यह भारत का एक बेहद शर्मनाक रहस्य है। भारत का ही नहीं, बल्कि समूचे विश्व का। जिस 'औपचारिक' अर्थव्यवस्था की हम अक्सर चर्चा करते हैं, जहां लोग परिश्रम करते हैं और उनके परिश्रम के फल को आंकड़ों और ग्राफ में दर्शाया जाता है, उसका हमेशा एक स्याह पक्ष होता है। इन आंकड़ों में एक बड़े वर्ग का कोई प्रतिनिधित्व ही नहीं होता। आपने वह क्रांतिकारी नारा सुना होगा कि ‘औरतें आधा आसमान हैं।’ इसका वास्तव में अर्थ यह है कि महिलाएं आधी धरती की जुताई, रोपाई और फसल की कटाई करती हैं। वे पुरुषों से अधिक मेहनत भले ही न करें, उनसे कम तो बिल्कुल नहीं करती हैं। लेकिन उनके इस श्रम की किसी ने गणना ही नहीं की। आखिर तीन कृषि कानूनों के खिलाफ दिल्ली की सीमा पर डटे किसानों के बीच महिलाओं की भागीदारी पहली बार उन्हें चर्चा में ले आई है। आंदोलन गंभीर मुकाम पर पहुंच गया है और 21 जनवरी को किसान यूनियनों ने सरकार की यह पेशकश ठुकरा दी है कि कानूनों को डेढ़ साल के लिए मुल्तवी करके समाधान के लिए समिति बना ली जाए। लेकिन सवाल है कि महिला किसान क्यों अब तक क्यों चर्चा से दूर रही है?
आपने एक तस्वीर अनेक बार देखी होगी, जिसमें कतार में खड़ी महिलाएं धान की रोपाई करती हैं। कीचड़ में धंसी और झुकी, ये महिलाएं पूरे दिन काम करती हैं और हमारे लिए अनाज उपजाती हैं। ऐसे अनेक उदाहरण मिल जाएंगे। उत्तर भारत के मैदानी इलाकों में सिर पर घड़ा रख पानी लाने मीलों दूर जाती महिलाएं, फसल की कटाई के बाद उसे थ्रेसर मशीन में डालती और ओसाती महिलाएं।
लोक संगीत और कला में ये बातें बहुत नजर आती हैं। हिंदी सिनेमा की एक प्रतिनिधि तस्वीर है जिसमें नायिका कंधे पर हल लिए हुए है और उसके माथे से पसीना बह रहा है। लेकिन न तो मदर इंडिया की वह तस्वीर और न ही यमुना से पानी लेकर लौट रही गोपियों को छेड़ते कृष्ण से जुड़े पारंपरिक गीत हमारे सोचने के तौर-तरीके को बदलते हैं। जवान की तरह किसान का मतलब भी हम पुरुष को ही समझते हैं। आम रूपकों में, पारिश्रमिक और जीडीपी की गणना में, कानूनी रूप से जमीन का मालिकाना हक तय करने में हम धरती की बेटियों को भूल जाते हैं। उनके परिश्रम का फल चखने के बाद हम उन्हें ‘अदृश्य’ कर देते हैं।
वास्तव में देखा जाए तो यह इतना बड़ा अपराध है जिसकी कोई सीमा नहीं, और हम सब उसमें शामिल हैं। हम सब उसके लिए दोषी हैं। स्त्रियों के प्रति यह भेद हमारे भीतर इतना रच-बस गया है कि सुप्रीम कोर्ट भी उससे अछूता न रह सका। देश में चल रहे किसान आंदोलन पर सुनवाई करते हुए 11 जनवरी को प्रधान न्यायाधीश एस.ए. बोबडे ने पूछ लिया, “धरने की जगह पर महिलाओं और वृद्धों को क्यों रखा गया है?” महिलाओं को धरना स्थल पर ‘रखने’ की बात से ऐसा प्रतीत होता है कि महिलाएं, महिलाएं नहीं बल्कि मशीनी मानव हैं, और उनकी अपनी कोई इच्छा नहीं है। बुजुर्गों के साथ उन्हें जोड़ कर देखना इस मानसिकता को दर्शाता है कि वे कमजोर और आश्रित हैं। नजरिया यही है कि ‘महिलाओं को जाने दिया जाए और पुरुष इस मामले से निपटेंगे।’ यह मानसिकता उस समय की है जब महिलाएं गुलाम हुआ करती थीं, उनका न कोई विचार होता था और न ही कोई अधिकार।
पितृसत्ता में डूबे भारतीय समाज और कानून में इस अधिकार की कोई जगह नहीं है। महिलाओं के अधिकार तो जैसे सिर्फ भावनात्मक हैं, परिवार के भले के लिए जिसकी उन्हें तिलांजलि देनी पड़ती है, यही उनका धर्म है। स्त्रियां काम करें, लेकिन बदले में कुछ न मांगें, क्योंकि वे तो सिर्फ पुरुषों के लिए है। नजरें घुमाइए, आसपास ऐसे अनेक उदाहरण मिल जाएंगे।
हरमिंदर कौर को ही लीजिए। वे पंजाब की किसान हैं। वही पंजाब जहां के किसान अपने हक की लड़ाई लड़ रहे हैं। दो साल पहले जब हरमिंदर के पति की मौत हो गई तब उनका जीवन जैसे थम गया। तब वे सिर्फ 28 साल की थीं। उनके दो बच्चे थे। पति का अंतिम संस्कार होने से पहले ही ससुराल वालों ने उन्हें बेघर कर दिया। मजबूरन हरमिंदर को बठिंडा में अपने पैतृक घर आना पड़ा। 2005 में शादी के बाद हरमिंदर ने पति के साथ खेत में काम किया था, लेकिन आज उनके नाम जमीन नहीं है। वे 14 साल से मेहनत करके बच्चों को पाल रही हैं लेकिन आज तक अपना अधिकार हासिल नहीं कर सकीं।
वे कहती हैं, “फसल की रोपाई से लेकर कटाई तक, मैं घंटों खेत में काम करती थी। खेत का ज्यादातर काम मैं ही करती थी।” अभी हरमिंदर एक गैर-सरकारी संगठन की मदद से अपना हिस्सा हासिल करने की लड़ाई लड़ रही हैं, वे पिता के घर भी काफी मेहनत करती हैं। गेहूं और दालों की खेती करती हैं, लेकिन यहां भी जमीन पर उनका कोई अधिकार नहीं है। वे जानती हैं कि जिस जमीन पर वे खेती कर रही हैं उस पर उनका कोई हक नहीं है। वे कहती हैं, “मैं पित्ता की जमीन में हिस्सा नहीं मांगना चाहती क्योंकि डर है कि ऐसा करने पर हमारे रिश्ते बिगड़ जाएंगे। मुझे नहीं मालूम कि आगे क्या करना चाहिए।”
हरमिंदर भारत की उन लाखों महिला किसानों में एक हैं जो औपचारिक अर्थव्यवस्था के हाशिए पर खड़ी हैं। उनके पास जमीन के किसी भी टुकड़े का मालिकाना हक नहीं है। पंजाब के भारतीय किसान यूनियन (क्रांतिकारी) की प्रदेश कमेटी की सदस्य सुखविंदर कौर भी इस बात को अच्छी तरह समझती हैं। वे कई दशक से महिलाओं को जमीन का मालिकाना हक दिलाने की लड़ाई लड़ रही हैं। उनके लिए चुनौती सिर्फ सामाजिक और राजनीतिक ही नहीं, व्यक्तिगत भी है। सुखविंदर के नाम भी कोई जमीन नहीं है। लेकिन 53 साल की इस महिला का जीवन उस 10 एकड़ जमीन के इर्द-गिर्द घूमता है जो उसके पति के नाम है। वे कहती हैं, “महिला किसानों के लिए संपत्ति का अधिकार सबसे प्रमुख मुद्दा है। बेटी को जमीन का अधिकार पिता की मौत के बाद और पत्नी को यह अधिकार पति के मौत के बाद ही मिलता है। व्यावहारिक रूप से देखें तो हमारा कोई अधिकार है ही नहीं।” यह बात भारत की ज्यादातर महिला किसानों के मामले में सच है। उन्हें किसान की परिभाषा में शामिल ही नहीं किया जाता है। महिलाओं को अधिकार दिलाने के विषय में कानूनी तौर पर छोटे-छोटे कदम जरूर उठाए जा रहे हैं, लेकिन व्यावहारिक तौर पर देखें तो सिर्फ जमीन के मालिकों को किसान समझा जाता है।
2017-18 का पीरियाडिक लेबर फोर्स सर्वे बताता है कि 73.2 फीसदी ग्रामीण महिलाएं खेती करती हैं, लेकिन सिर्फ 12.8 फीसदी महिलाओं के नाम जमीन है। जिनके नाम जमीन है, उनमें भी ज्यादातर विधवा हैं जिनके पति की मौत के बाद उन्हें मालिकाना हक मिला है। गुजरात के मालधारी रूरल एक्शन ग्रुप (एमएआरएजी) की अनु वर्मा कहती हैं, “किसान की पहचान को रेखांकित करना और उसमें जमीन को शामिल करना निहायत जरूरी है। हर बात के केंद्र में जमीन ही तो है। हमारा अनुभव है कि संपत्ति का अधिकार हासिल करने के लिए यह सिर्फ चंद विधवाओं की नहीं, बल्कि सभी महिलाओं का संघर्ष है।” पिछली सदी के किसान आंदोलनों के केंद्र में एक नारा था, ‘जमीन उसकी जो उस पर खेती करे।’ लेकिन सभी अध्ययन यही बताते हैं कि असमानता बरकरार है, महिलाओं के लिए तो खासकर। परिवार की जमीन पर खेती करने का काम तो महिलाओं ने बहुत पहले शुरू कर दिया था। बिहार में ‘सेवा’ के एक अध्ययन के अनुसार पुरुष तो प्रवासी मजदूर बनकर बाहर चले जाते हैं। यह खेती के ‘स्त्रीकरण’ का एक बेहतरीन उदाहरण है। इसके बावजूद खेत उन महिलाओं के नाम नहीं हैं, इसलिए वे महिलाएं ‘वास्तविक’ किसान भी नहीं हैं।
अलायंस फॉर सस्टेनेबल ऐंड हॉलिस्टिक एग्रीकल्चर (आशा) से जुड़ी कविता कुरुगंती बताती हैं कि कैसे महिला किसानों के योगदान को मिटा दिया जाता है। वे कहती हैं, “जमीन के मालिकाना हक में बड़ी असमानता है। किसान की परिभाषा जमीन के मालिकाना हक से जुड़ी है, इसलिए महिलाएं किसान की परिभाषा के दायरे से ही बाहर हो जाती हैं।” उनका मानना है कि इस स्त्री-पुरुष भेद को अलग करके यदि आंकड़े निकाले जाएं तो वास्तविक तस्वीर सामने आएगी। हालांकि उसमें भी जटिलताएं होंगी, जैसे विधवा के अलावा तलाकशुदा या पति द्वारा छोड़ दी गई महिलाएं।
पश्चिमी उत्तर प्रदेश के गांव नवादा की सुनीता चौधरी को ही लीजिए। किस्मत ने उनके साथ बड़ा ही अजीबोगरीब खेल खेला। तीन साल पहले उनका पति लापता हो गया। उस साल फसल बेचकर जो तीन लाख रुपए मिले थे, वह उन्हें भी ले गया था। 45 साल की सुनीता अब कर्ज लौटाने के लिए संघर्ष कर रही हैं। रोजाना उनका दिन तड़के चार बजे शुरू होता है। शाम आठ बजे तक वे काम करती रहती हैं। वे बताती हैं, “पति ने किसी को जमीन गिरवी रख दी। मैं फसल से जो भी कमाती हूं, उसमें से कुछ पैसे साहूकार को देने होते हैं।” और हां, जमीन पर उनका कोई हक नहीं है। सुनीता कानूनी रूप से वे किसान नहीं हैं।
उत्तर प्रदेश के हापुड़ जिले की ऊषा को लेते हैं। 49 साल की ऊषा 30 साल से किसानी कर रही हैं। वे कहती हैं कि खेतों में पुरुषों से ज्यादा महिलाएं कठिन परिश्रम करती हैं। खासकर उन कामों में जहां ज्यादा मेहनत की जरूरत पड़ती है। ऊषा खेत की जुताई, रोपाई, कटाई, ओसाई सब काम कर लेती हैं। लेकिन इस बहु-भूमिका के बावजूद महिलाओं के प्रति भेदभाव स्पष्ट है। खास कर यह गलत धारणा कि खेतों में भारी बोझ उठाने का काम पुरुष करते हैं। वे बताती हैं, “गन्ने का एक गट्ठर 80 से 90 किलो का होता है। महिलाएं ही उसे काटती हैं फिर भी हमें बराबर नहीं समझा जाता। सरकार को जमीन के मालिकाना हक में महिलाओं के नाम को संयुक्त रूप से शामिल करना जरूरी बना देना चाहिए।”
नवादा गांव की ही शशि भी जानती हैं कि किसान शब्द का मतलब खेत में काम करने वाला पुरुष ही होता है। वे कहती हैं, “आम धारणा तो यही है कि किसान पुरुष होता है, लेकिन हकीकत तो यह है कि खेतों में काम महिलाएं करती हैं। किसान क्रेडिट कार्ड, सब्सिडी सब कुछ पुरुषों को मिलता है। जब तक हमारे योगदान को स्वीकार नहीं किया जाता, टेक्नोलॉजी और सरकारी स्कीमों तक हमारी पहुंच नहीं होती, तब तक महिलाएं इसी तरह ‘अदृश्य’ बनी रहेंगी।”
यह जागरूकता धीरे-धीरे बढ़ रही है। 49 वर्षीय उषा उत्तर प्रदेश के हापुड़ के एक गांव में तीस साल से खेती कर रही हैं। उनका कहना है कि खासकर मेहनत वाले खेती का काम बुआई, जुताई, कटाई मर्दों से औरतें ज्यादा लगन से करती हैं। लेकिन खेती के हर काम मेहनत से करने के बावजूद यह गलत धारणा बनी हुई है कि भारी काम मर्द ही करते हैं। उषा कहती हैं, “हमें मर्दों के बराबर नहीं माना जाता। सरकार जमीन की मिल्कियत में औरतों को साझीदार बनाना अनिवार्य बनाए।” नवादा गांव से ही शशि को मालूम है कि ‘किसान’ शब्द से ‘खेत में काम करने वाले मर्दों’ की ही छवि उभरती है। वे कहती हैं, “किसान का मतलब अमूमन मर्दों से ही लिया जाता है। लेकिन विडंबना यह है कि ज्यादा काम औरतें ही करती हैं। किसान क्रेडिट कार्ड और तमाम सब्सिडी मर्दों को ही मिलती है। जब तक हमें सरकारी योजनाओं और तकनीक तक पहुंच हासिल नहीं होगी, औरतें अनदेखी ही बनी रहेंगी।”
अभी भी राजनैतिक चेतना जैसी बात कुछ नई-सी है। 2011 में एक्शनएड की सुलेखा सिंह ने उत्तर प्रदेश की महिला किसानों के बीच ऑक्सफैम के एक अध्ययन का काम हाथ में लिया तो वे यह देखकर दंग रह गईं कि औरतें भेदभाव को किस कदर स्वीकार कर चुकी हैं। सुलेखा सिंह कहती हैं, “कोई औरत अपने को किसान कहने को तैयार नहीं थी। उन्होंने बताया कि बेशक 70 फीसदी काम वे ही करती हैं लेकिन मालिक तो मर्द ही हैं। पुरुष सत्ता का जमीन की मिल्कियत से जुड़ाव गहरे पैठा हुआ है।” वे यह भी बताती हैं कि अब खासकर किसानी की तकनीकी और दूसरे पहलुओं की थोड़ी ट्रेनिंग के बाद एक बदलाव देखने को मिल रहा है। वे कहती हैं, “अब महिलाएं सवाल करने लगी हैं। वे जानती हैं कि कौन-सी फसल की बुबाई करनी है। हमने उन्हें अच्छी ट्रेनिंग दी, जिससे उनकी ताकत बढ़ी है। लेकिन असली बदलाव तो तब होगा जब सरकार औरतों को किसान के रूप में स्वीकार करना शुरू करेगी। प्रधानमंत्री किसान सम्मान निधि का दायरा भूमिहीन किसानों तक बढ़ाकर उसे महिला किसानों के खाते में डाला जाए।”
यकीनन केंद्र की 2007 में राष्ट्रीय किसान नीति से ज्यादा व्यापक और समावेशी परिभाषा सामने आई। इस नीति दस्तावेज में ‘किसान’ की परिभाषा “ऐसे शख्स की है, जो फसल उगाने और दूसरी प्रमुख कृषि उपज की गतिविधि में आजीविका और/या आर्थिक उपार्जन के लिए जुड़ा है और इसमें सभी काश्तकार, खेती-किसान करने वाले, कृषि मजदूर, बंटाईदार, पशुपालक और मुर्गी पालन करने वाले, मछुआरे, मधुमक्खी पालक, माली, गैर-कॉरपोरेट बागवानी और बागवानी मजदूर शामिल हैं। उसके साथ कृषि से जुड़े सेरीकल्चर, वर्मीकल्चर और कृषि वानिकी के पेशे के लोग भी शामिल हैं।” लेकिन बकौल महिला किसान, इन सुंदर उपाधियों के बावजूद जमीन पर कुछ नहीं बदला है।
योजना आयोग के पूर्व सदस्य, कृषि विशेषज्ञ प्रोफेसर अभिजित सेन कहते हैं, “कृषि और ग्रामीण अर्थव्यवस्था में औरतों का योगदान काफी अधिक है। हालांकि एक तबका कृषि क्षेत्र में औरतों की भूमिका को सीधे-सीधे नकार देता है।” यह नकार मायूसी पैदा करता है। इसका भी कोई उचित आकलन नहीं हो पाया है कि औरत किसान की किस दायरे में अधिक योगदान है। यह क्षेत्र, फसल और सामाजिक-आर्थिक हैसियत के हिसाब से बदलती भी जाती है। वैसे, कम से कम यह योगदान शर्तिया तौर पर एक-तिहाई या कुछ मामलों में तकरीबन दो-तिहाई तक है। ‘सामान्य’ स्थितियों में, जहां स्त्री-पुरुष की भूमिकाएं तय हैं, औरतें खेती का काम 33 फीसदी से लेकर 50 फीसदी तक करती हैं। फिर इसमें रसोई और बच्चों-बुजुर्गों की सेवा-सुश्रुषा को भी जोड़ दीजिए। बकौल सेन, इसका मतलब है कि महिलाएं हर रोज 10-12 घंटे काम करती हैं जबकि पुरुष करीब 8-9 घंटे।
हमारे देश में करीब 90 फीसदी किसान छोटे या मध्यम दर्जे की जोत वाले हैं। लिहाजा, उन्हें जरूरत पूरी करने के खातिर अतिरिक्त आमदनी के लिए दूसरों के खेतों या संबंधित पेशों में अलग से काम करना पड़ता है। जब काम करवाना हो तो महिलाओं की गिनती करने में कोई समस्या नहीं है। कृषि अर्थशास्त्री पी.एस.एम. राव कहते हैं, “वे अपने खेतों और दूसरे के खेतों में भी काम करती हैं और किसानी से जुड़ी दूसरी गतिविधियों और गैर-कृषि कार्यों में काम करती हैं।” समस्या मेहनताना देने के वक्त खड़ी होती है। महिलाओं को पुरुषों के मुकाबले कम मेहनताना दिया जाता है। राव का मानना है कि महिलाओं की मेहनत का नकार सोचा-समझा है। वे कहते हैं, “अगर आप महिलाओं के घर, खेत और दूसरे हलकों के काम पर गौर करें तो महिलाओं की हिस्सेदारी पुरुषों से ज्यादा नहीं तो बराबर तो बैठेगी ही।”
किसान विधवा
यह अपने आप में अनोखी कहानी है। भारत के कृषि संकट का एक अदृश्य चेहरा उन किसान विधवाओं का है जिनके पति वर्षों से आत्महत्या कर रहे हैं। भले ही ये निराशा की कहानियां हों लेकिन इनके बारे में अच्छी तरह से लोग जानते हैं। सभी ने कम से कम इन कहानियों के बारे में सुना है। लेकिन कोई भी इन कहानियों के बारे में बात नहीं करता है। या यू कहें कि उनके बारे में कोई सोचता नहीं है, कैसे इन विधवाओं के जीवन को अंधकार ने निगल लिया है। सामाजिक कार्यकर्ताओं के अनुसार पीड़ा की बात यह है कि इन विधवा महिलाओं में से बहुत कम ऐसी हैं, जो अपने पतियों की जमीन को अपने नाम पर करने में सफल हुई हैं।
अनंतपुर जिले के तलपुला गांव की रहने वाली ई.राजेश्वरी वैसे तो केवल 28 वर्ष की हैं, लेकिन इतनी-सी उम्र में ही उन्होंने जीवन के हर थपेड़ों को सह लिया है। उनकी 2003 में मात्र 16 साल की उम्र में शादी हुई थी। वे अपने ससुर के स्वामित्व वाली चार एकड़ जमीन पर खेती करने की वजह से सुर्खियों में आई थीं। लेकिन दक्षिण के गंभीर कृषि संकट ने उन्हें बहुत जल्द ही जकड़ लिया। उनके पति ने 4 लाख रुपये का कर्ज लिया था, जिसे वे साहूकारों को चुका नहीं पाए। इस कारण उन्होंने आत्महत्या कर ली। पति की मौत के बाद न तो राजेश्वरी को जमीन का मालिकाना हक मिला और न ही कोई सरकारी सहायता नसीब हुई। वे अब अपने परिवार के चार सदस्यों का भरण-पोषण करने के लिए दिहाड़ी मजदूर के रूप में काम करती हैं। उनके परिवार में उनके दो बच्चे भी शामिल हैं। वे केवल इतना ही कहती हैं कि “पहले मैं अपने खेत में काम करती थी। अब मैं जिंदा रहने के लिए दूसरों के खेतों पर काम करती हूं।”
राष्ट्रीय अपराध रिकॉर्ड ब्यूरो के अनुसार अकेले 2019 में कुल 10,281 किसानों ने आत्महत्या की थी। इसी कड़ी में महिला किसान मंच द्वारा किए गए एक अध्ययन से पता चलता है कि 2012-2018 की अवधि में पतियों की आत्महत्या के बाद, 40 प्रतिशत महिलाओं को अपने खेत का मालिकाना हक नहीं मिला। उनका संघर्ष यही खत्म नहीं होता है, बल्कि साहूकारों से मिलने वाला उत्पीड़न, सामाजिक कलंक उनके इस दुख को और बढ़ा देता है।
ऐसे ही एक विधवा एन, अदम्मा हैं, जो खेत में मजदूर के रूप में काम करती हैं। वे कहती हैं कि उनकी जमीन खेती के लिए उपयुक्त नहीं है। इसके बावजूद साहूकार इसे हड़पने की कोशिश कर रहा है। वह ऐसा इसलिए कर रहे हैं क्योंकि मैं अपने पति द्वारा लिए गए कर्ज को नहीं चुका पा रही हूं। मेरे बेटे ने स्कूल जाना बंद कर दिया है। वे कहती हैं कि महिलाओं ने चुनौतियों को पार करना सीख लिया है।
लेकिन किसान महिलाओं का दूसरा पहलू भी है। किसान एनजीओ के एसोसिएशन रायतु स्वराज्य वेदिका के साथ काम करने वाली भानुजा कहती हैं, निराशा की स्थिति में महिला किसानों ने भी आत्महत्याएं की हैं। हालांकि इसका कोई सटीक आंकड़ा नहीं है। वे कहती हैं कि सामान्य तौर पर महिलाओं द्वारा की गई आत्महत्याओं को किसानों की आत्महत्या नहीं मानकर, घरेलू हिंसा का मामला ठहरा दिया जाता है। इसी से पता चलता है कि महिलाओं को किसान नहीं माना जाता है।
भानुजा कहती हैं कि इन महिलाओं को विधवा होने पर मिलने वाले मुआवजे के लिए भी लंबी प्रक्रिया का सामना करना पड़ता है क्योंकि उनसे कई तरह के दस्तावेज मांगे जाते हैं, जिसे पूरा करना उनके लिए आसान नहीं है। जाहिर है महिलाओं के लिए भूमि स्वामित्व कानून केवल कागजों पर ही दिखता है।
देश में विरासत के लिए तय निर्धारित नियम हैं। हिंदू उत्तराधिकार अधिनियम कहता है कि भूमि को मृतक की विधवा, माता और उसके बच्चों के बीच विभाजित किया जाएगा। पर्सनल लॉ के तहत मुस्लिम महिलाओं को संपत्ति में एक-तिहाई का हिस्सा मिलता है (पुरुष दो-तिहाई के हकदार हैं)। हालांकि, कुछ राज्यों में इस अधिकार के तहत कृषि भूमि शामिल नहीं है। इसी तरह ईसाई विधवाएं संपत्ति की एक तिहाई के हकदार हैं और शेष हिस्सा बच्चों में बांट दिया जाता है।
लेकिन आपने सही अनुमान लगाया। अधिकतर पितृसत्ता और सामाजिक मान्यताएं कानूनी अधिकारों पर भारी पड़ जाती हैं। भानुजा कहती हैं, "जमीन पति के नाम पर नहीं है और अभी भी ससुर के नाम पर है, तो उस जमीन का मालिकाना हक ससुर पर निर्भर करता है। इस अधिकार की हकीकत को जमीनी स्तर पर आसानी से समझा जा सकता है। महाराष्ट्र में, लोक संघर्ष मोर्चा की प्रतिभा शिंदे कहती हैं, भूमि अधिकारों का ज्यादातर उल्लंघन होता है। शराबी पति अपनी पत्नी को बताए बिना जमीन बेच देता। वन अधिकार अधिनियम के तहत, पति और पत्नी दोनों का जमीन पर समान अधिकार है। शिंदे कहती हैं कि हम कृषि भूमि में भी यही अधिकार चाहते हैं।
महिला किसान अधिकार मंच की सीमा कुलकर्णी कहती हैं कि कृषि संकट, क्षेत्र में महिलाओं की भूमिका को और अधिक स्पष्ट कर रहा है। हम देख रहे हैं कि कृषि संकट के कारण महिलाओं द्वारा बहुत अधिक अवैतनिक कार्य किए जा रहे हैं। किसान आत्महत्याओं ने भी महिलाओं पर बहुत तनाव बढ़ाया है। वे संसाधनों पर किसी भी तरह के दावे के बिना काम करने के लिए मजबूर हैं। कुलकर्णी कहती हैं कि इसमें भी दलित महिलाएं सबसे अधिक हाशिए पर रहती हैं। दलित महिला किसानों का भी कोई आंकड़ा उपलब्ध नहीं है। और आदिवासी महिला किसान का तो सरकारी योजनाओं से वास्ता ही नहीं पड़ता है, जबकि कृषि संकट की इस बड़ी त्रासदी से वे शायद ही अछूती रहती हैं। जब 2018 में वैष्णवी सामले के पति ने आत्महत्या की थी, तो वे अपने पीछे भारी कर्ज छोड़ कर गए थे, जिसे उनकी पत्नी को चुकाना है। महाराष्ट्र के परभणी जिले में परिवार की 3.5 एकड़ जमीन उनके सास के नाम पर है। वैष्णवी वहां सोयाबीन और कपास की खेती करती है, लेकिन उसकी उपज बेचने के लिए सरकारी योजनाओं या बाजारों तक उनकी कोई पहुंच नहीं है। वे कहती हैं, “मैं मजबूरी में खेतिहर मजदूर के रूप में काम करती हूं, क्योंकि मुझे अपने स्कूल जाने वाले दोनों बच्चों का पालन पोषण करना है।”
कृषि विज्ञानी और पूर्व मंत्री वाई.के.अलघ का कहना है कि कुछ कृषि गतिविधियों में महिलाओं की भागीदारी 70 प्रतिशत तक है। दलितों और आदिवासियों के मामले में ऐसा अधिक है। कई मामलों में, आदिवासी महिलाएं निर्णय लेने की महत्वपूर्ण भूमिका निभाती हैं, खासकर जहां रोजगार की तलाश में पुरुष किसान पलायन कर गए हैं। ये महिलाएं, हमारे आर्थिक विकास में बहुत महत्वपूर्ण भूमिका निभाती हैं। फिर भी हमारा तंत्र, जिसमें न्यायपालिका भी शामिल है, उनके योगदान को नहीं पहचानता है। कानून महिला किसानों के अधिकारों को मान्यता तो देता है लेकिन उसको लागू करने के लिए थोड़े ही प्रयास दिखाई देते है। मेघालय की मातृ आदिवासी समाजों में, महिलाओं की सामान्य समाज में व्याप्त स्थिति से अलग हैं। यह ऐसी महिलाएं हैं जिनके पास संपत्ति के अधिकार हैं। यहां पुरुषों की किसी भी संपत्ति पर कोई भी व्यक्तिगत हिस्सेदारी नहीं है। वहां उनमें काम करने का उत्साह कम देखा जाता है। लेकिन जुआ और शराबखोरी पुरुषों में आम है। यहां तक कि ग्रामीण उत्तराखंड में आलसी आदमियों का हमेशा आराम करते रहना एक आम परंपरा है, लेकिन महिलाओं को कभी भी कहीं भी छुट्टी नहीं मिलती है।
जमीन की जाति
पंजाब की भूमि अधिकार कार्यकर्ता परमजीत कौर कहती हैं कि संतुलन विशेष तौर पर दलितों के खिलाफ है। 2011 की जनगणना के अनुसार, 71 फीसदी दलित खेतिहर मजदूर के रूप में काम करते हैं, जबकि उनके पास मात्र नौ फीसदी खेती की जमीन है। वे कहती हैं, “कोई आश्चर्य नहीं कि दलित महिलाओं का शोषण सबसे अधिक होता है। प्रमुख जाति के भूस्वामी उम्मीद करते हैं कि वे उनके साथ हमबिस्तर हों। यौन उत्पीड़न बड़े पैमाने पर होता है।” कौर याद करती हैं कि कैसे महिलाएं भूमि अधिकार आंदोलन का हिस्सा होने के अपने कड़वे अनुभव बताते हुए रो पड़ती थीं। यही वजह है कि अब दलित महिलाएं संयुक्त रूप से अन्य परिवारों के साथ सामूहिक भूमि की ओर रुख करती हैं। वे कहती हैं, “संगरूर जिले के दो गांवों में हमने महिलाओं के नाम पर खेती का अनुबंध किया है। हमने एक व्यवस्था शुरू की है, जिसमें खेती से जुड़ी सभी तरह की जिम्मेदारियां महिलाएं ही उठाती हैं।” संगरूर की 38 वर्षीय खेतीहर मजदूर राज कौर इस व्यवस्था की लाभार्थी हैं। कौर कहती हैं, “ऊंची जाति के जमींदार हमें परेशान करते थे, जब हम उनके क्षेत्र में काम करते थे। लेकिन अब स्थितियां काफी बदल गई हैं।”
महिलाएं खुद निर्णय ले सकें, अपने संगठन बना सकें, अपने हिस्से पर सही तरीके से दावा जता सकें...भविष्य में वे इसके लिए ही जूझ रही हैं। गुजरात के अहमदाबाद जिले की 54 वर्षीय कंचनबेन रंशी 10 बीघे जमीन की मालिक हैं। पिछले 20 साल से वे समुदाय आधारित संस्था सानंद महिला विकास संगठन से जुड़ी हुई हैं। वे बताती हैं कि बीज तय करने से लेकर विपणन और बिक्री तक वह पूरी प्रक्रिया की प्रभारी हैं। वे पूछती हैं, “महिलाएं अपना ज्यादातर समय खेत में बिताती हैं और पुरुषों की तुलना में कड़ी मेहनत करती हैं। अगर हम किसान नहीं माने गए तो फिर किसे माना जाएगा?” गुजरात के नर्मदा जिले की आदिवासी किसान उषाबेन भी अपने गांववालों के लिए प्रेरणा हैं। वे नवजीवन आदिवासी महिला विकास मंच के साथ संबद्ध हैं और महिला किसानों को भूमि अधिकार दावे में मदद करती हैं। वे अब तक 500 से ज्यादा महिलाओं को लाभ पहुंचा चुकी हैं। वे कहती हैं, “इससे पहले मुझे यह भी नहीं पता था कि महिला के पास अपनी जमीन हो सकती है। मान्यता थी कि लड़की की तो शादी हो जाएगी। फिर लड़की को जमीन क्यों चाहिए जब उसके पति के पास अपनी जमीन है ही? जब मैंने इस विषय पर बोलना शुरू किया, तो तीखी प्रतिक्रियाएं आईं। लेकिन मैं डरी नहीं। जबकि हमारा संविधान कहता है कि लड़कियों और लड़कों को पैतृक संपति में बराबर का अधिकार है।”
2011 की संयुक्त राष्ट्र की रिपोर्ट के अनुसार, स्त्री-पुरुष भेद पाटने से अच्छे परिणाम मिल सकते हैं। केरल में सामूहिक खेती की पहल के तहत, महिलाओं का स्वयं सहायता समूह कुदुंबश्री लगभग 28,500 हेक्टेयर भूमि पर खेती करने में सक्षम हुआ। ब्लॉक पंचायत अध्यक्ष और अखिल भारतीय किसान सभा की उपाध्यक्ष एस.के.पीरजा कहती हैं, “कुदुंबश्री बंजर भूमि का अधिग्रहण करता है। सहकारी बैंकों के माध्यम से ऋण की सुविधा दी जाती है। हम सुनिश्चित करते हैं कि ज्यादा से ज्यादा संख्या में महिलाओं की भागीदारी हो।
2017-18 के आर्थिक सर्वेक्षण के बाद, पुरुषों के गांव से शहर चले जाने के कारण खेती का ‘महिलाकरण’ बहस का बिंदू बन गया है। अर्थशास्त्री और एसईडब्ल्यूए भारत की अध्यक्ष रेना झाबवाला कहती हैं, कृषक, उद्यमी और मजदूर के रूप में कई भूमिकाओं में महिलाओं की महत्वपूर्ण उपस्थिति अब पहचानी जाने लगी है। वे कहती हैं, “छोटे खेतों के मामले में, खासकर जहां पुरुष कारखानों, परिवहन या अन्य क्षेत्र में काम करने का विकल्प चुनते हैं, वहां महिलाएं परिवार की जमीन पर खेती करती हैं।” हालांकि, एनएसएसओ सर्वेक्षण कृषि क्षेत्र में महिलाओं के लिए रोजगार में गिरावट को भी दर्शाता है। यहां बहुत क्षेत्रीय भिन्नता है। कुरुंगती कहती हैं, “कुछ क्षेत्रों में महिला किसान हैं जैसे, उत्तराखंड, हिमाचल आदि में। लेकिन कुल मिलाकर, यहां भी किसानी में गिनती के लायक महिलाकरण देखने को मिलता है।” लेकिन इस पूरे प्रकरण के कारण तस्वीर अभी अस्पष्ट है। इसे समझाते हुए मध्य प्रदेश में काम करने वाली संस्था फाउंडेशन फॉर इकोलॉजिकल सिक्योरिटी के ईशान अग्रवाल कहते हैं जैसे, नकदी फसलों पर बढ़ता ध्यान कृषि के साथ महिलाओं के संबंधों को प्रभावित करता है। महिलाओं को फसल की किस्मों और बीजों पर परंपरागत ज्ञान रखने की प्रवृत्ति होती है, इसलिए बदलती कृषि पद्धतियां उन पर असर डालती हैं। ऐसे में जब कृषि कानून राष्ट्रीय बहस का मुद्दा हैं, उनके अधिकारों और इनकार के बारे में अंततः बात की जा रही है, भारतीय कृषि बेहतर कल की ओर देख रही है। यह एक अंधियारा कोना है, जिसे अंततः प्रकाश में आना ही चाहिए।