्यमंत्री भोला पासवान शास्त्री ने स्वतंत्रता सेनानी तथा पूर्व मंत्री मुंगेरीलाल के नेतृत्व में मुंगेरीलाल आयोग की स्थापना की।
पिछड़े वर्गों की पिछली सूची में 94 जातियां शामिल थीं, जो मुंगेरीलाल आयोग की समीक्षा में बढ़कर 128 हो गईं। आयोग ने 1976 की रिपोर्ट में उनमें 94 को सामाजिक और आर्थिक रूप से अत्यंत पिछड़ा बताया। 1978 में जब कर्पूरी ठाकुर फिर से मुख्यमंत्री बने, तो उन्होंने मुंगेरीलाल आयोग की रिपोर्ट को स्वीकार किया और आरक्षण लागू किया। सरकारी नौकरियों में ओबीसी के लिए 12 प्रतिशत, अति पिछड़े के लिए आठ प्रतिशत, और महिलाओं तथा आर्थिक रूप से पिछड़े सवर्णों के लिए तीन-तीन प्रतिशत आरक्षण का प्रावधान किया गया।
लालू प्रसाद यादव 1990 में सत्ता में आए, तो उन्होंने ईबीसी आरक्षण 14 प्रतिशत कर दिया, बाद में 2000 में झारखंड के अलग होने के बाद बढ़ाकर 18 प्रतिशत कर दिया गया। लालू प्रसाद यादव को 1995 के विधानसभा चुनावों से पहले गोलबंदी का आभास हो गया था। अपने प्रचार के दौरान, वे अक्सर कहते थे कि मतपेटी से एक जिन्न निकलेगा और ऐसा ही हुआ। अति पिछड़ी जातियों, दलितों, मुसलमानों और यादवों ने उन्हें भारी मतों से वोट दिया। उन्होंने 167 सीटें जीतीं और दूसरी बार मुख्यमंत्री बने।
अति पिछड़ों को सम्मान मिला, तो वे राजनैतिक भागीदारी की भी मांग करने लगे। जैसे-जैसे लालू का कार्यकाल आगे बढ़ा, यादव खुद को प्रभुत्वशाली समझने लगे और दलितों तथा अति पिछड़ों पर उनके अत्याचार की खबरें आने लगीं। लालू के राज में सरकार में अति पिछड़ों का प्रतिनिधित्व नगण्य था। 32 प्रतिशत आबादी होने के बावजूद, वे विधायकों में केवल पांच प्रतिशत ही थे।
2005 तक, अति पिछड़ी जातियां, गैर-यादव पिछड़ी जातियां और पसमांदा मुसलमान नीतीश कुमार के पीछे आ गए, जिनके भाजपा के साथ गठबंधन ने उच्च जातियों और बनिया वोटों को भी सुरक्षित कर लिया। नीतीश ने अपने पहले मंत्रिमंडल में चार अति पिछड़ी जातियों के मंत्री बनाए और पंचायत में 20 प्रतिशत पद अति पिछड़ी जातियों के लिए आरक्षित कर दिए। 2006 के पंचायत चुनावों में 50,000 से ज्यादा अति पिछड़ी जाति के प्रतिनिधि जीते।
कभी लालू के ‘जिन्न’ रहे अति पिछड़े अब नीतीश के सबसे भरोसेमंद वोट बैंक बन गए। हिंदू अति पिछड़ी जातियां आबादी का एक-चौथाई हिस्सा हैं, इसलिए अब वे आनुपातिक प्रतिनिधित्व की मांग कर रही हैं। जदयू ने 19 अति पिछड़ी जाति के उम्मीदवार, भाजपा ने 10 और राजद ने 21 उम्मीदवार उतारे हैं, जिनमें पांच मुस्लिम अति पिछड़ी जातियां भी शामिल हैं।