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साहित्य/नेरूदा की पचासवीं बरसी: मिनट भर का अंधेरा हमें अंधा नहीं कर सकता...

आधुनिक विश्व में सबसे घृणित चिली में तख्तापलट और सर्वाधिक त्रासद तानाशाही सत्ता के आगमन के पचास साल पूरे होने पर सिनेमा के बहाने एक महान कवि की याद
पाब्लो नेरूदा (12 जुलाई, 1904-23 सितंबर 1973)

“चिली में फिल्‍मकारों के विचारों की हत्‍या कर दी जाती है। वहां कई फिल्‍मकार जेलों में हैं।” यह बात आज से कोई पैंतालीस साल पहले 1979 में चिली के प्रतिष्ठित फिल्‍म निर्देशक मिग्‍वेल लिटिन ने दिल्‍ली में आयोजित अंतरराष्‍ट्रीय फिल्‍म महोत्‍सव में कही थी, जिसमें वे जूरी के सदस्‍य थे। तब चिली में तख्‍तापलट को हुए केवल छह बरस गुजरे थे। उस राजनीतिक घटनाक्रम ने न केवल उनकी जिंदगी, बल्कि उस देश की पीढि़यों का मुस्‍तकबिल बदल डाला था। लिटिन उसके प्रत्‍यक्ष गवाह और भुक्‍तभोगी थे, इसलिए वे जो कह रहे थे उसे अच्‍छे से समझते भी थे।

चिली में सैन्‍य तानाशाही का अंत 1990 में हुआ। उसके बाद वहां कई चुनाव हुए, लेकिन आज भी वहां कानून का राज स्थिर नहीं है। जिन फौजी जनरलों ने हजारों असहमतों को ‘ईश्‍वर, राष्‍ट्र और परिवार’ के नाम पर मौत के घाट उतार दिया, उन्‍होंने चुनाव इस शर्त पर करवाए कि उनके ऊपर मुकदमे नहीं चलाए जाएंगे। ऐसे एक काले समझौते के साथ जो कथित ‘प्रायश्चित’ की प्रक्रिया चली, जाहिर है वह सच्ची नहीं हो सकती थी। इस अर्थ में देखें तो लिटिन के शब्‍द आज भी सत्‍य हैं- भले वहां कोई फिल्‍मकार आज जेल में न हो, लेकिन बीते पांच दशक के दौरान चिली के इतिहास पर या फिर मौजूदा सामाजिक-राजनीतिक परिस्थितियों पर उसके उठाए सवाल आज भी उसे गंभीर संकट में डाल सकते हैं। 

अपने निर्वासन के दौरान करीब दो दशक मेक्सिको सिटी और बार्सिलोना में गुजारने के बाद लिटिन नब्‍बे के दशक में चिली लौटे। उन दिनों को वे बड़ी उदासी और बेचैनी के साथ अपनी फिल्‍मों में याद करते हैं। उनकी फिल्‍में बार-बार बीते बरसों की ओर लौटकर जाती हैं। अपनी पहली फीचर फिल्‍म द जैकाल ऑफ नाहुएलतोरो के लिए 1969 में ही उन्‍हें काफी प्रतिष्‍ठा मिल चुकी थी। यह फिल्‍म वि‍शेष रूप से चिली और सामान्‍य रूप से लैटिन अमेरिका की सामाजिक परिस्थितियों पर एक तीखी आलोचना है। उन्‍होंने यह फिल्‍म अपने देश में सामाजिक व्‍यवस्‍था की फासिस्‍ट प्रकृति को उजागर करने की घोषित मंशा से बनाई थी। फिल्‍म के शीर्षक में ‘जैकाल’ एक निरक्षर, गरीब और भावनात्‍मक रूप से कमजोर युवक है जो शराब के नशे और आक्रोश में अपनी पत्‍नी और उसके पांच बच्‍चों की हत्‍या कर देता है। यह घटना एक सुदूर पिछड़े गांव में हुई थी जहां लोग शराब की लत के चलते गरीबी की गर्त में चले जाते हैं। इस हत्‍या की जांच हुई और हत्‍यारा पकड़ा गया। उसके बाल काटे गए, उसे खाने को अच्‍छा भोजन दिया गया, पादरी ने उसे अक्षर ज्ञान दिया और अंत में उसे गोली मार दी गई। लिटिन ने विशुद्ध डॉक्युमेंट्री की शैली का प्रयोग करते हुए उस व्‍यवस्‍था को उद्घाटित किया जो बाकायदा एक दृढ़ नीति के तहत ‘जैकाल’ जैसे लोगों को पैदा करती है, जिन्‍हें शारीरिक रूप से मजबूत और भावनात्‍मक रूप से संतुलित मनुष्‍य बनने के बुनियादी अवसरों से वंचित किया जाता है। आज पलट कर इस फिल्‍म को देखने पर समझ में आता है कि यह ऐसे तमाम इशारों से भरी पड़ी थी जो बता रहे थे कि आने वाले समय में लिटिन एक ऐसे बागी के रूप में विकसित होंगे जिसकी कीमत भी उन्‍हें चुकानी पड़ेगी।

शहीद राष्ट्रपति सल्वादोर अलेन्दे

शहीद राष्‍ट्रपति सल्‍वादोर अलेन्‍दे

पहली ही फिल्‍म की व्‍यावसायिक कामयाबी और लोकप्रियता ने रूढि़वादियों और समाजवादियों के बीच परंपरागत टकरावों को और तीखा करने का काम किया। रूढि़वादियों को सेना का समर्थन हासिल था जबकि समाजवादियों की ताकत के पीछे कामगार तबका और छात्र समुदाय था। फिल्‍म ने कैथोलिक चर्च की मूकदर्शक वाली भूमिका को भी चुनौती दी थी, जो फिल्‍म के केंद्रीय किरदार जैकाल जैसे लोगों के प्रति व्‍यवस्‍था की उपेक्षा के प्रति उदासीन बना रहता है। वह दौर चिली में तीखे टकरावों का था। बदलावकारी ताकतें उस वक्‍त रूढ़ परंपराओं के पैरोकारों के साथ संघर्ष में थीं। इस टकराव का लाभ उठाकर अमेरिकी और यूरोपीय व्‍यावसायिक हितों का समर्थक एक ताकतवर देसी दलाल समूह देश की कुदरती संपदा को लूटने में जुटा हुआ था। इस लूट ने देश के खजाने को बहुत नुकसान पहुंचाया, लेकिन उससे कहीं ज्‍यादा इसने समाज को बहुत गहरे स्‍तर पर आध्‍यात्मिक रूप से दिवालिया बना डाला था। शहीद राष्‍ट्रपति सल्‍वादोर अलेन्‍दे का नाम इतिहास के पन्‍नों में इसीलिए दर्ज हुआ क्‍योंकि उन्‍होंने इस संकट को दुरुस्‍त करने की कोशिश की। इसकी उन्‍हें और उनके समर्थकों को क्‍या कीमत चुकानी पड़ी, यह भी अब इतिहास में दर्ज है।

लिटिन 1970 में चिलियन टीवी के लिए निर्देशक का काम कर रहे थे, जब अलेन्‍दे की पॉपुलर यूनिटी गवर्नमेन्‍ट ने उन्‍हें राष्‍ट्रीय फिन्‍म निर्माण कंपनी चिली फिल्‍म्‍स का प्रमुख नियुक्‍त किया था। लिटिन ने 1971 में अलेन्‍दे पर एक लघु फिल्‍म बनाई। यह फिल्‍म इसलिए बनाई गई थी ताकि बहुराष्‍ट्रीय कंपनियों- खासकर कॉपर उद्योग में काम कर रही बहुराष्‍ट्रीय कंपनियों और फौज, सरकार, नौकरशाही, मीडिया और देसी कारोबारों में बैठे उनके पिट्ठुओं- की अमानवीयता के खिलाफ अलेन्‍दे के उच्‍च आदर्शों का प्रसार किया जा सके।

अलेन्दे पर बनी इस फिल्‍म के साल भर बाद द प्रॉमिस्‍ड लैंड नाम की फिल्‍म आई। इसे प्रतिष्ठित सादूल पुरस्‍कार प्राप्‍त हुआ, जिसका नाम महान फ्रेंच आलोचक और फिल्‍म इतिहासकार के नाम पर रखा गया है। लिटिन की कामयाबी के बढ़ते हुए ग्राफ पर हालांकि अचानक ही रोक लग गई उस घटना से, जो आधुनिक चिली के इतिहास में सबसे त्रासद मानी जाती है।

अमेरिकी खुफिया एजेंसी सीआइए द्वारा 1973 में रचे गए तख्‍तापलट के दौरान अलेन्‍दे की हत्‍या के बाद लोकप्रिय ढंग से निर्वाचित सरकार गिरा दी गई और लिटिन को सेना से अपनी जान बचाने के लिए म‍ेक्सिको और वहां से स्‍पेन भागना पड़ा। कई साल लग गए देश वापस लौटने में, जिस दौरान बाहर रह कर उन्‍होंने तीन फिल्‍में बनाईं। इनमें एक फिल्‍म ला विउदा मोंतिएल गाब्रिएल गार्सिया मार्केज की लिखी कहानी पर आधारित थी। लिटिन को मार्केज के साथ मिलकर चिली के तख्‍तापलट और उसमें मारे गए दो अमर नायकों अलेन्‍दे और कवि पाब्‍लो नेरूदा पर एक किताब लिखनी थी। अलेन्‍दे ने सत्‍य के साथ जो प्रयोग किए थे, उनमें नेरूदा की कुछ कविताओं की चेतना भी शामिल थी।

अलेन्‍दे के मरने के बाद नेरूदा बहुत दिन नहीं टिके। अलेन्‍दे को इस्‍तीफा देने से इनकार करने पर 13 गोलियां मारी गई थीं। उनकी हत्‍या के ठीक 12 दिन बाद नेरूदा सान्टियागो में गुजर गए। वे ल्‍यूकीमिया से ग्रस्‍त थे लेकिन डॉक्‍टरों के मुताबिक वे कुछ दिन और जी सकते थे। राष्‍ट्रपति की हत्‍या और तख्‍तापलट की खबर सुनकर उनकी हालत तेजी से खराब हो गई। तानाशाह पिनोशे की सेना ने नेरूदा के सान्टियागो और वाल्‍परेसो स्थित मकानों पर हमला कर के उनकी किताबों और पांडुलिपियों को सबकी आंखों के सामने आग में झोंक दिया था।

किताब बाद में आई, क्‍लैंडेस्‍टाइन इन चिली के नाम से, जिसमें तख्‍तापलट के घटनाक्रम के अलावा उसके बाद देश और लोगों के साथ गुजरे वक्‍त के ब्‍योरे शामिल हैं। मार्केज की लिखी इस पतली लेकिन विलक्षण पुस्‍तक में लिटिन के उन्‍हें सुनाए अनुभवों और स्‍मृतियों के उदास ब्‍योरे दर्ज हैं। लिटिन फौजी जनरलों के हाथों मरने से बाल-बाल बचे थे। उनके कई दोस्‍त और सहयोगी उनके जितना खुशकिस्‍मत नहीं रहे।

कुछ साल बाद लिटिन उरूग्‍वे के एक रईस कारोबारी की पहचान ओढ़कर चुपचाप अपने देश का दौरा करने आए। उस वक्‍त भी फौजी तानाशाही कायम थी। तब उन्‍होंने पाया था कि किसान से लेकर कामगार और गृहिणी से लेकर दार्शनिक तक चिली की जनता के दिल में दो नाम हमेशा के लिए अंकित हो चुके हैं- अलेन्‍दे और नेरूदा- जो मर के भी अमर हो गए। लिटिन एक औरत को कोने में लेकर गए ताकि उनकी बातें कोई और न सुन ले। उन्‍होंने धीरे से उससे पूछा कि क्‍या वह अलेन्‍दे की अनुयायी या समर्थक थी। उसने जवाब दिया, ‘थी नहीं, हूं’। उसने अपने घर में लगी मरियम की तस्‍वीर हटाई, तो उसके पीछे अलेन्‍दे की तस्‍वीर लगी मिली।

इस पुस्‍तक में ऐसी ही कई किंवदंतियां और किस्‍से हैं जो इस बात को साबित करते हैं कि अलेन्‍दे के विचारों और व्‍यक्तित्‍व को पिनोशे और उसकी तानाशाही ने मजबूत करने का ही काम किया। लिटिन इस्‍ला नेग्रा में नेरूदा के घर भी गए थे। फौज ने उसे सील कर के बंद कर दिया था। लिटिन ने पाया कि सेना की पाबंदियों के बावजूद कवि का घर प्रेम में डूबी पीढि़यों के लिए एक तीर्थ बन चुका था। घर को ढंके हुए पल्‍लों और लकड़ी के तख्‍तों पर प्रेम और आभार से भरे हजारों संदेश और दस्‍तखत दर्ज थे। इतने, कि जगह कम होने के चलते ये एक दूसरे पर चढ़े हुए थे। आभार भरे इन तमाम संदेशों का मर्म केवल इस एक संदेश से समझा जा सकता है:

युवान और रोजा का प्रेम पाब्‍लो को समर्पित... शुक्रिया पाब्‍लो, कि तुमने हमें प्रेम करना सिखाया। हम उतना ही प्रेम करना चाहते हैं जितना तुमने किया... जनरलों, प्रेम कभी नहीं मरता, अलेन्‍दे और नेरूदा आज भी जिंदा हैं। मिनट भर का अंधेरा हमें अंधा नहीं बना सकता...

(लेखक कोलकाता स्थित पुरस्कार प्राप्त फिल्म समालोचक और लेखक हैं)

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