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जनादेश 2022/मणिपुरः बहुमत से सब दूर

सत्तारूढ़ गठबंधन की तीनों पार्टियां अलग चुनाव लड़ रहीं, कांग्रेस वामदलों के साथ
बीरेन सिंह के नेतृत्व में बीते पांच वर्षों में हिंसा की कोई बड़ी घटना नहीं हुई

साठ विधानसभा सीटों वाले मणिपुर में मतदान में एक महीने से भी कम समय बचा है, लेकिन अभी तक किसी एक पार्टी को स्पष्ट बहुमत मिलता नहीं दिख रहा है। 2017 में भी यही स्थिति थी। तब नतीजों के बाद भाजपा, एनपीपी और एनपीएफ ने मिलकर सरकार बनाई सरकार बनाई थी। लेकिन इस सत्तारूढ़ गठबंधन में चुनावी गठबंधन नहीं हो सका है। भाजपा सभी 60 सीटों पर चुनाव लड़ रही है तो मेघालय के मुख्यमंत्री कोनराड संगमा की पार्टी एनपीपी करीब 40 सीटों पर लड़ेगी। पर्वतीय इलाकों में दखल रखने वाली एनपीएफ 20 से 25 सीटों पर लड़ सकती है। प्रदेश की 60 सीटों में से 40 सीटें हिंदू माइती बहुल इलाके में और 20 पर्वतीय इलाकों में हैं, जहां जनजातीय आबादी ज्यादा है। 2012 में कांग्रेस (42 सीटें) को छोड़कर किसी भी पार्टी को कभी 40 से ज्यादा सीटें नहीं मिली हैं।

27 फरवरी और 3 मार्च को होने वाले मतदान के लिए भाजपा ने अपने सभी उम्मीदवार घोषित कर दिए हैं। लेकिन उसके बाद पार्टी में जबरदस्त विद्रोह शुरू हो गया है। टिकट न मिलने से नाराज कार्यकर्ताओं ने मुख्यमंत्री एन. बीरेन सिंह और प्रदेश पार्टी अध्यक्ष शारदा देवी के पुतले जलाए। राजधानी इंफाल समेत कई जगह पार्टी कार्यालय में तोड़फोड़ की। उनकी नाराजगी इस बात से है कि कांग्रेस से आने वालों को तो टिकट मिला, लेकिन पार्टी के लिए वर्षों से काम करने वालों को छोड़ दिया गया।

टिकट पाने वालों में ज्यादातर मुख्यमंत्री के वफादार बताए जाते हैं। पिछले साल भाजपा में आने वाले मणिपुर कांग्रेस के पूर्व प्रमुख गोविंददास कोंथुजम टिकट पाने में सफल रहे हैं। कांग्रेस से दलबदल कर आने वाले सातों विधायकों को पार्टी ने टिकट दिया है, लेकिन कांग्रेस से इस्तीफा देकर भाजपा में शामिल होने वाले तीन विधायकों का पत्ता कट गया।

भाजपा ने अनेक नेताओं से हलफनामा लिया था कि टिकट नहीं मिला तो वे दूसरी पार्टी में नहीं जाएंगे। इसके बावजूद कई नाराज नेताओं ने पार्टी की प्राथमिक सदस्यता तक छोड़ दी है। पूर्व मंत्री निमाइचंद लुवांग भी उनमें हैं। खांगबोक मंडल में तो स्थानीय नेताओं और कार्यकर्ताओं ने सामूहिक इस्तीफा दिया है। एनपीपी उपाध्यक्ष और उप मुख्यमंत्री वाइ. जयकुमार ने कहा है कि जिन्हें भाजपा से टिकट नहीं मिला, उन्हें वे टिकट देने की कोशिश करेंगे।

हर सीट के लिए भाजपा में चार-पांच उम्मीदवार थे, जिससे यह स्थिति बनी है। एक समय कांग्रेस दफ्तर के बाहर टिकटार्थियों की लंबी कतार होती थी। 2017 से पहले प्रदेश में लगातार 15 वर्षों तक कांग्रेस का शासन था और इबोबी सिंह मुख्यमंत्री थे। 2017 में कांग्रेस 28 सीटों के साथ सबसे बड़ी पार्टी बनी थी, लेकिन राज्यपाल ने 21 सीटें पाने वाली भाजपा को सरकार बनाने का न्योता दिया था।

कांग्रेस की मौजूदा स्थिति का अंदाजा इस बात से लगाया जा सकता है कि 22 जनवरी को उसने बिना किसी तामझाम के 40 उम्मीदवारों की पहली सूची जारी की, जिसमें 11 मौजूदा विधायक हैं। पार्टी ने वामदलों और जनता दल सेकुलर के साथ गठबंधन की घोषणा की है। इस गठबंधन से भी भाजपा की मुश्किलें बढ़ सकती हैं।

भाजपा एक तरफ दो-तिहाई बहुमत का दावा कर रही है तो दूसरी तरफ बीरेन सिंह ने कहा है कि जरूरत हुई तो चुनाव बाद गठबंधन किया जा सकता है। लेकिन जयकुमार का कहना है कि भाजपा और कांग्रेस को 15-15 से ज्यादा सीटें नहीं मिलेंगी। उनका दावा है कि 20 से 25 सीटें जीतकर एनपीपी सबसे बड़ी पार्टी बनेगी। वे पहले कह चुके हैं कि 20 सीटें जीतने के बाद “हमारे पास विकल्प होगा कि हम भाजपा के साथ जाएं या कांग्रेस के।”

मणिपुरवासियों के लिए आर्म्ड फोर्सेज स्पेशल पावर एक्ट (अफ्सपा) बड़ा मुद्दा है। एनपीपी ने अपने घोषणापत्र में इसे हटाने के लिए ‘काम’ करने की बात कही है। बीरेन सिंह ने कहा है कि सभी प्रदेशवासी चाहते हैं कि अफ्सपा खत्म हो, मैं भी चाहता हूं। लेकिन देश की सुरक्षा सर्वोपरि है। पड़ोसी देश म्यांमार में राजनीतिक अस्थिरता के कारण हमें खतरा है। अफ्सपा के खिलाफ प्रदेश में अनेक आंदोलन हुए हैं। एक्टिविस्ट इरोम शर्मिला ने 2000 से 2016 तक दुनिया का सबसे लंबा अनशन भी रखा था। इस कानून के तहत सुरक्षाकर्मियों को कहीं भी तलाशी लेने और बिना वारंट किसी को भी गिरफ्तार करने का अधिकार है। पिछले साल नगालैंड में सुरक्षाकर्मियों की गोली से 14 नागरिकों के मारे जाने के बाद लोग एक बार फिर इसके खिलाफ खड़े हुए हैं। कांग्रेस का मुख्य चेहरा 77 साल के इबोबी सिंह भी अफ्सपा का मुद्दा उठा रहे हैं, हालांकि यह विवादास्पद कानून उनके 15 वर्षों के शासनकाल के दौरान भी था।

यह प्रदेश लंबे समय तक उग्रवादी हिंसा का शिकार रहा है। लेकिन बीते पांच वर्षों में हिंसा की कोई बड़ी घटना नहीं हुई है। इसका श्रेय निश्चित रूप से बीरेन सिंह को जाता है, जिन्होंने पर्वतीय और मैदानी इलाकों के बीच दूरी कम करने की कोशिश की। हिंसा की एक बड़ी वजह यह भी है कि प्रदेश में उद्योग-धंधा न के बराबर है। युवाओं के पास रोजगार के ज्यादा विकल्प नहीं हैं। अब 10 मार्च को पता चलेगा कि लोगों ने कौन सा विकल्प चुना है।

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