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आवरण कथा/पर्यावरणः जलवायु नीतियों का भविष्य

जलवायु परिवर्तन पर ट्रम्प के पिछले रिकॉर्ड से संदेह का माहौल
बाकू में जलवायु समिट

राष्ट्रपति के चुनाव में डोनाल्ड ट्रम्प की जीत रिपब्लिकन पार्टी के समर्थकों के लिए जश्न का कारण हो सकती है लेकिन पर्यावरण पर काम करने वाले लोग इससे चिंतित हैं। ट्रम्प जलवायु परिवर्तन को संदेह की निगाह से देखते हैं। उनके अलावा किसी और राष्ट्रपति ने हाल के वर्षों में कार्बन कटौती के वैश्विक प्रयासों को इतना धक्का नहीं पहुंचाया है। अपने पिछले कार्यकाल में ट्रम्प ने दावोस के वर्ल्ड इकनॉमिक फोरम में पर्यावरणवादियों को ‘प्रलय के पैगम्बर’ कह कर आलोचना की थी। उन्होंने ग्लोबल वार्मिंग को ‘मिथकीय’, ‘अफवाह’ और ‘घोटाला’ करार दिया है। 

अपनी जीत के बाद समर्थकों को संबोधित करते हुए उन्होंने कहा कि जीवाश्म ईंधनों से दूर हटने के समझौते पर कॉप 28 में दस्तखत करने वाला- अमेरिका अब तेल उत्पादन को बढ़ाएगा। तेल और गैस उद्योग ने इस बयान का स्वागत किया है। उन्होंने कहा था, ‘‘हमारे पास जितना तेल है उतना दुनिया में किसी के पास नहीं, सउदी अरब से भी ज्यादा, रूस से भी ज्यादा है।’’   

ट्रम्प के पिछले कार्यकाल के दौरान कई विवादास्पद कदमों में एक पेरिस संधि से अमेरिका को पीछे खींचना था। बाइडन ने दोबारा अमेरिका को पेरिस समझौते का हिस्सा बना दिया था। पेरिस जलवायु समझौता 2015 में किया गया था। इसे ग्लोबल वार्मिंग के खिलाफ एक बड़ा कदम माना जाता है। इसका लक्ष्य तापमान में इजाफे को डेढ़ डिग्री सेंटिग्रेड तक सीमित रखना है। पेरिस में यह भी तय किया गया था कि अमीर देश सालाना एक अरब डॉलर का योगदान गरीब विकासशील देशों को देंगे ताकि यह लक्ष्य हासिल करने में उनकी मदद की जा सके। जो बाइडन ने पेरिस समझौते पर वापसी के अलावा कई जलवायु हितैषी उपाय अपनाए थे।

अमेरिका फिलहाल चीन के बाद ग्रीनहाउस गैसों का सबसे बड़ा उत्सर्जक है। यदि ट्रम्प के बयानों को गंभीरता से लें, तो मान सकते हैं कि वैश्विक जलवायु लक्ष्य अमेरिका की पहुंच से और दूर ही होते जाएंगे। बाइडन ने 2022 में इनफ्लेशन रिडक्शन कानून पर दस्तखत किए थे। यह अमेरिका का जलवायु में सबसे बड़ा निवेश था। इसका काम 2030 तक 2005 के स्तरों के मुकाबले उत्सर्जनों को आधे पर ले आना है। ट्रम्प ने अपने प्रचार के दौरान इस कानून को बहुत महंगा बताते हुए इसकी आलोचना की थी और इस पर जो भी राशि अभी खर्च नहीं हुई है उसे रद्द करने का वादा किया था।

दिलचस्प यह है कि स्वच्छ ऊर्जा के घोषित निवेशों में तीन चौथाई से ज्यादा रिपब्लिकन पार्टी द्वारा शासित प्रांतों के लिए थे। इसीलिए कुछ रिपब्लिकन नेताओं ने भी आइआरए को समर्थन दे दिया था, खासकर उन प्रांतों में जहां सौर ऊर्जा कारखानों, पवन चक्कियों और अन्य परियोजनाओं से रोजगार पैदा हुए थे। इसलिए आइआरए को खत्म करने में इन लाभ पाए राज्यों के प्रतिनिधियों के समर्थन की भी ट्रम्प को जरूरत पड़ेगी।

कानूनी फर्म मैक्डर्माट विल ऐंड एमेरी में पार्टनर कार्ल फ्लेमिंग ने रायटर्स को बताया है, ‘‘रोजगारों और आर्थिक लाभों का फायदा रिब्लिकन प्रांतों को इतना ज्यादा मिला है कि यह सोचना मुश्किल है  कि कोई सरकार ऐसे ही कह देगी कि हमें ये पसंद नहीं।’’

दिल्ली की संस्था सेंटर फॉर साइंस ऐंड एनवायरनमेन्ट की महानिदेशक सुनीता नारायण कहती हैं, ‘‘आइआरए इसलिए अहम है क्योंकि ग्रीनहाउस गैसों के उत्सर्जन के मामले में ऐतिहासिक रूप से से अमेरिका अव्वल रहा है। आइआरए दुनिया को यह संदेश था कि अमेरिका जलवायु परिवर्तन विरोधी कार्रवाइयों में अगुवाई कर सकता है।’’

ये सवाल इसलिए भी अहम हैं क्योंकि 11 से 22 नवंबर के बीच दुनिया भर के नेता अजरबैजान के बाकू में कॉप 29 की बैठक में मिल रहे हैं। इस शिखर सम्मेलन में एक नए जलवायु वित्त समझौते पर सहमति की बात होनी है जिसके तहत अगले साल से विकसित देश जलवायु परिवर्तन से लड़ने और खुद को अनुकूलित करने के लिए विकासशील देशों का वित्तपोषण करेंगे। अमेरिका का इस मसले पर रुख महत्वपूर्ण होगा।

फिलहाल, अटकलें लगाई जा रही हैं कि डोनाल्ड ट्रम्प कहीं अमेरिका को संयुक्त राष्ट्र के जलवायु परिवर्तन पर फ्रेमवर्क कनवेंशन (यूएनएफसीसी) से भी अलग न कर दें, जिसका 198 देश अनुमोदन कर चुके हैं। ट्रम्प यदि इससे अलग हो गए तो अगले किसी भी राष्ट्रपति के लिए यूएनएफसीसी का दोबारा हिस्सा बनना कठिन हो जाएगा क्योंकि उसके लिए सीनेट की मंजूरी जरूरी होगी।

जलवायु परिवर्तन झेल रहे प्रमुख देशों में एक ऑस्ट्रेलिया है, जहां के प्रधानमंत्री एंथनी अल्बानीज की सरकार ने अमेरिका के साथ अपने रिश्तों में जलवायु और स्वच्छ ऊर्जा को तीसरा स्तंभ बनाने की परिकल्पना की है। ट्रम्प अगर यूएन की संधि से अलग हुए तो ऑस्ट्रेलिया को यूरोप और एशिया में नए सहयोगी ढूंढने होंगे।

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