सत्तर के दशक में डाकू आधारित फिल्में खूब बन रही थीं। उनमें से अधिकांश बॉक्स ऑफिस पर सफल भी हो रही थीं। राज खोसला जैसे स्थापित निर्देशक ने भी मेरा गांव मेरा देश की कामयाबी को दोबारा भुनाने के लिए विनोद खन्ना और कबीर बेदी को प्रतिद्वंद्वी डाकुओं की भूमिका में लेकर कच्चे धागे बनाई। सुनील दत्त उस समय प्राण जाए पर वचन न जाए और हीरा जैसी फिल्मों में डाकू के रोल में खुद को फिर से स्थापित कर चुके थे। यहां तक कि प्राण भी धर्मा में डाकू के किरदार में नई जान फूंक चुके थे।
धर्मेंद्र की प्रतिज्ञा भी गांववालों को डाकुओं के आतंक से बचाने वाली फिल्म थी। इसी दौर में पुतलीबाई भी धूम मचा चुकी थी। नरेंद्र बेदी की खोटे सिक्के में भी ग्रामीणों को डाकुओं के आतंक से मुक्ति दिलाते शहरी युवाओं की दिलचस्प कहानी थी। ऐसे में नामचीन निर्माता जी.पी. सिप्पी और उनके होनहार पुत्र रमेश सिप्पी ने सीता और गीता की अपार सफलता के बाद डाकुओं की पृष्ठभूमि वाली अगली फिल्म शोले की घोषणा की, जो चौंकाने वाली थी। लेकिन जैसे ही फिल्म फ्लोर पर गई, उसके भव्य निर्माण की खबरें आने लगीं।
कहा जाने लगा कि वक्त, मेरा नाम जोकर और रोटी कपड़ा और मकान के बाद पहली बार बड़े बजट के साथ इतनी बड़ी मल्टी स्टार फिल्म 70 एमएम में बनने जा रही है। फिल्म में पहली बार स्पेशल इफेक्ट्स के लिए विदेशी टेक्नीशियंस की मदद लिए जाने की खबर भी सुर्खियां बटोर रही थी। दरअसल रमेश सिप्पी हॉलीवुड की मैकेन्नाज गोल्ड जैसी बहुचर्चित फिल्म का रोमांच भारतीय दर्शकों के लिए देशज अंदाज में परोसना चाहते थे।
शोले में ट्रेन में लूट के वक्त तेज गति से भागते घोड़ों पर सवार डाकुओं के औंधे मुंह गिरने के रोमांचक दृश्यों की शूटिंग रिपोर्ट फिल्मी पत्रिकाओं में छपी जिसे पाठकों ने बड़े चाव से पढ़ा। तब उसके मुख्य खलनायक गब्बर सिंह के रोल में अमजद खान सरीखे नए नवेले कलाकार के लुक और स्टाइल को लेकर अधिक चर्चा नहीं हुई थी। बाद में फिल्म रिलीज होने के बाद वही उसकी यूएसपी सिद्ध हुई। पोस्टरों के जरिये, जो आकर्षण गढ़ा गया था वह मुख्यतः धर्मेंद्र, हेमा मालिनी, अमिताभ बच्चन, जया भादुड़ी और संजीव कुमार जैसे सितारों के इर्द-गिर्द ही केंद्रित था।
जून 1975 में देश में इमरजेंसी लागू होने के बाद सरकार ने फिल्मों में दिखाई जा रही अश्लीलता, मारधाड़ और हिंसा पर अंकुश लगाने के लिए सेंसर बोर्ड को सख्ती बरतने के निर्देश दिए। 12 अगस्त 1975 को केंद्रीय फिल्म सेंसर बोर्ड ने 35 एमएम वाली 23 रील की संशोधित शोले को प्रदर्शन के लिए प्रमाणपत्र जारी किया था। इस प्रमाणपत्र पर सेंसर बोर्ड के तत्कालीन अध्यक्ष वीरेंद्र व्यास के हस्ताक्षर थे। लंदन से खास तौर पर तैयार कर मंगवाया गया फिल्म का 70 एमएम प्रिंट कस्टम ड्यूटी के झमेले में फंस जाने के बावजूद 15 अगस्त 1975 को पूर्व घोषित कार्यक्रम के अनुसार मुंबई के मिनर्वा टॉकीज में सितारों की चकाचौंध के बीच फिल्म का भव्य प्रिमियर हुआ।
बॉक्स ऑफिस पर देर से भड़के शोले
स्वाधीनता दिवस के मौके पर फिल्म की रिलीज के दौरान विशालकाय होर्डिंग्स के माध्यम से हाइप क्रिएट करने की कोशिश की गई थी लेकिन अफसोस पहले हफ्ते में बॉक्स ऑफिस पर शोले के अंगारे कहीं नजर नहीं आए। फिल्म की फीकी ओपनिंग से मायूस डिस्ट्रीब्यूटरों ने दर्शकों की मानसिकता को भांपकर निर्माता-निर्देशक से फिल्म का दुखांत बदलने की पुरजोर मांग की। रमेश सिप्पी खुद सार्वजनिक रूप से कई बार बता चुके हैं कि पूरी टीम बेंगलूरू जाकर वैकल्पिक क्लाइमैक्स शूट करने की तैयारी में जुट भी गई थी। मगर अगला शुक्रवार आते-आते माउथ पब्लिसिटी ने कमाल किया और देखते ही देखते दर्शकों की भीड़ ने बुझते ‘शोले’ की आंच दहका दी।
शोले की इस विलंबित और असाधारण सफलता के पीछे कुछ अन्य नवाचार भी थे। अब तक दर्शकों के मन में धोती-कुर्ता पहने, काला टीका लगाए घुड़सवार डाकुओं की जो पारंपरिक छवि दर्ज थी, उसे शोले के गब्बर सिंह ने न केवल ध्वस्त किया बल्कि दुर्दांत डाकू के चालाक, खब्ती और मलिन स्वरूप का नया प्रतिमान रुपहले पर्दे पर गढ़ा। खास तौर पर उसकी संवाद अदायगी को दर्शकों ने सर आंखों पर लिया। मौके पर चौका मारते हुए एचएमवी जैसी पुरानी ग्रामोफोन रिकॉर्ड कंपनी को टक्कर दे रही पॉलीडोर ने पहली बार फिल्म के साउंड ट्रैक पर आधारित एलपी/ ईपी ग्रामोफोन रिकॉर्ड जारी किए। इसकी बदौलत देश भर में शोले के गीतों के साथ-साथ फिल्म के डायलॉग भी गूंजने लगे। गब्बर सिंह का “आओ ठाकुर!” “अरे ओ सांभा!” “कितने आदमी थे!” “तेरा क्या होगा कालिया!” जैसे संवाद लोकप्रिय होकर लोगों की जुबान पर चढ़ गए थे।
मारधाड़ और हिंसा प्रधान फिल्मों के उस दौर में शोले जैसी बड़े बजट की भव्य फिल्म को जय संतोषी मां सरीखी औसत धार्मिक फिल्म ने जबरदस्त टक्कर दी थी। फिल्म व्यवसाय के विश्लेषकों के लिए भी यह घटना किसी दैवीय चमत्कार से कम न थी। उस साल शोले के दहकते अंगारों के बीच धर्मात्मा, दीवार, संन्यासी, प्रतिज्ञा, और वारंट जैसी एक्सप्रेस फिल्में तथा जूली, गीत गाता चल और चुपके चुपके जैसी पैसेंजर फिल्में रुपहले परदे पर इत्मीनान से अपना सफर तय कर रही थीं, जबकि गुलजार की आंधी पर इमरजेंसी में बैन ही लग गया था।
शोले को 70 एमएम स्टीरियोफोनिक साउंड तकनीक वाली फिल्म के बतौर प्रचारित किया गया लेकिन उस जमाने में भारत में अधिकांश सिनेमाघर उस तकनीक पर आधारित फिल्म का प्रदर्शन करने की स्थिति में थे ही नहीं। उस समय न ऐसे फिल्म प्रोजेक्टर और लेंस उपलब्ध थे और न ही सिनेमाघरों में इतने उन्नत साउंड सिस्टम। कई साल बाद शोले चुनिंदा सिनेमाघरों में 70 एमएम के साथ दोबारा प्रदर्शित की गई।
इससे पहले भी दर्शकों को आकर्षित करने के लिए निर्माता ने अलग-अलग जतन किए। पहली बार असरानी के अंग्रेजों के जमाने के जेलर वाले रोचक जेल प्रसंगों की रील जोड़कर तथा दूसरी बार जया भादुड़ी के होली वाले दृश्यों को जोड़कर दर्शकों को बहलाया गया। मुंबई के मिनर्वा में शोले का लगातार पांच साल तक चलने का रिकॉर्ड आज भी याद किया जाता है। रिकार्ड को दिल वाले दुल्हनियां ले जाएंगे ने तोड़ा। जनवरी 2014 में शोले का 3-डी संस्करण रिलीज किया गया लेकिन अपेक्षित रिस्पॉन्स नहीं मिला।
शोले ऐसी पहली फिल्म है, जिसने असरानी और जगदीप जैसे हास्य कलाकारों को अंग्रेजों के जमाने के जेलर और लकड़ी की टाल वाले सूरमा भोपाली के अलबेले किरदारों की बदौलत सितारों सी शोहरत दिलाई। मैक मोहन जैसे कलाकार को सांभा के किरदार ने हमेशा के लिए अमर कर दिया। स्टेज आर्टिस्ट के रूप में जीवन भर वे सांभा के डायलॉग सुनाते रहे।
सचिन पिलगांवकर के करियर में भी शोले का अहमद काफी अहमियत रखता है। जलाल आगा की बात तो और भी अलग है, जिन्हें फिल्म का सर्वाधिक लोकप्रिय जिप्सी गीत “मेहबूबा मेहबूबा...” हेलन के साथ गाने का अवसर मिला। सीधे सच्चे इमाम साहब और मासूम भोली मौसी के पात्रों को ए.के. हंगल और लीला मिश्रा के सहज अभिनय ने यादगार बना दिया।
भले ही आज लगातार पांच वर्ष तक एक सिनेमाघर मे डटे रहने का खिताब अब अप्रासंगिक हो चुका हो या बॉक्स ऑफिस पर गाड़े गए कमाई के झंडे पुराने और जर्जर हो गए हों; लेकिन शोले के प्रति फिल्म रसिकों का लगाव पांच दशक बाद भी हर नई पीढ़ी में बना हुआ है। शोले मल्टीप्लेक्स में न सही लेकिन टीवी, ओटीटी समेत तमाम आधुनिक संचार साधनों के जरिये बार-बार देखी जाने वाली सर्वाधिक लोकप्रिय फिल्म है; जिसका आकर्षण आज भी बना हुआ है।
बीते पांच दशकों में शोले के निर्माता जी.पी सिप्पी (गोपाल दास परमानंद सिप्पी) और उनके पुत्र विजय सिप्पी सहित इस फिल्म से जुड़े ज्यादातर व्यक्ति अब इस दुनिया मे नहीं हैं। फिल्म के अमर गीतों को आवाज देने वाले सभी पार्श्व गायक, लता मंगेशकर, किशोर कुमार और मन्ना डे सहित अद्भुत पार्श्व संगीत रचने वाले संगीतकार राहुल देव बर्मन और गीतकार आनंद बख्शी बीते वर्षों में इस फानी दुनिया को अलविदा कह चुके हैं। शोले का भव्य फिल्मांकन करने वाले द्वारका दिवेचा और मुख्य कैमरामैन एस.एम. अनवर, फिल्म के एडिटर एम.एस. शिंदे और साउंड रिकॉर्डिस्ट मंगेश देसाई भी दिवंगत हो चुके हैं। फिल्म के यशस्वी निर्देशक रमेश सिप्पी स्वयं अब 78 वर्ष के हो चुके हैं। शोले के बाद उन्होंने शान जैसी एक और बड़ी मल्टी स्टार फिल्म बनाई थी। एक भीमकाय होर्डिंग्स के जरिये इसे ‘द ग्रेटेस्ट शो ऑन अर्थ’ कहकर प्रचारित किया गया था। लेकिन शान रमेश सिप्पी और जी. पी. सिप्पी की शान बढ़ाने में कामयाब नहीं हुई।
अस्सी के दशक की शुरुआत में उन्होंने शक्ति के माध्यम से पिता-पुत्र के किरदार में दिलीप कुमार और अमिताभ बच्चन के शक्ति परीक्षण का बीड़ा उठाया। हालांकि उसके बाद उन्हें भ्रष्टाचार, अकेला, जमाना दीवाना जैसी फिल्मों से यश नहीं मिला। बाद में दूरदर्शन पर दो साल तक चले धारावाहिक बुनियाद ने उन्हें फिर ख्याति दिलाई। पांच साल पहले उन्होंने शिमला मिर्च जैसी औसत फिल्म का निर्देशन किया लेकिन दर्शक रमेश सिप्पी की पहले वाली तासीर को तरस गए।
नई सदी में सोशल मीडिया के वैश्विक जन संचार युग में दाखिल होने के बाद लोगों को पहली बार शोले के उस क्लाइमैक्स सीन से रूबरू होने का मौका मिला, जिसमें ठाकुर गब्बर सिंह को मारकर अपने परिजनों की हत्या का बदला लेता है। लेकिन भारत में फिल्मों के सार्वजनिक प्रदर्शन के सेंसर बोर्ड के नियमों के चलते दर्शक यह दृश्य मूल फिल्म में देखने से वंचित ही रहे। मुंबई के फिल्म हेरिटेज फाउंडेशन ने शोले की रिलीज के पचासवें वर्ष में फिल्म का अत्याधुनिक 4के तकनीक से रीस्टोरेशन कर क्लासिक फिल्मों के संरक्षण का दायित्व निभाया है।
फिल्म के इस नए संस्करण को तैयार करने में फिल्म हेरिटेज फाउंडेशन को तीन वर्ष से अधिक का समय लगा। बिना किसी कट के ओरिजिनल क्लाइमैक्स के साथ शोले के इस नवीनतम अवतार का पहला अंतरराष्ट्रीय प्रदर्शन हाल में 27 जून को इटली के बोलोना में आयोजित रित्रोवातो फिल्म फेस्टिवल में किया गया। इस अवसर पर फिल्म संरक्षण में उल्लेखनीय योगदान के लिए फाउंडेशन के संस्थापक शिवेंद्र सिंह डूंगरपुर को विटोरियो बोरिनी से सम्मानित भी किया गया।
शोले की अभूतपूर्व कामयाबी का श्रेय उसकी कसी हुई पटकथा, ओजस्वी संवाद, प्रभावी अभिनय, पार्श्व संगीत, कलात्मक सिनेमेटोग्राफी, अद्भुत लोकेशंस, कुशल फिल्म एडिटिंग, भव्य निर्माण को जाता है, जिसने भारतीय फिल्मों के इतिहास में बेमिसाल पृष्ठ जोड़ दिया। इस विलक्षण फिल्म ने शोले के पहले और शोले के बाद जैसे दो हिस्सों में विभाजित करने का अनोखा काम भी कर दिखाया है।
(लेखक वरिष्ठ फिल्म अध्येता और सिने समीक्षक हैं)