Advertisement
3 मार्च 2025 · MAR 03 , 2025

विधानसभा चुनाव ’25 आवरण कथा/दिल्ली: अरविंद नहीं, कमल

मतदान से पहले तक दिल्ली की फिजाओं में गूंजती बदलाव की आहटें सच साबित हुईं, ये आहटें कितनी हकीकत थीं कितना फसाना, दिल्ली चुनाव की कहानी इसी बहस में उलझी है, लेकिन असल सवाल आप और उसके नेताओं के भविष्य का है, जिसे बचाने की कवायद जारी
लंबी जद्दोजहद के बादः नतीजों के बाद भाजपा मुख्यालय के जश्न में नरेंद्र मोदी, 8 फरवरी 2025

दिल्ली चुनाव के 8 फरवरी को आए नतीजों के बाद जितने किस्म की प्रतिक्रियाएं देखने को मिली हैं, उन सबके बीच एक समान तत्व है। उस तत्व तक पहुंचने के पीछे बेशक अपने-अपने कारण, मंशाएं, विचारधाराएं या विश्लेषण होंगे। इसीलिए सबके कहने का ढंग भी जुदा है। जैसे किसी प्रयोगशाला में किसी मिश्रित रसायन का आसवन किया जाता है, हिंदी के कथाकार उदय प्रकाश ने मतगणना के दिन वही किया। फिर दिल्ली चुनाव के केंद्रीय और तकरीबन सर्वस्वीकार्य तत्व को एक सरल वाक्य में लिखा: "मुझे ऐसा लगता है कि यह बहुत पहले से पता था। अब जो होगा, वह भी पता ही है। ऐसा ही होता है।" नियतिवाद की मुंडेर पर लेटी इस विशुद्ध उदासीन अभिव्यक्ति से आखिर किसका विरोध हो सकता है! जिन्हें आम आदमी पार्टी की हार साजिश लग रही है, उन्हें निश्चित रूप से इसकी आशंका बहुत पहले से थी कि यही होगा। जिन्हें भारतीय जनता पार्टी की जीत स्वाभाविक लग रही है, वे भी इसे मानकर ही चल रहे थे। जिन्हें लगातार तीसरी बार कांग्रेस पार्टी का खाता न खुलने पर कोई अफसोस नहीं है, वे भी इससे पहले से मुतमईन थे। लोकनीति-सीएसडीएस का सर्वे भी कह रहा है कि करीब तीन-चौथाई वोटर पहले से ही अपना मन बनाए बैठा था। जो होना था, उसका पूर्वाभास तो अरविंद केजरीवाल को भी था। उन्होंने 27 सीटों पर अपने प्रत्याशी अनायास ही नहीं बदले। उनमें से केवल सात जीते हैं।

ग्राफिक

ऐसा लगता है कि दिल्ली विधानसभा चुनाव सभी की अपेक्षाओं या आशंकाओं पर खरा उतरा है। अबकी ‘आशंका’ वाला पक्ष ईवीएम-मुक्त है, यह बात विशेष ध्यान देने की है। अब तक किसी पार्टी या बड़े नेता ने ईवीएम को लेकर एक शब्द नहीं कहा है। हां, मतदाता सूचियों में कटौती या बढ़ोतरी पर यहां-वहां आंकड़ेबाजी बेशक चल रही है, लेकिन इसकी जद में सबसे ज्यादा प्रभावित दो सीटों दिल्ली कैन्ट और नई दिल्ली पर आम आदमी पार्टी का एक-एक जीत वाला हिसाब मतदाता सूची के घपले के आरोपों पर भी विश्वास जमा नहीं पा रहा।

लिहाजा, दिल्ली की सबसे बड़ी विडंबना यही है कि इस बात को जानते हुए भी कि आजकल चुनाव और परिणाम उतने सीधे-सपाट नहीं होते, दिल्ली के परिणामों को लोकप्रिय महत्वाकांक्षाओं का जनादेश मानने को सभी पक्ष अभिशप्त हैं। इसीलिए परिणामों के बाद अपेक्षाकृत शांति है।

दो प्रतिशत का खेल

भाजपा (48) ने आप (22) को 26 सीटों के अंतर से हराया है। यह अंतर वोटों में महज 2.06 प्रतिशत से पैदा हुआ है। भाजपा को 45.61 प्रतिशत वोट मिले हैं, तो आप को 43.55 प्रतिशत। इस दो प्रतिशत के अंतर को एक ओर रख दें, तो भाजपा के कुल वोट प्रतिशत में 2020 के मुकाबले 7.1 प्रतिशत का इजाफा हुआ, जिसने उसकी सीटों की संख्या पिछली बार के 8 से बढ़ाकर 48 पर ला दी। उधर, आप के वोट प्रतिशत में 10.02 की गिरावट आई है जिसके चलते उसकी कुल सीटें 2020 के 62 से गिरकर 22 पर पहुंच गई हैं।

आप को 40 सीटों का नुकसान और भाजपा को इतनी ही सीटों की बढ़त क्रमश: 10.1 वोट प्रतिशत की कमी और 7.1 प्रतिशत के इजाफे से आ रही है। यानी, बीच का तीन प्रतिशत वोट ऐसा है जो सीधे तो भाजपा को नहीं गया लेकिन आप से बाहर चला गया। इस तीन प्रतिशत में 2.09 प्रतिशत वोट कांग्रेस ले गई है, जो पिछली बार के 4.26 से बढ़कर इस बार 6.35 प्रतिशत पर आ गई है, भले ही उसका खाता नहीं खुल सका। अन्य दलों, नोटा और भाजपा के सहयोगी दो दलों जदयू तथा लोजपा (एक-एक सीट) के वोट प्रतिशत में भी इस बार इजाफा हुआ है, जो एक प्रतिशत की खाली जगह को भरते हैं।

ग्राफिक

भाजपा और आप के बीच करीब दो प्रतिशत वोटों का जो अंतर है, उसका नतीजा भाजपा के ऐसे 14 प्रत्याशियों की जीत के अंतर में दिखाई देता है, जो 20,000 के पार है। आम आदमी पार्टी के केवल आठ प्रत्याशियों की जीत का मार्जिन बीस हजार से ज्यादा है, हालांकि सबसे ज्यादा जीत के मार्जिन वाली सीट मटिया महल आप की झोली में आई है।

यह चुनाव दूसरे प्रत्याशियों और दलों के लिए भी याद रखा जाएगा। इस बार 70 सीटों पर कुल 699 प्रत्याशी चुनाव लड़े। उनमें से करीब 80 प्रतिशत यानी 555 की जमानत जब्त हो गई। जमानत जब्त होने का मतलब है कि ये प्रत्याशी कुल पड़े वोटों का छठवां हिस्सा भी नहीं पा सके। दिलचस्प है कि आम आदमी पार्टी, भाजपा, जदयू और लोजपा के सारे प्रत्याशियों की जमानत बच गई लेकिन कांग्रेस के 67 प्रत्याशियों की जमानत जब्त हो गई। केवल तीन कांग्रेसी रोहित चौधरी (नांगलोई), देवेंद्र यादव (बादली) और अभिषेक दत्त (कस्तूरबा नगर) अपनी जमानत बचा पाए। ओखला से एआइएमआइएम के प्रत्याशी शिफा-उर-रहमान खान की जमानत भी बच गई।

ग्राफिक

दिल्ली 2025 की कहानी केवल चुनावी आंकड़ों की नहीं है। अगर वाकई हर पक्ष के लोगों को इस बात का पूर्वाभास था कि अबकी सत्ता परिवर्तन हो सकता है और आप हार सकती है, तो इसकी एक राजनैतिक पृष्ठभूमि भी है, जो लगातार पांचेक साल से तैयार की जा रही थी। उसी पृष्ठभूमि से उपजे अनुभवों को स्वर देते हुए प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी ने बीती तीन जनवरी को एक शब्द गढ़ा था ‘‘आप-दा’’, और दिल्ली को इससे निजात दिलवाने का वादा किया था। यह संदेश दो बातों को एक साथ स्थापित कर रहा था। पहला, कि आप सरकार में दिल्ली का कोई विकास नहीं हुआ है और दूसरा, कि आप भ्रष्ट हो चुकी है।

दक्षिण-पूर्वी दिल्ली के रहने वाले हिंदी के लेखक भगवानदास मोरवाल बताते हैं, ‘‘मुझे लगता है कि लोगों ने पहले से मन बना लिया था कि आप को हटाना है। ऐसा नहीं है कि उनकी आप या केजरीवाल से कोई दुश्मनी थी, लेकिन उनके पास विकल्प नहीं था। पूरी दिल्ली गंदी हुई पड़ी है। साफ-सफाई का नाम नहीं है। सड़कें टूटी हैं। पानी की दिक्कत है। ये तो होना ही था।’’

नतीजे की पृष्ठभूमि

लोकनीति-सीएसडीएस का सर्वे भी दिल्ली की साफ-सफाई, हवा-पानी, यमुना की गंदगी, आदि को जन असंतोष के कारणों में गिनवाता है। इन रोजमर्रा के अनुभवों के बावजूद राजनैतिक पृष्ठभूमि का दूसरा आयाम आम आदमी पार्टी और उसके सुप्रीमो अरविंद केजरीवाल की निजी छवि थी, जिसे बहुत सुनियोजित तरीके से बीते कुछ वर्षों में लोगों की नजर में गढ़ा गया। इस आयाम के पीछे दिल्ली के उपराज्यपाल या एलजी के पद पर आए व्यक्तियों की बड़ी भूमिका है, जो चुनावी परिदृश्य में आम तौर से अदृश्य हो जाते हैं। खासकर, तीन साल पहले तैनात किए गए नए एलजी वीके सक्सेना से वह कहानी शुरू होती है, जिसकी परिणति मोदी की ‘‘आप-दा’’ में हुई।

हार से पालाः चुनाव आयोग में शिकायत लेकर पहुंचे केजरीवाल और दूसरे आप नेता, 13 जनवरी 2025

हार से पालाः चुनाव आयोग में शिकायत लेकर पहुंचे केजरीवाल और दूसरे आप नेता, 13 जनवरी 2025

बेशक, आम आदमी पार्टी की दिल्ली सरकार का पहले के उपराज्यपालों से मधुर रिश्ता नहीं रहा था, लेकिन सक्सेना के कार्यकाल में यह रिश्ता अप्रत्याशित रूप से बिगड़ गया। नियुक्ति के दो महीने के भीतर ही सक्सेना ने दिल्ली की आबकारी नीति की जांच केंद्रीय जांच ब्यूरो से करवाने की सिफारिश कर डाली, जिसके चलते केजरीवाल और उनके सिपहसालार मनीष सिसोदिया की गिरफ्तारी हो गई। आज दोनों ही अपनी-अपनी सीट से चुनाव हार चुके हैं।

दिल्ली सरकार को दूसरा झटका 2023 में लगा जब 11 मई को सुप्रीम कोर्ट की संविधान पीठ ने दिल्ली की निर्वाचित सरकार को कानून व्यवस्था, पुलिस और जमीन-जायदाद के अलावा बाकी मामलों में कानून बनाने और नौकरशाहों को नियंत्रित करने का अधिकार दे डाला। इसकी प्रतिक्रिया में 19 मई को केंद्र सरकार ने एक अध्यादेश जारी कर शीर्ष अदालत के फैसले को पलट डाला और नौकरशाहों के मामले में पूरा अधिकार एलजी को दे दिया। इसके बाद से ही दिल्ली सरकार के हर काम से जुड़ी हर फाइल अफसरों द्वारा सीधे एलजी के पास भेजी जाने लगी।

आखिरकार भाजपा ने दिल्ली में हासिल कर ही लिया बहुमत

आखिरकार भाजपा ने दिल्ली में हासिल कर ही लिया बहुमत

यानी, दिल्ली सरकार की ‘‘आप-दा’’ वास्तव में केंद्र की खड़ी की हुई थी, जिसके चलते डेढ़ साल पहले ही उसके हाथ-पैर बंध चुके थे। जाहिर है, दिल्ली के लोगों को इसका कड़वा अनुभव रोजमर्रा की बाधित हो चुकी सरकारी सेवाओं की मार्फत हो रहा था जबकि सरकार और आप पार्टी के आला चेहरे जेल और बेल में फंसे पड़े थे। गिरफ्तारियों के चलते केजरीवाल और उनके सहयोगियों की निजी छवि को जो नुकसान पहुंचा, उसने कोढ़ में खाज का काम किया।

इस दौरान न तो एलजी के ऊपर कोई सवाल उठा, न ही दिल्ली के सातों निर्वाचित सांसदों के ऊपर जो सारे के सारे भाजपा से हैं। चुनाव आया, स्थानीय मुद्दों पर खड़ा हुआ और बीत भी गया, लेकिन जनधारणा और प्रचार में कहीं भी यह बात सतह पर नहीं आई कि दिल्ली में भाजपा के सात सांसद और भाजपा का एलजी आखिर कर क्या रहे थे। शायद इसी वजह से अब भी कुछ लोग इस जनादेश और इसके पीछे की व्याख्याओं को सहज नहीं मान पा रहे हैं।

वैचारिक बहसें

इस जनादेश से खफा और मुखर कुछ अहम लोगों में दिल्ली के पुराने बुद्धिजीवी आदित्य निगम हैं, जो लिखते हैं: ‘‘दिल्ली के नतीजों के बाद कांग्रेसियों और उस ईकोसिस्टम के अन्य लोगों को बहुत रस आ रहा है। यही उनका चरित्र है। वे लोग तो चाहते ही हैं कि भाजपा सत्ता में हो। मैं इन नतीजों के प्राप्त होने के हर कदम पर सवाल खड़ा करता हूं। जब कांग्रेस हरियाणा में हारी और उसका गठबंधन महाराष्ट्र में हारा, तब भी मैंने सवाल किया था। अब भी कर रहा हूं। जो लोग भी इन नतीजों को जन आकांक्षा की अभिव्यक्ति मान रहे हैं वे एक फासीवादी सत्ता को सामान्य बनाने के भागी हैं।’’

दरअसल, आम आदमी पार्टी की हार पर आ रही ऐसी प्रतिक्रियाओं का एक वैचारिक पक्ष है जिस पर चालू चुनावी विश्लेषणों में बात नहीं होती। जब दिल्ली की कांग्रेसी सरकार के खिलाफ भ्रष्टाचार के कथित कागज लहराकर अरविंद केजरीवाल ने बारह साल पहले परिवर्तन की आंदोलनकारी राजनीति शुरू की थी, तब नागरिक और बौद्धिक समाज में बहुत से लोगों को आस बंधी थी कि सही मायनों में एक गैर-कांग्रेसी और गैर-भाजपाई तीसरी ताकत पैदा हो रही है। ऐसा सोचने वाले ज्यादातर वे लोग थे, जो कांग्रेस और भाजपा की राजनीति को बरसों से ‘‘नागनाथ-सांपनाथ’’ की जोड़ी कहते आए थे। यह जुमला नब्बे के दशक में समाजवादियों और वामपंथियों के बीच खूब चलता था।

क्या मिलाः दिल्ली के ओखला विधानसभा क्षेत्र की प्रचार सभा में राहुल गांधी

क्‍या मिलाः दिल्ली के ओखला विधानसभा क्षेत्र की प्रचार सभा में राहुल गांधी

ऐसा नहीं है कि राजनीति में गैर-कांग्रेसी और गैर-भाजपाई विकल्पों की कमी थी। तमाम वामपंथी दल, समाजवादी दल इसी तीसरी श्रेणी में आते थे। इसके बावजूद, 2008-09 की आर्थिक मंदी के बाद जिस तेजी से पूरी दुनिया में नए किस्म के स्वयं-स्फूर्त से दिखने वाले आंदोलनों का उभार हुआ, उन्होंने पुरानी बदलावकारी ताकतों को हवा के साथ बह जाने के लिए मजबूर कर दिया। पांच साल पहले गुजरे पश्चिमी विचारक रोजर स्क्रूटन ने उस वक्त बहुत विस्तार से इन आंदोलनों की बुनावट, विचारधारा और मंशा पर लिखा था। उनका विश्लेषण भविष्य की सान पर खरा उतरा। ऐसे आंदोलनों में एक अमेरिका का टी पार्टी मूवमेंट कालान्तर में डोनाल्ड ट्रम्प और संरक्षणवादी गोरे ईसाइयों के साथ चला गया। ट्यूनीशिया से शुरू हुए अरब स्प्रिंग ने कई देशों में अमेरिका की पिट्ठू सरकारें बैठा दीं और बाद में उनमें सैन्य संगठन नाटो की संलिप्तता भी सामने आई।  

उस दौरान लेखिका अरुंधती राय ने अन्ना आंदोलन में निहित अंधराष्ट्रवादी छवियों और प्रतीकों से लोगों को आगाह किया था। इसके बावजूद, आसन्न भाजपा का खौफ और गैर-कांग्रेसवाद की समाजवादी विरासत इतनी महीन थी कि समाजवादियों से लेकर तमाम रंग के वामपंथियों ने केजरीवाल में जनता का मुक्तिदाता देख लिया। हालत यह थी कि 2014 के लोकसभा चुनाव में ही कम्युनिस्ट पार्टियों ने पूरी तरह से हथियार डाल दिया था। भाकपा (माले-लिबरेशन) ने 2014 के लोकसभा चुनाव में आम आदमी पार्टी का आधिकारिक समर्थन किया। अकेले माकपा ने बनारस में नरेंद्र मोदी और केजरीवाल के खिलाफ हीरालाल यादव को खड़ा किया था, हालांकि नौ महीने बाद दिल्ली में आप की जबरदस्त जीत का सबसे तेजी से स्वागत करते हुए माकपा ने चार वाक्यों का एक प्रेस वक्तव्य 10 फरवरी, 2015 को मतगणना पूरी होने से पहले ही जारी कर दिया था।

असर दिखाः (बाएं से) असदुद्दीन ओवैसी, संदीप दीक्षित और प्रवेश वर्मा

असर दिखाः (बाएं से) असदुद्दीन ओवैसी, संदीप दीक्षित और प्रवेश वर्मा

उस साल छह कम्युनिस्ट पार्टियों ने दिल्ली चुनाव से पहले एक वाम जनवादी मोर्चा बनाया था और कुल 15 सीटों पर अपने उम्मीदवार खड़े किए थे। इन्हें कुल 6609 वोट मिले थे और सबकी जमानत जब्त हो गई थी। इससे जुड़े एक सवाल पर माकपा की दिल्ली इकाई के नेता पुष्पेंद्र ग्रेवाल ने मुस्कराते हुए इस संवाददाता से कहा था, ‘‘हमारी जमानत बची ही कब है?’’ आम आदमी पार्टी को वाम की वैचारिक लड़ाई आउटसोर्स करने का परिणाम यह हुआ कि इस बार दिल्ली की कुल 14 सीटों पर वामपंथी उम्मीदवारों ने चुनाव लड़ा और कुल जमा 4008 वोट  हासिल किए हैं।

ऐसी स्थिति में जिस नागरिक और बौद्धिक समाज ने भाजपा और मोदी-विरोध के नाम पर दस साल तक खुलकर आम आदमी पार्टी का समर्थन किया, आज वह खुद को फंसा हुआ पा रहा है। इसकी बुनियादी वजह आम आदमी पार्टी की राजनीति और वैचारिकी को लेकर शुरू से कायम रही बहस है, जिसमें एक तबका मानता है कि वह भाजपा की बी टीम है जबकि दूसरा तबका उसे भाजपा-विरोधी मानता है। यह ऊहापोह कमोबेश आज भी बहुत से लेखकों, बौद्धिकों और सामाजिक कार्यकर्ताओं के बीच कायम है। दिल्ली चुनाव के नतीजों पर भाकपा (माले-लिबरेशन) के एक संस्कृतिकर्मी काफी सोचने के बाद कहते हैं, ‘‘जो हुआ सो हुआ। इसमें अच्छा क्या, बुरा क्या।’’

बच गई इज्जतः निवर्तमान मुख्यमंत्री आतिशी अपना इस्तीफा सौंपते हुए

बच गई इज्जतः निवर्तमान मुख्यमंत्री आति‌शी अपना इस्तीफा सौंपते हुए

कुछ ऐसे लोग भी हैं, जिनके मन में कोई वैचारिक द्वंद्व नहीं है। वे अपने पुराने वैचारिक खूंटे पर कायम हैं। वे शुरू से मानते रहे हैं कि अन्ना आंदोलन राष्ट्रीय स्वयंसेवक संघ की उपज था। यह बात आज भाजपा सहित अलग-अलग दलों के नेता खुलकर स्वीकार भी कर रहे हैं (देखें आउटलुक का पिछला अंक)। अरविंद केजरीवाल से पहले प्रतिष्ठित अशोका फेलो रहे मानवाधिकार कार्यकर्ता डॉ. लेनिन रघुवंशी कहते हैं, ‘‘अरविंद केजरीवाल की हार केवल चुनावी पराजय नहीं, बल्कि नैतिक और राजनैतिक पाखंड की हार है। मैंने 24 अगस्त 2011 को अन्ना हजारे जी को लिखे खुले पत्र में ही इस आंदोलन की कमजोरियों को उजागर कर दिया था। 2014 में जब मैंने केजरीवाल को ‘मुसोलिनी’ कहा, तो कई एनजीओ और कार्यकर्ताओं ने मुझ पर हमले किए। सत्य को झुकाया जा सकता है, हराया नहीं जा सकता। केजरीवाल की पराजय सत्य की पहली विजय है।’’

जीत-हार से आगे

चुनाव नतीजे आने के बाद हुई आम आदमी पार्टी के विधायकों की पहली बैठक में पूर्व मुख्यमंत्री आतिशी ने खुलकर कहा कि वे भाजपा सरकार के ऊपर दबाव बनाने की कोशिश करेंगी कि महिलाओं से किए गए वादे और मुफ्त बिजली-पानी वाली व्यवस्था कायम रहे। यानी, सहयोग की राजनीति शायद अब देखने को मिले और दिल्लीवालों के लिए लाभों की गारंटी बनी रहे।

इसके बावजूद, कुछ सवाल ऐसे हैं जो इन नतीजों ने हवा में खुले छोड़ दिए हैं। जैसे, नगर निकाय में आम आदमी पार्टी का भविष्य क्या होगा? दिल्ली के चुनाव स्थानीय मुद्दों पर होते हैं इसलिए यह सवाल अहम है। आम आदमी पार्टी के कई पार्षदों के पार्टी छोड़ जाने के कारण दिल्ली नगर निगम (एमसीडी) में उसका बहुमत और पतला हो गया है। चुनाव से पहले आप के छह पार्षद भाजपा में चले गए थे। कुल ढाई सौ निर्वाचित पार्षदों वाली 274 सदस्यीय एमसीडी में आप अब 134 से 121 सीटों पर आ गई है जबकि भाजपा 120 पर है। नवंबर 2024 में हुए मेयर के चुनाव में आप का प्रत्याशी क्रॉस वोटिंग के सहारे केवल तीन वोट से जीता था। आज स्थिति यह है कि कुल 11 पार्षद चुनाव लड़कर विधायक बन चुके हैं, लिहाजा उन्हें शपथ ग्रहण से पहले इस्तीफा देना होगा। उनमें आठ भाजपा से विधायक बने हैं और तीन आप से। इसके बाद जो सीटें खाली हो जाएंगी उन पर उपचुनाव करवाए जाएंगे। चुनाव के बाद भाजपा की हवा होने के कारण माना जा रहा है कि नगर निकाय में आम आदमी पार्टी का बहुमत अब कुछ ही दिनों की बात है।

ग्राफिक

एमसीडी के अलावा एक अहम सवाल आप के उन नेताओं का है जिन्हें जेल हो चुकी है। प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी सहित दिल्ली भाजपा प्रदेश अध्यक्ष ने भी कहा है कि सदन की पहली बैठक होते ही महालेखा परीक्षक और नियंत्रक (सीएजी) की रिपोर्ट को पटल पर रखा जाएगा और भ्रष्टाचार के मामलों में कार्रवाई की जाएगी। ध्यान रहे कि पिछले ही महीने दिल्ली हाइकोर्ट ने सीएजी की रिपोर्ट को चुनाव के बीच सार्वजनिक न करने का आदेश दिया था। सीएजी की रिपोर्ट में केजरीवाल, सिसोदिया, सत्येंद्र जैन और अन्य नेताओं की किस्मत अटकी हुई है।  

तीसरा सवाल पंजाब का है, जिस पर नतीजे के बाद से ही चर्चाओं का बाजार गरम है। 10 फरवरी को होने वाली पंजाब कैबिनेट की बैठक अचानक टाल दी गई और 11 फरवरी को पंजाब के आप विधायकों को बैठक के लिए अरविंद केजरीवाल ने दिल्ली बुलवा भेजा। पंजाब असेंबली में नेता विपक्ष कांग्रेस के प्रताप सिंह बाजवा मीडिया को दिए अपने साक्षात्कारों में खुलकर दावा कर रहे हैं कि आम आदमी पार्टी के कई विधायक कांग्रेस के संपर्क में हैं और पार्टी कभी भी टूट सकती है। अटकलें हैं कि केजरीवाल या तो पंजाब से राज्यसभा जाएंगे या लुधियाना (पश्चिम) की खाली सीट से चुनाव लड़ेंगे। आप के पंजाब प्रभारी अमन अरोड़ा के ताजा बयान ने इन अटकलों को और हवा दे दी है। उन्होंने कहा है कि अब कोई हिंदू चेहरा ही पंजाब का मुख्यमंत्री बनाना चाहिए। इसके बावजूद दिल्ली में आप विधायकों की बैठक से ऐसा कोई संकेत नहीं निकला है।

ग्राफिक

दिल्ली के चुनाव परिणाम से निकला अंतिम और ज्यादा बड़ा सवाल इंडिया ब्लॉक का है। क्या आगामी चुनावों में आप और कांग्रेस का साथ कायम रहेगा। यह सवाल इसलिए अहम है क्योंकि ऐसी कम से कम 14 सीटें हैं जहां कांग्रेस प्रत्याशी को मिले वोट आप प्रत्याशी की हार के मार्जिन से ज्यादा रहे। खासकर नई दिल्ली सीट पर, जहां अरविंद केजरीवाल 4089 वोटों से हारे हैं, वहां कांग्रेस प्रत्याशी संदीप दीक्षित को 4568 वोट मिले हैं। केजरीवाल की निजी हार दिल्ली में आप की सरकार की हार से कहीं ज्यादा बड़ी है। इसलिए इंडिया ब्‍लॅक में आप के बने रहने का सवाल सीधे-सीधे केजरीवाल का निर्णय होगा।

अटकलों का बाजार

नतीजे आने के बाद से ही मुख्यमंत्री के नाम को लेकर अटकलों का बाजार गरम रहा। भाजपा के एक नेता के मुताबिक प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी के विदेश यात्रा से लौटने के बाद पार्टी अपने मुख्यमंत्री का नाम सार्वजनिक करेगी। दस फरवरी को अमित शाह के यहां हुई विधायकों की बैठक से संकेत निकले हैं कि मुख्यमंत्री चुने हुए विधायकों में से ही किसी को बनाया जाएगा।

नेता विपक्ष के नाम पर पूर्व मुख्यमंत्री आतिशी स्वाभाविक पसंद हैं, हालांकि बाबरपुर से जीते पूर्व कैबिनेट मंत्री गोपाल राय का नाम भी इस पद के लिए चल रहा है। विधानसभा के स्पीकर के लिए भाजपा के एक वरिष्ठ विधायक का नाम आगे चल रहा है।  

संघ के एक करीबी सूत्र बताते हैं, ‘‘भाजपा इस बार शायद राजस्थान या मध्य प्रदेश वाली गलती न करे, पहली बार का विधायक मुख्यमंत्री न बनाए, ऐसी सोच है। संघ नेतृत्व  से लेकर तमाम विधायकों को लोकतांत्रिक ढंग से भरोसे में लेने की कवायद चल रही है। बैठकों का दौर जारी है ताकि सबके बीच समन्वय कायम रखा जा सके, हालांकि होगा वही जो पार्टी का शीर्ष नेतृत्व चाहेगा। लोकसभा चुनाव में कम सीटें आने के कारण भाजपा नेतृत्व अब संघ की सहमति के बगैर किसी मुख्यमंत्री का नाम तय नहीं करेगा, इतना तो पक्का है।’’

जो भी हो, इन चुनावों ने देश की सियासत में नए रंग घोल दिए हैं, जो आगे दिखेंगे।

 

 

Advertisement
Advertisement
Advertisement