विश्व व्यापार संगठन (डब्ल्यूटीओ) में भारत की कृषि सब्सिडी व्यापक जांच के दायरे में आ गई है। संगठन के प्रमुख सदस्य तर्क दे रहे हैं कि भारत सरकार द्वारा दी जा रही सब्सिडी पहले ही कृषि समझौते के तहत निर्धारित सीमा को पार कर गई है। भारत की सब्सिडी पर सवाल एक साल पहले तब उठने लगे जब अमेरिका ने डब्ल्यूटीओ में दस्तावेज पेश करके भारत की कृषि सब्सिडी पर कृषि समझौते के प्रासंगिक प्रावधानों के आधार पर सवाल उठाया। अमेरिका ने भारत की दो प्रमुख फसलों गेहूं और चावल पर दी जा रही सब्सिडी को निशाना बनाया। अमेरिका का कहना था कि इन दोनों फसलों का न्यूनतम समर्थन मूल्य (एमएसपी) कृषि समझौते की सीमा से ज्यादा है। समझौते में इसे बाजार मूल्य समर्थन के तौर पर देखा जाता है।
इसके बाद के महीनों में दो अन्य महत्वपूर्ण फसलों कॉटन (कपास) और गन्ने की सब्सिडी पर सवाल उठाए गए। कॉटन की सब्सिडी पर जहां अमेरिका ने आपत्ति की, वहीं ऑस्ट्रेलिया ने गन्ने की सब्सिडी पर शिकायत की। यही नहीं, इस साल फरवरी में अमेरिका और कनाडा ने चना, तुअर दाल, उड़द दाल, मूंग और मसूर पर दी जा रही सब्सिडी पर आपत्ति जताई। इन चुनौतियों की अहमियत इस तथ्य से समझी जा सकती है कि सवालों के घेरे में आई फसलों का देश में कुल क्षेत्रफल 2016-17 के कुल खेतिहर रकबे का करीब 70 फीसदी था। दूसरे शब्दों में, इससे कृषक वर्ग के बहुत बड़े हिस्से के भविष्य पर संकट दिखाई दे रहा है।
डब्ल्यूटीओ सदस्यों द्वारा दी गई सब्सिडी अंतरराष्ट्रीय मूल्य के आधार पर जोड़ी जाती है। कृषि समझौते को अपनाने के लिए हुईं वार्ताओं में 1986-88 के दौरान प्रत्येक फसल के अंतरराष्ट्रीय मूल्यों का बाहरी संदर्भित मूल्य (ईआरपी) के रूप में निर्धारण हुआ। इसलिए बाजार मूल्य समर्थन यानी सब्सिडी का निर्धारण मौजूदा एमएसपी और 1986-88 में तय ईआरपी के अंतर के आधार पर होता है। इसके पीछे तर्क यह है कि किसी फसल के लिए दी जा रही सब्सिडी की मात्रा मौजूदा रियायती मूल्य और प्रतिस्पर्धी बाजार मूल्य के अंतर के आधार पर तय की जा सकती है। प्रतिस्पर्धी मूल्य अंतरराष्ट्रीय कीमत हो सकती है। प्रत्येक उपज के लिए कुल सब्सिडी वैल्यू की गणना एमएसपी और ईआरपी के बीच अंतर का समर्थन मूल्य पर सरकार द्वारा खरीदी गई कुल उपज मात्रा से गुणा करके निकाली जाती है। भारत जैसे विकासशील देश के मामले में, प्रत्येक फसल के लिए सब्सिडी की कुल राशि कुल उत्पादन मूल्य के मुकाबले दस फीसदी से ज्यादा हो जाती है तो मान लिया जाता है कि सब्सिडी दी गई है। अगर यह सब्सिडी दस फीसदी से कम है तो इसे डब्ल्यूटीओ की नजर में सब्सिडी नहीं माना जाएगा। उर्वरक और बिजली जैसी इनपुट सब्सिडी मिलाकर भी कुल सब्सिडी फसल उत्पादन मूल्य के मुकाबले दस फीसदी से कम रहनी चाहिए।
भारत गन्ने को छोड़कर बाकी सभी फसलों के लिए लागू प्रशासित मूल्य की जानकारी डब्ल्यूटीओ को देता है। गन्ने के मामले में सरकार सिर्फ उचित और लाभकारी मूल्य (एफआरपी) की घोषणा करती है। इस मामले में चीनी मिलों को एफआरपी के आधार पर किसानों को गन्ने का मूल्य देना होता है। दूसरी ओर, अन्य फसलों के मामले में सरकार प्रशासित मूल्य लागू करती है। लेकिन ऑस्ट्रेलिया तर्क देता है कि गन्ना (नियंत्रण) आदेश 1966 के तहत गन्ना उत्पादकों को न्यूनतम मूल्य का आश्वासन मिलता है। चीनी मिलें अपने उत्पादों की बिक्री पर निर्णय करते समय इस तथ्य पर विचार करती हैं। ऑस्ट्रेलिया का यह भी तर्क है कि प्रशासित मूल्य की तरह एफआरपी भी किसानों और चीनी मिलों के व्यवसाय पर असर डालता है और बाजार मूल्य तथा मांग-सप्लाई की बाजार शक्तियों को प्रभावित करता है।
भारत के लिए इसके क्या मायने हैं? सामान्य वेरायटी के चावल के लिए एमएसपी 112 डॉलर प्रति टन से बढ़कर 2017-18 में 360.72 डॉलर प्रति टन हो गया। जबकि बाहरी संदर्भित मूल्य 262.51 डॉलर प्रति टन पर स्थिर रहा। वर्ष 1986-88 और 2017-18 के दौरान सभी प्रमुख फसलों के इन दोनों मूल्यों की तुलना ऊपर दिए गए टेबल से समझी जा सकती है। जहां समझ सकते हैं कृषि समझौते की गाइडलाइन के अनुसार उपजों की सब्सिडी की गणना और सब्सिडी में अंतर किस प्रकार का है।
इन आंकड़ों का इस्तेमाल करके डब्ल्यूटीओ के सदस्य कृषि उपजों पर दी जा रही सब्सिडी की गणना इस प्रकार करते हैं (आगे की टेबल देखें)। ज्यादातर आंकड़े दस फीसदी की सीमा से न सिर्फ बहुत ऊपर हैं, बल्कि इससे प्रतीत होता है कि भारत के लिए कृषि समझौते के प्रावधानों से भटकने का जोखिम है। शिकायतकर्ता देशों की गणना के अनुसार, भारत की सब्सिडी तय सीमा से काफी आगे निकल चुकी है। सब्सिडी के खिलाफ मौजूदा चुनौतियों के संबंध में यह पहलू ज्यादा अहम है कि सब्सिडी की गणना कैसे की जा रही है। हमारे विचार से, सब्सिडी के संबंध में तीन तरह की समस्याएं हैं।
सबसे पहले, भारत के मौजूदा एमएसपी की तुलना दशकों पुराने ईआरपी से किया जाना किसी भी आर्थिक तर्क के विरुद्ध है। इसके बावजूद, भारत की सब्सिडी को चुनौती देने वाले देश कृषि सब्सिडी की गणना के लिए इस स्थिर प्रणाली को ही आधार बनाने पर जोर दे रहे हैं।
भारत और अन्य विकासशील देश लगातार तर्क दे रहे हैं कि ईआरपी के निर्धारण के लिए या तो 1986-88 के आगे किसी हाल के वर्ष को आधार बनाया जाना चाहिए अथवा ईआरपी को महंगाई की दर से जोड़ दिया जाना चाहिए। लेकिन अमेरिका ने इन दोनों के तर्कों को सिरे से खारिज कर दिया है क्योंकि उसने अपनी ज्यादातर कृषि सब्सिडी को कथित ग्रीन बॉक्स के तहत शिफ्ट कर दी है जिसके तहत सब्सिडी असीमित हो सकती है। इसके परिणामस्वरूप, अमेरिका ने कृषि सब्सिडी 1995 की 61 अरब डॉलर से बढ़ाकर 2015 में 139 अरब डॉलर कर दी। यानी दो दशकों में इसमें 128 फीसदी की बढ़ोतरी हो चुकी है। ग्रीन बॉक्स के तहत 2015 में अमेरिका 88 फीसदी सब्सिडी दे रहा था। अमेरिका ने यह सुनिश्चित कर लिया है कि कोई डब्ल्यूटीओ देश उसके खिलाफ सब्सिडी को लेकर कोई शिकायत न कर सके।
सब्सिडी की गणना के फॉर्मूले के बारे में दूसरी समस्या है कि कृषि उपजों की अंतरराष्ट्रीय कीमतें प्रतिस्पर्धी नहीं हो सकती हैं, क्योंकि विकसित देशों खासकर अमेरिका और यूरोपियन यूनियन (ईयू) की ओर से दी जाने वाली सब्सिडी से अंतरराष्ट्रीय मूल्य प्रभावित होते हैं। इसीलिए पिछले तीन दशकों के दौरान ज्यादातर कृषि वस्तुओं के मूल्यों पर दबाव बना रहा। दीर्घकालिक तौर पर आगे भी यही रुख रह सकता है।
हम भारत की कृषि सब्सिडी पर लगे आरोपों की सत्यता जानने का प्रयास करते हैं। जैसा पहले उल्लेख किया गया है, अमेरिका, ऑस्ट्रेलिया और कनाडा द्वारा प्रस्तुत दस्तावेजों में कहा गया कि भारत ने बाजार मूल्य समर्थन अत्यधिक बढ़ा दिया है। लेकिन इन दस्तावेजों के आंकड़े भारतीय रुपये में बाजार मूल्य समर्थन की वास्तविकता के बहुत दूर हैं। जबकि भारत ने अपने पक्ष में आंकड़े डॉलर में पेश किए हैं। इसलिए ये आंकड़े बहुत छोटे हैं क्योंकि रुपये में काफी अवमूल्यन हो चुका है। शिकायतकर्ता देश जोर देते हैं कि बाजार मूल्य समर्थन की जानकारी स्थानीय करेंसी में होनी चाहिए, जो कृषि समझौते के उल्लंघन की बात साबित करते हैं।
भारत की कृषि सब्सिडी के लिए चुनौतियां अब तार्किक तौर पर अगले स्तर पर पहुंच गई हैं। ब्राजील ने डब्ल्यूटीओ के विवाद निस्तारण संगठन के समक्ष गन्ने के बारे में औपचारिक शिकायत की है। ऑस्ट्रेलिया और ग्वाटेमाला ने इस विवाद में थर्ड पार्टी के रूप में शिरकत की है। डब्ल्यूटीओ के इन सदस्यों द्वारा भारत को स्पष्ट रुख अपनाने का संदेश दिया जा रहा है। इससे प्रतीत होता है कि कृषि सब्सिडी को लेकर गंभीर विचार-विमर्श किए जाने की आवश्यकता है।
(लेखक सेंटर फॉर इकोनॉमिक स्टडीज एंड प्लानिंग, जवाहरलाल नेहरू यूनिवर्सिटी, नई दिल्ली के प्रोफेसर हैं)