आज नारी सशक्तीकरण और सार्वजनिक जीवन में उसके प्रतिनिधित्व का खूब हल्ला है। यह अलग बात है कि आज भी यह दूर की कौड़ी है। आजादी के संघर्ष में महात्मा गांधी ने जिस पैमाने पर महिलाओं को सार्वजनिक जीवन में आगे बढ़ाया और सामाजिक-रचनात्मक कार्यों के लिए प्रेरित किया, उसकी मिसाल और कहीं शायद ही मिलती है। महात्मा ने 1925 में गुजरात के सोजित्र गांव में महिला सम्मेलन में कहा था, जब तक देश की स्त्रियां सार्वजनिक जीवन में भाग नहीं लेतीं, देश का उद्धार नहीं हो सकता। गांधी की प्रेरणा से सार्वजनिक जीवन में आईं महिलाओं में चर्चित नामों की संख्या ही हजारों में है। देश ही नहीं, यूरोप की कई महिलाएं भी गांधी की दीवानी बनीं और भारत को ही अपना सेवा- बना लिया। देश का तो शायद ही कोई इलाका अछूता हो, जहां से गांधी की महिला फौज नहीं उभरी। आजादी के बाद भी देश में संस्थाओं के निर्माण और राजनीति में आमजन को ऊपर रखने में उनका योगदान बेमिसाल है। इन नेत्रियों ने अन्याय के खिलाफ अपने व्यक्तिगत संबंधों की कभी परवाह नहीं की। ऐसी ही 74 महिला नेताओं के जीवन-संघर्ष के विरले किस्से अरविंद मोहन ने अपनी नई किताब बापू की महिला ब्रिगेड में जुटाई है। यहां कुछेक चुनिंदा नेताओं के किस्से हैं, जो गांधी की प्रेरणा की व्यापकता को दर्शाते हैं।
बीबी अमतुस्सलाम
पटियाला के जमींदार परिवार में जन्मी बीबी अमतुस्सलाम को गांधी बेटी मानते थे। घोर निराशा के वक्त बापू उन्हें सांत्वना देते हैं- “न तुम मुसलमान हो, न मैं हिंदू। तुम अमतुस्सलाम हो और मैं गांधी। हम दोनों की आत्मा एक है।” गांधी और अमतुस्सलाम का ‘झगड़ा’ चलता रहता था। वह कहा करती थीं- “मैं आई थी मेहमान बनकर, पर बन गई गुलाम।” एक बार सीमा प्रांत के दौरे के समय बीबी ने गांधी को तय मात्रा से ज्यादा अंगूर का रस दे दिया। गांधी ने उनके द्वारा लाई रोटी फेंक दी और डांट लगाई। हफ्ते भर तक दोनों की बोलचाल बंद रही। आखिर में गांधी ने लिखा, “मैं बच्चा था, तो मां-बाप की हर बात मानता था। तू ऐसी बेटी है कि बिना दलील कुछ मानती ही नहीं।”
अमतुस्सलाम की औपचारिक तालीम नहीं हुई थी क्योंकि परिवार लड़कियों के लिए परदा प्रथा का हिमायती था, लेकिन राजपुरा के ननिहाल और उनके परिवार के लोगों पर कांग्रेसी रंग चढ़ने लगा था, खासकर बड़े भाई राशिद खान पर। उनसे ही अमतुस ने गांधी के किस्से सुने थे। तब के चलन के अनुसार भाई ने कम उम्र में उनकी शादी न होने दी। बी अक्वमा खिलाफत के दिनों में उनके घर आई थीं। उनका भाषण और खादी प्रेम देखकर अमतुस भी बुर्के में अंबाला बाजार में खादी बेचती थीं। बाद में वे सेवाग्राम आश्रम पहुंचीं। कुछ समय खान अब्दुल गफ्फार खान के निजी सहायक के तौर पर उनके साथ रहीं। अमतुस सोलह साल आश्रम में रहीं।
गांधी अपने आखिरी ‘रण’ नोआखाली में उन्हें साथ ले गए। वहां गांधी ने अपने हर सहयोगी को एक-एक गांव में शांति स्थापित करने का जिम्मा दिया। अमतुस्सलाम जिस शिरंडी गांव में थीं, वहां दंगाइयों ने दुर्गा की तलवारें चुरा ली थीं। समझाने-बुझाने पर भी जब तलवारें नहीं मिलीं तो उन्होंने उपवास शुरू कर दिया। दो तलवारें तो मिल गईं लेकिन तीसरी नहीं मिली। उन्होंने उपवास जारी रखा। आखिर 21 दिन बाद दंगाइयों ने तीसरी तलवार भी लौटा दी और माफी मांगी। तब कहीं जाकर उनका उपवास खत्म हुआ। बाद में गांधी ने कहा कि नोआखाली में जो भी थोड़ी-बहुत शांति कायम हुई वह उनकी वजह से हुई है।
अमतुस्सलाम ने राजपुरा में बहावलपुर से उजड़कर आए शरणार्थियों की पुनर्वास कॉलोनी बसाई और वहां कस्तूरबा सेवा मंदिर बनाकर खादी, शिक्षा और दूसरे तरह के रचनात्मक कार्यक्रम चलाती रहीं। 1962 और 1965 की लड़ाई के दौरान वह सैनिकों की मदद और हौसला बढ़ाने के लिए बेटे को साथ लेकर सीमा पर भी गईं। सक्रिय राजनीति में आने के उन्हें कई न्यौते मिले लेकिन उनकी उसमें रुचि न थी। दिसंबर 1985 में उन्होंने आखिरी सांस ली।
लक्ष्मी
गांधी लक्ष्मी को अपनी पहली “बॉर्न चाइल्ड” कहते थे, हालांकि उनका जिक्र कम मिलता है। कुछ लोगों के प्रयास से थोड़ी जानकारियां आई हैं, जिनमें ब्लॉगर नंदिनी ओझा प्रमुख हैं। जेम्स टाकरी के जरिये नेशनल म्यूजियम में रखी गांधी के साथ लक्ष्मी की बचपन की तस्वीर और एक इंटरव्यू भी मिला है। यह इंटरव्यू 20 अक्टूबर 1968 को टाइम्स ऑफ इंडिया, बंबई में छपा था। आउटलुक ने भी गांधी की पचासवीं बरसी पर विशेष अंक में लक्ष्मी पर कुछ सामग्री दी थी। लक्ष्मी की कहानी दलितों से गांधी के आत्मीय रिश्ते की सबसे पहली और मजबूत कड़ी है।
गांधी ने दक्षिण अफ्रीका से लौटने के बाद एक आश्रम बनाया था। गांधी को मालूम था कि उनके परिवार और आश्रमों में (टॉलस्टॉय फार्म और फीनिक्स फार्म) रहने वाले भी छुआछूत मानते हैं। इसलिए गांधी ने बंबई नगर निगम के सफाई कर्मचारियों के बीच सक्रिय अपने सहयोगी ठक्कर बापा से इच्छा जाहिर की कि आश्रम में कोई अछूत परिवार भी रहे।
कुछ दिन बाद एक दलित अध्यापक दूधाभाई अपनी पत्नी दानी बहन और नन्ही बेटी लक्ष्मी को लेकर आश्रम पहुंचे। दूधाभाई के आश्रम के कुएं से पानी भरने को लेकर विरोध हुआ और उसमें कस्तूरबा, भतीजों की बहुएं और गांधी की बड़ी विधवा बहन भी शामिल थीं। गांधी ने किसी तरह का समझौता करने से मना किया और जब बहन अड़ी रहीं, तो उन्हें आश्रम से बाहर कर दिया गया। बा और बहुएं झुकीं और बाद में लक्ष्मी के साथ इस परिवार को भी अपना लिया।
1942 तक लक्ष्मी के जिम्मे दो छोटे बच्चों की देखभाल आ गई थी, सो गांधी ने भारत छोड़ो का आह्वान करने के लिए बंबई जाने के पहले लक्ष्मी को अहमदाबाद भेज दिया। उन्होंने जब सुना कि बापू नोआखाली और बिहार से दिल्ली आ गए हैं, तो वह उनसे मिलने जाना चाहती थीं, मगर इसी बीच बापू की हत्या की खबर आ गई। 1984 में उनका स्वर्गवास हुआ।
कमलादेवी चट्टोपाध्याय
मंगलोर में 1903 में कमलादेवी के पिता कलक्टर थे। कमलादेवी के पिता की मौत जल्दी हो जाने और वसीयत न होने के कारण उनकी सारी संपत्ति सौतेले भाई को चली गई। 14 साल की उम्र में शादी हुई और दो साल के अंदर ही वह विधवा हो गईं। मां ने उन्हें पढ़ने के लिए विदेश भेज दिया। मद्रास में पढ़ते समय ही कमलादेवी की दोस्ती सरोजिनी नायडु की छोटी बहन सुहासिनी से हो गई थी। उन्होंने ही उनका परिचय अपने भाई हरेंद्रनाथ चट्टोपाध्याय से कराया था। ‘चट्टो’ नाम से विख्यात हरेंद्रनाथ के निवास भारत से पढ़ने आए छात्रों और क्रांतिकारियों का अड्डा था। जल्दी ही दोनों ने शादी का फैसला कर लिया।
कमलादेवी ने नाटकों में काम करने के साथ-साथ कुछ फिल्मों में भी काम किया। तानसेन में के.एल. सहगल उनके नायक थे। कमलादेवी की हरेंद्रनाथ से नहीं निभी। एक बेटा होने के बाद बारह वर्ष का यह विवाह टूट गया। 1923 में उनका गांधी से संपर्क हुआ और 1927 में वह कांग्रेस की सदस्य बनीं। 1926 में उनकी भेंट मार्गरेट कजिंस से हुई जिनके साथ ऑल इंडिया महिला कॉन्फ्रेंस में काम करने की शुरुआत हुई।
कमलादेवी को अपने अनुभवों, समाज में औरत की स्थिति, संपत्ति के अधिकार से वंचना के चलते हुई मुश्किलों ने नारीवादी बनाया था। लोग उन्हें सही मायने में भारत की पहली नारीवादी मानते हैं। उनके विचार में महिलाओं द्वारा महिलाओं के लिए संस्थाओं का संचालन भी था और इसी सोच से दिल्ली में होम साइंसेज की पढ़ाई के लिए लेडी इर्विन कॉलेज की स्थापना हुई। नागरिक अवज्ञा आंदोलन उनके राजनैतिक जीवन की पहली बड़ी घटना थी। वे चार बार गिरफ्तार हुईं और उन्होंने पांच साल जेल में बिताए। वे गांधी की प्रिय थीं पर दांडी यात्रा में महिलाओं को शामिल न करने के फैसले से वह गांधी जी से लड़ी भी थीं।
कुछ समय वे समाजवादी पार्टी में रहीं, लेकिन उसके बाद राजनैतिक गतिविधियों से मुंह मोड़ लिया। उन्होंने अपना ध्यान हस्तशिल्प, करघा, कला, लेखन, नाटक और फिल्म के क्षेत्र में लगाया। देश के अलग-अलग इलाकों में अनेक शिल्प म्यूजियम बनवाए। उन्होंने कला, शिल्प, अंतरराष्ट्रीय संबंध, पारंपरिक नृत्य, भारतीय महिलाओं के उभार समेत अनेक विषयों पर करीब बीस किताबें लिखने के साथ अपनी आत्मकथा भी लिखी। कमलादेवी ने दिल्ली में भारतीय नाट्य विद्यालय और संगीत नाटक अकादमी बनवाने में प्रमुख भूमिका निभाई। वह यूनेस्को की सदस्य और संगीत नाटक आकादमी की रत्न सदस्य रहीं। उनको पद्म भूषण, पद्मविभूषण के साथ मैगसेसे पुरस्कार भी मिला। 1990 में उनका निधन हुआ।
नौरोजी बहनें
यह दादाभाई नौरोजी के परिवार की चार लड़कियों की कहानी है, जिन्हें हम अपने राष्ट्रीय आंदोलन के शुरुआती पुरखों के तौर पर याद करते हैं। उनके पुत्र अरदेशीर नौरोजी ज्यादा दिन जीवित नहीं रहे, लेकिन परिवार प्रसिद्ध व्यापारी और समाज सुधारक बेहरामजी मालाबारी और एलफिंस्टन कॉलेज के अध्यापक मनचेरी मेरवानजी दनीरा की निगरानी और प्रभाव में रहा। नौरोजी परिवार के कई बच्चों की शादी दनीरा परिवार में हुई। अरदेशीर के आठ बच्चे थे, जिसमें सबसे छोटी खुर्शीद तो मां के गर्भ में ही थी जब पिता की मौत हो गई, लेकिन खुर्शीद समेत नौरोजी परिवार की चारों लड़कियों ने आजादी की लड़ाई और गांधी के नेतृत्व में ऐसे काम किए कि किसी को नौरोजी नाम का महत्व समझने में दिक्कत नहीं हुई। खुर्शीद तब छोटी ही थीं जब सबसे बड़ी बहन पेरिन ने राजनैतिक गतिविधियों में हिस्सा लेना शुरू कर दिया और दूसरी बहन गोसी को भी अपने साथ शामिल कर लिया। पेरिन पहले क्रांतिकारियों के प्रभाव में थीं। फिर वह मैडम भीकाजी कामा के संपर्क में आईं। उन पर जब गांधी का रंग चढ़ा, तो फिर उतरा ही नहीं। सबसे छोटी खुर्शीद तब फ्रांस में पढ़ रही थीं और एक नामी संगीत बैंड में अच्छा स्थान बना चुकी थीं, लेकिन बाद में उन्होंने संगीत छोड़कर गांधी के आदेश पर वहां से लौटकर ऐसे काम किए कि खुद गांधी ही नहीं अंग्रेजी हुकूमत खुद हैरान रह जाती थी। सिविल नाफरमानी आंदोलन में दोनों बहनों की तीन बार गिरफ्तारी हुई। पेरिन और गोसी ने कई गांधीवादी संस्थाओं के निर्माण और संचालन में महत्वपूर्ण भूमिका निभाई। पेरिन बहन 1921 में बनी राष्ट्रीय स्त्री सभा के संस्थापक सदस्यों में से एक थीं। वह 1930 में बनी कांग्रेस बार काउंसिल की पहली अध्यक्ष थीं। चौथी नौरोजी बहन थीं, नरगिस। उन्होंने बंबई के नाना चौक के पास खादी की दुकान खोली और उसमें ही लगी रहीं।
मार्जरी साइक्स
गांधी और उनके काम, विचार और कार्यक्रमों के प्रति पक्की निष्ठा और समर्पण देखना हो, तो उन यूरोपीय महिलाओं को देखना चाहिए जो जीवन भर के लिए गांधी के रंग में रंग गईं और भारत को अपना सब कुछ बना लिया। जब भी ऐसी महिलाओं की सूची बनेगी, तब मैडेलीन स्लेड अर्थात मीरा बहन का नाम सबसे पहले आएगा। काम के मामले में अगर कोई गोरी महिला मीरा बहन को टक्कर दे सकती है तो वह थीं मार्जरी साइक्स। वह इसे अपना दुर्भाग्य मानती थीं कि उनको बापू के साथ ज्यादा समय काम करने का अवसर नहीं मिला। जिस दौर में गांधीवाद हिंदुस्तान में भी कमजोर पड़ता जा रहा था, उस समय भी वह अपनी पूरी क्षमता से गांधी के काम में जुटी रहीं। जब वे इंग्लैंड में पढ़ा रही थीं तब कैंब्रिज के हिंदुस्तानी छात्रों से उन्हें गांधी के बारे में मालूम हुआ। 1928 में वे मद्रास के बेंटिक स्कूल से जुड़ीं और राजगोपालाचारी के संपर्क में आईं। 1938 में कविगुरु रवींद्रनाथ टैगोर उन्हें शांति निकेतन ले गए और चार्ल्स एंड्रयूज चेयर प्रदान की। गांधी के सीधे संपर्क में वह देर से आईं और 1945 में सेवाग्राम के बुनियादी शिक्षक प्रशिक्षण विद्यालय से जुड़ीं, जहां लंबे समय तक प्रिंसिपल रहीं। 1960 के दशक में नगा समस्या सुलझाने की बातचीत में उन्होंने प्रमुख भूमिका निभाई। बाद में मध्य प्रदेश के आदिवासी गांव रसुलिया में रहीं और बच्चों को पढ़ाने से लेकर ग्राम विकास का काम करती रहीं- उस दौर में उन्होंने खूब लिखा। नई तालीम से लेकर एंड्रयूज और टैगोर के संचयन तक। उन्होंने महाभारत की कहानियों का संग्रह भी प्रकाशित किया। राष्ट्रीय पुस्तक न्यास ने भी उनसे एंड्रयूज के लेखन का संग्रह संपादित कराया। जीवन के आखिरी समय में वे इंग्लैंड लौट गईं जहां 1995 में उनका निधन हुआ।
मातंगिनी हाजरा
दिल्ली के सरदार पटेल मार्ग के तिराहे और प्रेसिडेंशियल एस्टेट की चारदीवारी से लगी नमक सत्याग्रह से जुड़ी प्रभावशाली कलाकृति ‘ग्यारह मूर्ति’ नाम से विख्यात है। लाठी लिए आगे चल रहे गांधी और दूसरे क्रम पर एक बूढ़ी महिला की मूर्ति को देखकर सभी चौंकते हैं। उसके बाद बाकी नौ लोग हैं, जिसमें एक मूर्ति सरोजिनी नायडू की भी है। इस बूढ़ी महिला के बारे में कम ही लोगों को जानकारी है। कलाकार ने गांधी की सबसे साहसिक अहिंसक यात्रा में जिसे ठीक गांधी के पीछे नंबर रखा है वह महिला है बंगाल की मातंगिनी हाजरा। आजादी की लड़ाई में वहां के सबसे सक्रिय जिले मिदनापुर की नेता मातंगिनी। गांधी और राष्ट्रीय आंदोलन उनकी प्रेरणा बना और वह आजीवन गांधी के सिद्धांतों पर चलती रहीं। वह गांधी के अलावा किसी और को नेता नहीं मानती थीं। श्रद्धा से लोग उन्हें ‘बूढ़ी गांधी’ कहते थे।
वह मिदनापुर के होगला गांव में सामान्य किसान परिवार में 1870 में पैदा हुई थीं। कम उम्र में उनकी शादी तामलुक के 62 वर्षीय विदुर से करा दी गई, जो शादी के कुछ साल बाद ही गुजर गए। तभी देश में बह रही राजनैतिक बयार और गांधी के विचारों और प्रेरणा ने उनको रास्ता दिखाया। पहली बार वह नमक सत्याग्रह के समय निकले जुलूस का हिस्सा बनीं। उनको गिरफ्तार कर लिया गया। उसके बाद वह तामलुक में चौकीदारी टैक्स के खिलाफ आंदोलन में गिरफ्तार हुईं। बंगाल के गवर्नर सर जॉन एंडरसन की सभा में काले झंडे दिखाने पर उनको सजा मिली। सिरामपुर की सभा में भाषण देते समय भी उन्हें गिरफ्तार कर लिया गया। उन्होंने खास तौर से खादी का काम शुरू किया और कराया, विदेशी वस्त्र तथा शराब की दुकानों पर धरने शुरू कराए।
गांधी जी ने 1942 में ‘करो या मरो’ का नारा दिया और सभी को अपना मालिक खुद बनने के साथ अंग्रेजों को बाहर करने का आदेश दिया। तब मिदनापुर कई दिनों तक आजाद रहा। इसमें ‘बूढ़ी गांधी’ का बड़ा योगदान था। 29 सितंबर 1942 को करीब छह हजार लोगों का जुलूस जब तामलुक थाने की तरफ बढ़ने लगा, तब मातंगिनी हाजरा हाथ में तिरंगा लिए सामने आईं। पुलिस ने गोली चला दी। तीन गोली लगने के बाद भी मातंगिनी ने झंडा नहीं गिरने दिया।
महादेवी वर्मा
हिंदी की शीर्षस्थ कवि और लगभग सभी प्रमुख साहित्यिक पुरस्कार प्राप्त महादेवी वर्मा का नाम गांधी और लोहिया या राष्ट्रीय आंदोलन से भी प्रमुखता से जुड़ा है। महादेवी जी का गहरा जुड़ाव गांधी गांधी मूल्यों और राष्ट्रीय आंदोलन के साथ था। उनके काव्य और गद्यलेखन के साथ स्त्री विषयक ‘श्रृंखला की कड़ियां’ के आलेखों को सिमोन द बुआ की किताब ‘द सेकेंड सेक्स’ से पहले का और उससे ज्यादा दमदार माना जाने लगा है। उनके अपने जीवन के संघर्ष को शामिल कर लें तो महादेवी देश के महिलावादी आंदोलन की ‘आदि महिला’ लगने लगती हैं। उन्होंने न सिर्फ बाल विवाह नकारा बल्कि सार्वजनिक तौर पर अंग्रेजी में व्यवहार न करने के संकल्प के साथ आजादी के आंदोलनकारियों की मदद का संकल्प जीवन भर निभाया।
उनका सबसे गहरा रिश्ता गांधी से ही था, जिन्होंने बचपन में ही उनसे पुरस्कार में मिला चांदी का कप ‘ठग’ लिया था। महादेवी ने पुरस्कृत कविता सुनने की शर्त पर गांधी को यह कप हरिजन कोष में देना स्वीकार किया था, लेकिन गांधी ने कप ले लिया और कविता फिर कभी सुनने का वादा कर दिया। ठगी सी महादेवी पर इसका भी रंग चढ़ा- जीवन भर खादी पहना, एक पाड़ वाली साड़ी पहनना, स्त्री शिक्षा के लिए काम करना और आंदोलनकारियों के डाक केंद्र बनना।
1907 में फर्रुखाबाद के समृद्ध परिवार में जन्मी महादेवी की काव्य प्रतिभा बचपन से दिखने लगी थी। पिता स्वरूप नारायण वर्मा ने इसे प्रोत्साहित किया। पिता अंग्रेजी के प्रोफेसर थे। युग के चलन के हिसाब से उनकी शादी भी बहुत कम उम्र में हो गई थी, लेकिन महादेवी ने गौने पर पति के घर जाने से इनकार कर किया। उस जमाने में यह बड़ा कदम था।
महादेवी ने क्रांतिकारी पत्रिका ‘चांद’ का संपादन किया और बड़ी मात्रा में गुप्त परचे छपवाए-बंटवाए। उनकी दिलचस्पी बौद्ध दर्शन में भी थी। कहा जाता है कि वह बौद्ध धर्म की दीक्षा लेने गई भी थीं, लेकिन जब दीक्षा देने वाले ने स्त्री को देखने से बचने के लिए पत्ते की ओट लेकर दीक्षा देना शुरू किया तो महादेवी आसन से उठकर आ गईं। उनको स्त्री जाति का यह अपमान बर्दाश्त नहीं हुआ।
एम.एस.सुब्बुलक्ष्मी
गांधी का संगीत से गहरा लगाव था। अपने समकालीन संगीतकारों में लगभग सबसे उनका संबंध था। आश्रम के भजन और ‘वैष्णव जन’ तथा ‘रघुपति राघव’ की स्वर रचना उन्होंने अपने समय के दिग्गज वी.डी. पलुस्कर साहब से कराई थी। उनके साथी मोरेश्वर खरे तो गांधी के साथ ही रहे और संगीत ही सिखाते थे, लेकिन संगीत जगत में उनका सबसे गहरा नाता शायद मदुरै षण्मुखवादिवु सुब्बुलक्ष्मी यानी एमएस सुब्बुलक्ष्मी से था। यह नाता सिर्फ भजन सुनने या संगीत सुनने भर का नहीं था। सुब्बुलक्ष्मी ने आजीवन गांधी को पिता समान मानकर उनके कहे अनुसार आचरण किया। उन्होंने निजी तौर पर गांधी के आंदोलन को आर्थिक मदद की, नैतिक समर्थन दिया। उनके पति दो दफा जेल गए। आज भी उनके गाए गीतों, भजनों और मंत्रों की भारी रॉयल्टी गांधी के कामों से जुड़ी संस्थाओं को जाती है। देवदासी परिवार में जन्मी सुब्बुलक्ष्मी ने नैसर्गिक प्रतिभा को बड़े जतन से संवारा और पूरा जीवन संगीत को समर्पित कर दिया। उनके पति ने हर काम में उनका साथ दिया। उनके लिए फिल्में बनाईं। एक फिल्म में तो एमएस ने पुरुष की भूमिका भी निभाई थी। मीरा की उनकी भूमिका और उसमें गाए भजनों की धूम आज भी है। 1997 में पति की मौत के बाद उन्होंने सार्वजनिक कार्यक्रम करना बंद कर दिया।
एमएस पर गांधी का प्रभाव वाया पति सदाशिवम आया, जो शादी के पहले से गांधी के रंग में रंगे थे। गांधी ने एक बार सुब्बुलक्ष्मी से कहा- जब गला भगवान का दिया है, तो तुम इसकी फीस क्यों लेती हो। और अगर पैसा मिल रहा है, तो उसे समाज के काम में लगाओ। यह बात उन्होंने जीवन भर मानी। गांधी के रचनात्मक कार्यक्रमों और राष्ट्रीय आंदोलन वाली संस्थाओं को एमएस ने दिल खोलकर पैसे दिए और कई सारे अधिकार भी इनको सौंप दिए। गांधी ने 1946 के अपने जन्मदिन के अवसर पर उनसे अपने प्रिय भजन ‘वैष्णव जन’ और ‘रघुपति राघव’ रिकार्ड कर भेजने की मांग की। एमएस इनकी शब्दावली और धुन दोनों को लेकर सहज न थीं और वह बेसुरा भी गाना नहीं चाहती थीं। उन्होंने संदेश भेजकर पूछा- क्या मैं अपना तैयार भजन ‘हरि तुम हरो जन की पीर’ भेज सकती हूं? गांधी की स्वीकृति आने के बाद बहुत कम समय में उन्होंने इसे रिकार्ड कर गांधी के पास भेजा। गांधी कहते थे- सुब्बुलक्ष्मी वैष्णव जन सीधे-सीधे पढ़ भी दें, तो भी वह सब गायकों से अच्छा होगा।
मालती देवी चौधरी
गांधी के लिए ‘तूफानी’, गुरुदेव के लिए ‘मीनू’ और ओडिशा की आम जनता के लिए ‘नुमा’, मालती देवी के परिवार में पिता बैरिस्टर, पति मुख्यमंत्री, न जाने कितने आइसीएस, कितने रेवेन्यू सर्विस वाले थे। मालती देवी ने छोटी उम्र के बाद संघर्ष किया, जेल गईं और बापू से भी टकराईं और उनसे उनकी गलती कबूलवा ली। कभी रवीन्द्रनाथ टैगोर ने मीनू में साहित्यिक और कलात्मक संभावनाएं देखी थीं। मालती देवी का परिवार मूल रूप से ढाका के पास का था। पिता की मौत के बाद मां स्नेहलता सेन ने ही उनका पालन-पोषण किया।
मालती शांति निकेतन पहुंचीं, तो गुरुदेव के संपर्क में आईं और राष्ट्रीय आंदोलन के प्रभाव में रहीं। वहां नवकृष्ण चौधरी भी पढ़ने आए, जो पहले साबरमती में रह चुके थे। दोनों का परिचय हुआ और 1927 में शादी हो गई। दोनों ने शांति निकेतन छोड़कर जगतसिंहपुर के अंखिया नामक आदिवासी गांव में आश्रम बनाकर रहना शुरू किया। नवकृष्ण खेती में सुधार के प्रयोग करने लगे। मालती देवी आदिवासियों में जागृति और उनकी गुलामी प्रथा के खिलाफ अलख जगाती रहीं। छुआछूत, अशिक्षा, अंधविश्वास, शराबखोरी का विरोध जैसे काम वहां रहकर किए। नमक सत्याग्रह के दौरान कानून तोड़ने का अभियान चलाकर मालती देवी और नवकृष्ण जेल गए। गांधी-इर्विन समझौते के बाद दोनों को छोड़ा गया।
दोनों ने फरवरी 1933 में ही उत्कल कांग्रेस समाजवादीकर्मी संगठन बनाया जिसे बाद में कांग्रेस सोशलिस्ट पार्टी ने अपनी ओडिशा इकाई के रूप में स्वीकार किया। जमींदारी खत्म करने का प्रस्ताव इसी जमात ने किया। वह 1934 की हरिजन यात्रा में गांधी की पदयात्रा की साथी थीं। राजीव गांधी के हाथों जब उन्हें जमनालाल बजाज पुरस्कार दिलाने की कोशिश हुई, तो उन्होंने पुरस्कार लेने से मना कर दिया। 1998 में अंतिम सांस ली।
मृदुला साराभाई
मृदुला साराभाई की गांधी के पास उनकी बेरोकटोक एंट्री थी। आजादी के बाद दिल्ली दंगों की खबर सुनकर वह गांधी के साथ दिल्ली आई थीं। उनको नेहरू की सरकार द्वारा आजाद भारत में कैद और नजरबंदी मिली, जिसकी वह चहेती मानी जाती थीं। उन्होंने अंग्रेजी हुकूमत से लोहा लिया और अत्याचार की शिकार हजारों महिलाओं और बच्चों को न सिर्फ बचाया, बल्कि उनका जीवन पटरी पर लाईं। गांधी के कई दंगा पीड़ित गांवों की पदयात्रा की। वह सच्चे अर्थ में गांधी की बहादुर बेटी तो थीं ही, अंबालाल साराभाई और अनुसुया साराभाई के परिवार का नाम रोशन करने वाली भी थीं।
1911 में जन्मी मृदुला ने जब से होश संभाला, घर को गांधीमय ही पाया। पिता ने शुरुआती शिक्षा का इंतजाम घर पर ही किया। विलायत जाने के बजाय मृदुला ने गुजरात विद्यापीठ चुना और वहीं पढ़ाई की। 1921 में जब कांग्रेस का अधिवेशन अहमदाबाद में हुआ, तो चरखा संघ के शिशु विभाग की तरफ से प्रतिनिधियों को पानी का गिलास देने का काम दस साल की मृदुला ने दूसरे बच्चों के साथ बखूबी निभाया।
नमक सत्याग्रह के समय गांधी ने किसी भी महिला को दांडी मार्च जाने वाली अपनी टोली में नहीं रखा। उनसे ‘लड़ने’ के लिए जो महिलाएं और लड़कियां सामने आईं, उनमें मृदुला सबसे आगे थीं। वानर सेना बनाने वाली मृदुला थीं। उन्हें तीन हफ्ते की जेल मिली। यह उनकी पहली जेल यात्रा थी। 1936 में अध्यक्ष बनने पर जब पंडित नेहरू ने मृदुला को कांग्रेस का मंत्री/जनरल सेक्रेटरी नियुक्त किया तब सबकी नजरें फटी रह गईं। वह नेहरू की पसंद वाली मंडली में गिनी जाने लगीं। उन्होंने ‘आजादी की छांव में’ नामक अद्भुत डायरी लिखी। अगस्त 1953 में शेख अब्दुल्ला की गिरफ्तारी हुई। मृदुला ने कांग्रेस और उन सभी संगठनों की सदस्यता छोड़ दी, जिनसे वह जुड़ी थीं और सिर्फ कश्मीर के काम करने लगीं। फिर नेहरू की सरकार ने उन्हें भारत रक्षा कानून के तहत गिरफ्तार कर तिहाड़ जेल में डाल दिया। बाद में उनको अहमदाबाद के उनके घर में ही नजरबंद रखा गया। एमनेस्टी इंटरनेशनल ने उनको ‘प्रिजनर ऑफ कांशिएंस’ के तौर पर अपने साथ जोड़ा। बाद में वे भारत में एमनेस्टी इंटरनेशनल की शाखा खोलने में मददगार बनीं। अक्टूबर 1974 में उनका स्वर्गवास हुआ।