मुजफ्फरपुर में सैकड़ों बच्चे मर गए और मौत की सही वजह किसी को पता न चली। लीची से लेकर गर्मी तक पर आरोप लग गए। विश्व ज्ञानी, विश्व गुरु होकर हम दुनिया भर में ज्ञान ठेलने की तैयार में हैं, अगली पीढ़ी अस्पताल में दम तोड़ रही है, हमको पता ही नहीं कि ऐसा क्यों हो रहा है।
‘खुद मियां फजीहत, दीगरे नसीहत’ जैसी कहावतें मुजफ्फरपुर से पहले भी रही हैं और बच्चों की मौत का मुजफ्फरपुर पहले भी रहा है। इंडिया के पास अंतरिक्ष टेक्नोलॉजी अमेरिका के स्तर की है और कई अस्पताल युगांडा के स्तर के हैं। बहुआयामी मुल्क है, एक सिरे पर अमेरिका है, दूसरे सिरे पर युगांडा है। कोई अमेरिका में विकासशील हो लिया, कोई युगांडा में फंसकर मर लिया। युगांडा वाले के बहुविध मरने के चांस ज्यादा हैं। लीची मार गई, गर्मी मार गई। अरे लीची और गर्मी मारती होती, तो उस शहर में अमीरों के बच्चे भी हैं।
दरअसल, सच यह है कि न लीची मारती न गर्मी मारती, न सर्दी मारती, न अकाल मारता, न बाढ़ मारती। मारती है तो गरीबी। बिहार सरकार द्वारा कराए गए अध्ययन में साफ हुआ है कि चमकी बुखार से मरने वाले बच्चों के परिवारों में से तीन-चौथाई गरीबी रेखा के नीचे हैं। इन बच्चों के परिवारों में से 82 फीसदी परिवारों में आय का साधन मजदूरी है। मजदूर को सब मार जाते हैं, मालिक समेत।
अभी खबरें आ रही हैं, लू से मरे। लू से न मरते, लू से निपटने की तैयारियां न हों, तो मर जाते हैं। सऊदी अरब में गरमी और लू-लपट भारत के मुकाबले बहुत ज्यादा हैं। वहां से न आतीं इस तरह से मरने की खबरें।
कई इलाकों से खबरें आ रही हैं, बारिश से इतने लोग मरे। बारिश न्यूजीलैंड के कुछ इलाकों में भी बहुत होती है। वहां से खबरें न आतीं कि इतने मरे बारिश से। अभी कुछ महीनों बाद सर्दियां आएंगी तो शीत लहर से मरने की खबरें शुरू हो जाएंगी। स्विटजरलैंड में सर्दी भारत के मुकाबले बहुत ज्यादा पड़ती है, वहां से न आती खबरें सर्दी से मरने की।
मौत की वजहें कुछ और हैं, बताई कुछ और जाती हैं। गरीब के बच्चे अनाम मौत मर जाते हैं। गरीब के बच्चे के पूरे नाम पते वाली लगातार खबर तब ही आती है, जब वह किसी बोरवेल में गिरकर मरा हो। बोरवेल में गिरकर बच्चा मरे, तो थ्रिलिंग खबर बनती है। सारे टीवी चैनल कूद लेते हैं। कूद ही नहीं लेते, लगातार कूदते ही रहते हैं। गरीब का बच्चा अगर बोरवेल में न मरे, तो फिर मामला बोरिंग हो जाता है, टीवी चैनलों के लिए भी। कितना दिखाएं, गरीब फोटोजेनिक भी तो नहीं होते ना। मुजफ्फरपुर में जितनी वीरता से टीआरपी जुट जाए, उतनी टीवी वीरता दिखाई जा चुकी है। टीवी को थ्रिल दिखाना है। असली खबर यह है कि ऊपर से रकम चलती है, गरीब बच्चों को पोषण देने के लिए, बच्चों के पेट में नहीं पहुंचती। क्यों नहीं पहुंचती, यह खबर थ्रिलिंग नहीं है। पहले ही बताया जा चुका है कि गरीब फोटोजेनिक नहीं होते। कितना दिखाया जाए गरीबों को। गरीब का बच्चा नहीं गरीब के बच्चे का बोरवेल में गिरना फोटोजेनिक होता है।
जो फोटोजेनिक थे, जो फोटोजेनिक हैं, वो बार बार दिखाए जा रहे हैं। मुजफ्फरपुर अस्पताल में आए नेता, एक्टर के साथ सेल्फी खिंचाते बंदे दिखाई पड़ गए टीवी रिपोर्टों में। बहुत संभव है कि तमाम पार्टियों के गायक, नर्तक मुजफ्फरपुर के उस अस्पताल के बाहर कोई कीर्तन कार्यक्रम शुरू कर दें, उसमें सेलिब्रिटी और सेलिब्रिटा आने लगें तब मामला सेट हो जाएगा। तब मुजफ्फरपुर अस्पताल लगातार चर्चा में रहेगा। फिर भी खबरों के पीछे की असली खबर नहीं दिखेगी।
बच्चों की मौत के जिम्मेदार निकम्मे, भ्रष्ट अफसर मंत्रियों के कारनामे को नहीं दिखाया जाएगा। ऊपर से नीचे तक रिश्वत खाते हुए भ्रष्ट मंत्री, भ्रष्ट अफसर टीवी रिपोर्टों में नहीं दिखते। खैर, कोई दिख जाता है, कोई नहीं दिखता। जिंदगी में क्लास होती है, किसी की एसी फर्स्ट क्लास, किसी की जनरल कंपार्टमेंट क्लास। जनरल कंपार्टमेंट सिर्फ जनरल कंपार्टमेंट होता है, उसमें सिर्फ पब्लिक होती है। एसी फर्स्ट क्लास में नाम होते हैं, रसूख होते हैं, क्लास होती है।
दिल्ली में रहने वाले जानते हैं, मौत के बाद भी वर्गभेद खत्म नहीं होता। निगम बोध शमशान घाट पर आम आदमी तो अनाम सी चिताओं में फुंक लेते हैं। वीआइपी टाइप मृतकों के लिए ऊंचा प्लेटफार्म बना है। वहां जयघोष के साथ निपटते हैं वीआईपी। इन नारों के साथ, ‘जब तक सूरज चांद रहेगा, फलांजी तेरा नाम रहेगा।’ इस किस्म के नारे बहुत डराते हैं। वहां फुंकने वाले एक नेता पर कई किस्म के इलजाम थे। ऐसे में जब यह नारा लगता है तो नाम भी रहता है और इल्जाम भी रहता है। ऐसों की मौत के बाद ऊपर वाले को थैंक यू बोलने का मन करता है, चलो अच्छा है, सिर्फ नाम और इल्जाम रह गए खुद तो उठ लिए।