आदिवासी साहित्य मुख्य रूप से वाचिक साहित्य रहा है। वाचिक साहित्य की खूबी है कि यह सामूहिक होता है। सारा समुदाय मिलकर इसको सुनता है, गाता है और मनन करता है। वाचिक साहित्य में शैली की कोई सीमा नहीं होती। गद्य या पद्य के शुरू या अंत का तय नियम नहीं होता। ये कब गायन और नाच में बदल जाएगा यह भी किसी को मालूम नहीं होता। वाचिक साहित्य गद्य, पद्य, गान, नाच को अलग-अलग इकाई के रूप में न देखकर सभी को संपूर्ण इकाई के रूप में देखता है।
बच्चे के जन्म से लेकर मनुष्य के मरने तक के हर पड़ाव को जोड़ते हुए गीत उनके पास हैं। जहां तक हो सके इसे विद्यालयों के पाठ्यक्रम में समावेशित किया जाना चाहिए ताकि आने वाली पीढ़ी इससे वंचित न रहे और इसके महत्व को समझे। वाचिक साहित्य निरंतर बदलता रहता है। इस वजह से यह पुराना नहीं होता। यह कहने और सुनने वालों की सम्मिलित धरोहर है जो चिरकाल से चली आ रही है और चलती रहेगी।
भारत ही नहीं पूरे विश्व में भाषाओं और बोलियों का लुप्त हो जाना चिंता का विषय है। इन्हें बचाने के लिए बहुत काम किए जा रहे हैं। इनमें से कुछ आदिवासी वाचिक साहित्य में पर्यावरण और प्रकृति को लेकर गहरी चिंता समाई हुई है। इस चिंता को नई पीढ़ी तक उनकी भाषा में पहुंचाना जरूरी है। उदाहरण के लिए लेपचा जाति की उत्पत्ति की कहानी देश और प्रदेशों की सीमाओं के बंधन से मुक्त है। सिक्किम, दार्जीलिंग, भूटान और पूर्वी नेपाल में स्थित आदिवासियों का मानना है कि वे कंचनजंघा और तेंशिंग की सबसे ऊंची पहाड़ियों से पैदा हुए हैं। उनके 108 मू, यानि वंश, पर्वत की हर एक चोटी से संबंधित हैं और उनके बारे में जानना जरूरी है क्योंकि मरने के बाद हर एक को च्यु (चोटी) दा (झील) लेप (गुफा) में ही जाना है। अर्थात जिस प्रकृति से वे पैदा होते हैं वही उन्हें अपनी गोद में बुलाती है। यह सब उनके वाचिक साहित्य में मौजूद है। वे सुबह उठते ही कंचनजंघा की चोटियों के दर्शन करते हैं और याद करते हैं कि एक दिन उन्हें वहीं जाना है। ये कहीं लिखित में नहीं है, लेकिन वाचिक परंपरा से यह एक पीढ़ी से दूसरी पीढ़ी तक पहुंचता रहा है। यदि उनकी बोली लुप्त हो गई तो नई पीढ़ी इस ज्ञान से वंचित रह जाएगी।
दूसरा उदाहरण ओडिशा का है। कोरापुट में हरित क्रांति से पहले उगाए जाने वाले 1700 किस्म के चावल अब लुप्त हो गए हैं। साथ ही उनसे संबंधित ज्ञान भी। वहां अनेक ऐसे शब्द थे जो चावल के साथ जुड़े थे। जैसे-जैसे चावल की अलग-अलग फसलें नष्ट हुईं, बोली के वे शब्द भी खत्म हो गए। तीसरा उदाहरण भारत के बाहर का है। दक्षिण अमेरिका की माया भाषा में नौ तरह के ऐसे शब्द थे जो नीले रंग के लिए प्रयोग होते थे। आज ये मात्र तीन शब्दों में सिमट कर रह गए हैं। ये नौ प्रकार के नीले रंग उन तितलियों के थे जो अमेजन के जंगलों में पाई जाती थीं। मायाभाषी इन नामों का चिरकाल से प्रयोग कर रहे थे। फिर ऐसा क्या हुआ कि नौ तरह के शब्द तीन में सिमट गए? क्या ये सभी नौ तरह की तितलियां खत्म हो गईं? नहीं। ऐसा इसलिए हुआ कि माया को स्पेनिश भाषा में अनुवाद करने की कोशिश की गई। चूंकि माया भाषा अपने पर्यावरण से जुड़ी हुई थी और उसमे निहित शब्द अपनी खास वन-संपदा के द्योतक थे, उनका अनुवाद लगभग असंभव था। स्पैनिश भाषा में नीले रंग के लिए मात्र तीन शब्द थे, तो ये नौ सिमटकर तीन हो गए। जब भाषा लुप्त होती है, तो साथ में अनुभूति की शक्ति भी जाती रहती है। इसी तरह नीलगिरी की पहाड़ियों में पैदा होने वाले विभिन्न तरह के कुकुरमुत्ते चाय के बागानों में ही नहीं खो गए वरन उनकी भाषा मुलुकुरुम्म्बा में से उन शब्दों और उनसे जुड़े ज्ञान का भी लोप हो गया। साथ ही कुकुरमुत्ते से जुड़ी गाथाएं, लोक साहित्य में उनका जिक्र, कहानियां, कविताएं, गीत सभी उस विशेष पर्यावरणीय पैदावार से दूर हो गए। अब सिर्फ एक नाम रह गया है ‘कूमे’ और कूमे की किस्में हैं कि लुप्त हो गईं। आज के बच्चे न विभिन्न किस्मों के बारे में जानते हैं न उनसे जुड़ी औषधियों और पाक कलाओं के बारे में।
इसका सीधा सा कारण है, मातृभाषा से शिक्षा की दूरी। बच्चों को मातृभाषा में स्कूली शिक्षा मिले तो कई बोलियों और भाषा को लुप्त होने से बचाया जा सकता है। बच्चे अनुभूति को बेहतर शब्द दे सकते हैं। मातृभाषा की छाप अमिट होती है। उसमें व्यक्त हुए भाव, अर्थ, सूचनाएं, बोधगम्यता का हिस्सा बन जाती हैं। अक्षर ज्ञान से ज्यादा वाचिक माध्यम शिक्षा और भाषा दोनों के लिए जरूरी है। इसके लिए स्थानीय क्षेत्रों से ही शिक्षकों को नियुक्त होना चाहिए ताकि उनकी भाषा, सोच, अनुभव बच्चे के परिवेश से जुड़ा हो, बच्चों और शिक्षकों में दूरी न हो, बच्चे खुले वातावरण में परिचित भाषा और उससे संबंधित परिचित संदर्भों में ज्ञान प्राप्त कर सकें।
हर भाषा एक संदर्भ में जन्म लेती और पनपती है। संदर्भ के न रहने से उसके धीरे-धीरे लुप्त होने की आशंका प्रबल हो जाती है। भारत में 2011 में हुई भाषा गणना के मुताबिक देश में 1369 मातृभाषाएं हैं, जिनमें 800 भाषाएं वाचिक रूप में मौजूद हैं। देश में 461 विभिन्न आदिवासी समूह हैं लेकिन वे अपनी पारंपरिक बोलियां भूल चुके हैं। मात्र 170 आदिवासी भाषाएं आज बोली जा रही हैं, जिनमें ज्यादातर बोलियों और भाषाओं के इस्तेमाल करने वाले ज्यादातर उत्तर-पूर्व में बसते हैं।
भाषा की संरचना यूं तो व्याकरण के नियमों से बंधी होती है पर कभी सोचा कि ये नियम आए कहां से? व्याकरण के नियम में हमारी सामाजिक व्यवस्था, हमारी सोच, समुदाय का दृष्टिकोण छुपा होता है। भारतीय भाषाओं में तीन तरह के द्वितीय पुरुष सर्वनाम (तू, तुम, आप) होना अकस्मात नहीं है। यह व्याकरण नियम वर्ण व्यवस्था एवं सामाजिक श्रेणीबद्ध व्यवस्था का परिणाम है।
संथाली को ही लें। यह भाषा, भाषा वैज्ञानिक दृष्टि से भी बहुत आधुनिक है और कंप्यूटर भाषा बनने में पूर्ण रूप से सक्षम है। आधुनिक समाज में इन भाषाओं को शिक्षा, न्यायिक और राजनैतिक पद्धति से दूर रखा गया है। इस वजह से हमारी आदिवासी भाषाएं देश के उत्थान में कोई भूमिका नहीं निभा पा रही हैं।
(लेखिका भारतीय लोक भाषाओं एवं विलुप्त होती भाषाओं और बोलियों के विश्लेषण तथा संयोजन पर काम करती हैं। उनकी अब तक 24 पुस्तकें प्रकाशित हैं।)