अपनी प्रिय पत्रिका हरिजन के 18 मार्च 1933 के अंक में गांधी ने लिखा था, ‘‘यद्यपि मेरे हृदय और विवेक ने बहुत पहले ही यह मान लिया था कि ईश्वर का सर्वोच्च गुण और नाम ‘सत्य’ है, मैं सत्य को राम के नाम से पहचानता हूं। मेरी परीक्षा की कठिन से कठिन घड़ी में इसी नाम ने मेरी रक्षा की है और आज भी कर रहा है।’’ वे फिर 17 अगस्त 1934 के अंक में लिखते हैं, ‘‘बचपन में मेरी नौकरानी ने मुझे सिखाया था कि जब भी मुझे डर लगे या कोई कष्ट हो, तो राम नाम जपना शुरू करूं। बढ़ते ज्ञान और उम्र के बावजूद वह आज भी मेरे स्वभाव का अंग बना हुआ है। अगर वह नाम हर समय मेरे होठों पर नहीं रहता तो मेरे हृदय में चौबीसों घंटे रहता ही है। वह मेरा उद्धारक है, मेरा अवलंब है।’’
यही गांधी हरिजन के 24 अप्रैल 1946 के अंक में लिखते हैं, ‘‘मेरा राम, मेरी प्रार्थनाओं का राम वह ऐतिहासिक राम नहीं है जो अयोध्या नरेश दशरथ के पुत्र थे। मेरा राम अजन्मा, शाश्वत और अद्वितीय राम है। मैं केवल उसकी ही आराधना करता हूं। मैं केवल उसका अवलंब चाहता हूं और आपको भी वही करना चाहिए। वह सबके लिए बराबर है। इसलिए मैं यह नहीं समझ पाता कि मुसलमान या कोई और धर्मावलंबी उसका नाम लेने से आपत्ति कैसे कर सकता है। हां, वह ईश्वर को एकमात्र राम नाम से ही पहचानने के लिए बाध्य नहीं है। वह उसे अल्लाह या ध्वनि के सामंजस्य को बनाए रखने के लिए खुदा कह सकता है।’’ आगे, ‘‘मेरे लिए दशरथ पुत्र सीतापति राम सर्वशक्तिमान तत्व हैं जिसका नाम हृदय में धारण करने से मानसिक, भौतिक और नैतिक व्याधियां दूर हो जाती हैं। (हरिजन, 21 जून 1946)
कोई चाहे तो गांधी के चिंतन और कर्मों से राम की ही नहीं, रामराज्य की भी ऐसी ही साफ और बेलाग तस्वीर निकाल सकता है। तभी समझ आएगा कि गांधी निरंतर पांच दशक से ज्यादा समय तक जिस राम के नाम पर राम-राज्य को हासिल करना चाहते थे वह असल में क्या था। उनका साफ कहना था कि ‘‘मेरे सपने के रामराज्य में राजा और रंक, दोनों के अधिकार समान होते हैं।’’ वे यह भी कहते हैं कि ‘‘रामराज्य से मेरा अभिप्राय हिंदू राज से नहीं है। रामराज्य से मेरा अभिप्राय दैवीय राज्य अर्थात ईश्वर का शासन है। मेरी दृष्टि में राम और रहीम एक ही हैं। मैं केवल एक ईश्वर को जानता हूं और वह है सत्य और सदाचार का ईश्वर। मेरी कल्पना के राम कभी इस पृथ्वी पर रहे हों या न रहे हों रामराज्य का आदर्श निस्संदेह एक सच्चा लोकतंत्र है, जिसमें छोटे से छोटा नागरिक भी लंबी चौड़ी और महंगी प्रक्रिया के बिना शीघ्र न्याय पा सकता है। कवि के वर्णन के अनुसार रामराज्य में कुत्ते तक को न्याय मिला था।’’ (यंग इंडिया, 4 सितंबर 1929)
ये विषय गांधी के प्रिय थे इसलिए वे बार-बार इसकी चर्चा करते है, बड़े मन से करते हैं। उनका दौर भी, खास तौर से आजादी के आसपास और उनके जीवन के आखिरी वर्ष डरावने हिंदू-मुसलमान क्लेश वाले रहे और इसे संभालने में महात्मा की जान भी गई। इसलिए हम उनकी बहुत सारी टिप्पणियों और व्याख्यानों/प्रार्थना के बाद के प्रवचनों में यह प्रसंग पाते हैं। इसलिए आज राम के नाम पर जितना कुछ और जैसा कुछ हुआ है उसकी चर्चा के साथ गांधी को जोड़ना एक तरह का गुनाह भी है। गांधी यह साफ करते हैं कि रामराज्य की चाह करने वाले के लिए अपना पैमाना क्या होगा। वे हरिजन के ही 26 अक्टूबर 1947 के अंक में लिखते हैं, ‘‘यदि आप रामराज्य के रूप में ईश्वर का दर्शन करना चाहते हैं, तो पहले आपको आत्मनिरीक्षण करना होगा। आपको अपने सारे दोषों को हजार गुना बढ़ाकर देखना होगा और अपने पड़ोसी के दोषों से आंख मूंदना होगा।’’
ज्यादा व्यावहारिक तरीका अंधश्रद्धा की जगह विवेक को, करुणा को ऊपर रखने का है। गांधी दो तत्वों के सर्वाधिक संतुलित मिश्रण का उदाहरण थे- करुणा और विवेक। करुणा के मामले में उनको बुद्ध का अवतार ही मानना चाहिए और यह चीज उनको दुनिया के दूसरे महापुरुषों से अलग कर बुद्ध से जोड़ती है। उनकी करुणा भीख, दान और चंदे तक सीमित होकर व्यक्तिगत अहं को संतुष्ट करने वाली न होकर बड़े सामाजिक काम करने वाली और अन्याय को दूर करने का जतन कराने वाली थी। इसके दायरे में सारी मानवता ही नहीं बल्कि जीव-जंतु और पूरी प्रकृति आ जाती थी। इसी के चलते हम गांधी को पश्चिम विकास के मॉडल (जिसे वे दानवी मानते थे) के समांतर एक नया मॉडल देते दिखते हैं जिसमें स्थानीयता, विकेन्द्रीकरण, जैविक विविधता और प्रकृति से मेल वाले जीवन को प्राथमिकता है। इसमें किसी किस्म के भेदभाव की जगह नहीं है और न ही किसी किस्म के कष्ट की।
विवेक को वे सबसे ऊपर रखते थे। कई बार वे विवेक को भी सत्य कहते थे। हम जानते हैं कि वे सत्य को ही ईश्वर मानते थे और इसके आगे किसी की नहीं सुनते थे। यह कुछ अजीब लगता है कि सारी प्रकृति को परस्पर जुड़ा और हमें प्रकृति के नियमों का पालन करने की सीख देने वाले गांधी की करुणा दो-तीन जगहों पर आकर जवाब दे जाती है। वे बंदरों के पक्ष में कभी नहीं दिखते और किसानों की फसल बर्बाद होने पर बन्दरों को मारने की वकालत भी करते हैं। उनको मक्खी और मच्छरों के प्रति भी लगातार नाराजगी रही। उनसे वे नरम व्यवहार की वकालत नहीं करते। खैर।
गांधी बचपन में भूत और सांप से भी काफी डरते थे, बल्कि रात में पेशाब करने के लिए उठने पर कस्तूर बा को साथ जरूर ले लेते थे, जिनको कम डर लगता था। आगे चलकर गांधी जब निडर बने, तो भूत का डर तो जाने कहां गया लेकिन सांप का डर खत्म होते सबने देखा। गांधी के दक्षिण अफ्रीका वाले आश्रम को भी जंगल साफ कर जमीन पर बसाया गया था। वहां सांप भी आते थे। भारत के दोनों आश्रम और भी मुश्किल जगह पर बने थे। साबरमती आश्रम तो जेल और श्मशान के बीच बसा है। सबसे ज्यादा सांप सेवाग्राम में निकलते थे। वहां बिच्छू भी निकलते थे। गांधी का मानना था कि हमने सांपों के जीवन में दखल दिया है। इसलिए वे सांपों को मारने नहीं देते थे। यह आश्चर्य की बात है कि गांधी के आश्रम में सांप निकलने की सैकड़ों घटनाएं हुईं। एकाध बार सांप काटने की भी हुई, लेकिन किसी की जान नहीं गई।
गांधी जी का कहना था कि अगर सांप हमसे डरें नहीं और हम उसे घायल न करें तो वह हमें अकारण नहीं काटता है। सांप की उपयोगिता फसल की रखवाली से लेकर कई तरह से प्रकृति की रक्षा में है। यह सबने देखा कि एक बार शाम की प्रार्थना के समय एक सांप रेंगते हुए गांधी के शरीर पर चढ़ गया। गांधी बिना हिले-डुले शांत बैठे रहे। उनके चेहरे पर डर का कोई भाव न था। थोड़ी देर ठहरने के बाद सांप गांधी के शरीर से उतर गया और झाड़ियों में चला गया। सेवाग्राम जाने पर अब भी गांधी की कुटिया में लकड़ी से बनी एक बड़ी संड़सी और एक बक्सा रखा हुआ है। जब भी सांप दिखता, उसे इसी संड़सी से पकड़कर बक्से में बंद कर दिया जाता था और बाद में जंगल में छोड़ दिया जाता था।
अहमदाबाद में प्लेग के बाद जब कुत्तों की आबादी बहुत बढ़ गई और आदमियों को कुत्ते काटने की घटनाएं बढ़ने लगीं, तो नगरपालिका को कुत्तों को मारने के लिए हां कहने में देर न लगी। तब अंबालाल साराभाई नगरपालिका के प्रमुख थे और खुजैले कुत्तों के आतंक की खबरों से परेशान थे। नगर के काफी लोग जीव हत्या को पाप मानकर उनको कुत्तों को न मारने का दबाव बना रहे थे। आखिर में उन्होंने गांधी जी की राय ली और उनकी स्वीकृति मिलने के बाद कुत्तों को मरवा दिया। बहुत हंगामा मचा और लोगों ने गांधी की अहिंसा नीति को नकली बताना शुरू कर दिया। इस प्रसंग में गांधी पर भी दबाव आया, उनकी आलोचना भी हुई लेकिन गांधी अपने फैसले पर अडिग रहे। थोड़े दिन में शहर ने राहत की सांस ली और विरोध थम गया।
सबसे बड़ा बवाल आश्रम की गोशाला के एक बछड़े की बीमारी को लेकर किए गए गांधी के फैसले से हुआ। बछड़ा किसी भी प्रकार ठीक होने की स्थिति में न था। उसे भारी कष्ट था। उसकी सेवा-सुश्रुषा करने वालों में खुद गांधी भी थे, लेकिन जब सबको लगने लगा कि उसकी जान नहीं बच सकती तो डॉक्टर को बुलाया गया। वह भी सारी जांच के बाद इसी नतीजे पर पहुंचा। गांधी ने डॉक्टर से कहा कि बछड़े को मार्फिन की सुई दे दे। सुई लगाते वक्त गांधी ने बछड़े को पकड़े रहने में सहायता की और अपने शरीर पर पड़ा गमछा बछड़े के ऊपर डाल कर भारी मन से विदा हो गए। कुछ ही पल में बछड़े ने दम तोड़ दिया। इस मामले ने बहुत तूल पकड़ा क्योंकि यह गोवंश से जुड़ा मामला था। उन्हें पशु प्रेम और जीव दया की जगह खुद को हिंदू मानने वाली जमात के भारी विरोध का सामना करना पड़ा। आश्रम के सामने भी धरना प्रदर्शन चला। गांधी इस मसले पर जरा भी नरम नहीं पड़े। उनको अपने फैसले को लेकर किसी तरह का अफसोस जताने की जरूरत नहीं हुई।
(वरिष्ठ पत्रकार और गांधी पर कई किताबों के लेखक)