डोनाल्ड ट्रम्प की सरपरस्ती में अमेरिका ने अंतरराष्ट्रीय उदारवादी तंत्र का चक्का पीछे धकेल दिया है, जिसे खुद उसने ही दूसरे विश्व युद्ध के बाद 1945 में बनाया और दुनिया भर में दौड़ाया था। अपना दूसरा कार्यकाल ट्रम्प ने जिस रफ्तार से शुरू किया है, ऐसा लगता है कि उनका समय बीतते-बीतते चार साल बाद अमेरिकी की शक्लोसूरत पूरी तरह बदली हुई होगी। पद संभालते ही कार्यकारी आदेशों की जो झड़ी उन्होंने लगाई है, वह दिखाता है कि ट्रम्प ऐसा संरक्षणवादी अमेरिका गढ़ना चाहते हैं, जिसकी सामाजिक कसौटियां गोरे ईसाइयों के हिसाब से हों। मसलन, अमेरिका की आधिकारिक नीति में अब केवल दो लिंग मान्य होंगे- पुरुष और स्त्री। यानी लंबे समय से उत्पीडि़त एलजीबीटीक्यू+ समुदाय के लिए मामला घूम-फिर कर वही ढाक के तीन पात हो गया है। ट्रम्प ने ऐसे कार्यकारी आदेशों को वापस ले लिया है, जिनके तहत लड़कियों के खेलों में ट्रांसजेंडर समुदाय को हिस्सा लेने की छूट मिलती थी और सार्वजनिक स्थलों पर ट्रांसजेंडर के लिए अलग शौचालय का प्रावधान किया गया था। ट्रम्प के जनाधार के लिए ट्रांसजेंडर अधिकारों का मुद्दा अहम था क्योंकि उनके दक्षिणपंथी ईसाई और ग्रामीण-कस्बाई मतदाता तीसरे लिंग के खिलाफ थे।
एलजीबीटीक्यू+ समुदाय के खिलाफ अमेरिका का यह कदम अन्य देशों में दक्षिणपंथी नेताओं के मंसूबों को हवा दे सकता है। दिल्ली की समाजशास्त्री राधिका चोपड़ा कहती हैं, ‘‘अब तक अमेरिका ही समलैंगिक और एलजीबीटीक्यू+ समुदाय के आंदोलन को प्रोत्साहन देता आया था और उसने दूसरे देशों के लिए नजीर पेश की थी। अब ट्रम्प की कार्रवाई दूसरे देशों को निश्चित रूप से प्रोत्साहित करेगी, लेकिन थोड़ा इंतजार करना बनता है क्योंकि हो सकता है इसका प्रतिरोध हो। ट्रम्प चतुर नेता हैं और जमीनी हलचलों से वे वाकिफ रहते हैं। लोग उनके साथ नहीं गए, तो वे अपने कदम वापस भी खींच सकते हैं।’’ ठीक वैसे ही, जैसे महिला मतदाताओं के चक्कर में उन्होंने गर्भपात प्रतिबंध से पैर वापस खींच लिए थे और इस संघीय कानून को प्रांतों के अधिकार में खुला छोड़ दिया था। यह अलग बात है कि ट्रम्प की जीत से उत्साहित गर्भपात विरोधी कार्यकर्ताओं ने देश भर में गर्भपात को खत्म करने की मांग करते हुए वॉशिंगटन में विशाल रैली निकाली थी, जिसे उपराष्ट्रपति जेडी वान्स से संबोधित किया था और कहा था, ‘‘यह प्रशासन आपके साथ खड़ा है, हम आपके साथ हैं और सबसे जरूरी बात कि हम सबसे कमजोर के साथ खड़े हैं। अमेरिका बच्चों, परिवारों और जीवन के हक में खड़ा देश है।’’
फिर हाशिये परः ट्रम्प की नीति में ट्रांसजेंडरों के लिए कोई जगह नहीं है
ट्रम्प के लिए प्रवासन एक बड़ा मुद्दा था, सो पद ग्रहण करते ही उनके शुरुआती आदेशों में अमेरिका-मैक्सिको सीमा पर इमरजेंसी लागू करना रहा, जिसके तहत उन्होंने 1500 सैनिक सीमा पर भेज दिए और प्रवासन तथा कस्टम अनुपालक एजेंसी आइसीई के अधिकारों में बढ़ोतरी करते हुए उसे छापे मारने और अवैध प्रवासियों को हिरासत में लेने के अधिकार दे डाले। अब स्कूल, अस्पताल और प्रार्थनास्थलों जैसे मंदिर, मस्जिद और गिरजाघरों पर छापे मारने की छूट है, जो पहले संभव नहीं था। बिना कागजात वाले तमाम लोगों को उनके देश वापस भेजा जा रहा है। सबसे पहले कोलंबिया ने इसका विरोध करते हुए अमेरिका से आए प्रवासियों का पहला जहाज वापस लौटा दिया था, लेकिन जब ट्रम्प ने कोलम्बिया के आयात पर 20 प्रतिशत शुल्क बढ़ाने की धमकी दी तो उसने घुटने टेक दिए। ज्यादातर अमेरिकी लोग प्रवासियों को भेजे जाने के पक्ष में हैं, लेकिन अमेरिका में जन्मे बच्चों की नागरिकता खत्म करने के ट्रम्प के फैसले को लागू करना कहीं ज्यादा कठिन होगा। आलोचकों का कहना है कि यह अमेरिकी संविधान के खिलाफ है। इस आदेश को 22 प्रांतों ने चुनौती दे दी थी, जिसके बाद एक संघीय जज के आदेश से इस पर अस्थाई रोक लगा दी गई है।
एक और कार्यकारी आदेश जारी करते हुए ट्रम्प ने डीईआइ को स्थगित कर दिया है। यह विभाग कामकाजी स्थलों पर विविधता, समानता और समावेश को सुनिश्चित करता था। आज तक अमेरिका की उदारवादी सरकारों ने हमेशा डीईआइ को बढ़ावा दिया था ताकि सरकारी दफ्तरों, कॉलेजों और स्कूलों में अफ्रीकी-अमेरिकी और अन्य अल्पसंख्यकों के साथ सदियों तक बरते गए ऐतिहासिक भेदभाव को दुरुस्त किया जा सके। ट्रम्प ने डीईआइ के अफसरों को अगले आदेश तक छुट्टी पर भेज दिया है। सैकड़ों केंद्रीय नौकरियों पर तलवार लटक रही है क्योंकि ट्रम्प के फर्स्ट बडी कहे जा रहे एलन मस्क की योजना केंद्रीय नौकरशाही में छंटनी करने की है। स्कूली तंत्र भी खतरे में है क्योंकि ट्रम्प को लगता है कि अमेरिकी स्कूल बच्चों को वामपंथी शिक्षा देते हैं। उन्होंने घोषणा की है कि वे ऐसे किसी भी स्कूल का केंद्रीय अनुदान समाप्त कर देंगे, जो ‘‘आलोचनात्मक नस्ली सिद्धांत, लैंगिक विचारधारा और अन्य अनुपयुक्त नस्ली, लैंगिक या राजनीतिक विषयवस्तु हमारे बच्चों पर थोपेगा।’’ जिन स्कूलों ने कोविड-19 के दौरान मास्क पहनने और टीकों को प्रोत्साहित किया था उन्हें उदार संस्थान मानकर निशाना बनाया जाएगा। ये सारे मसले भले ही अमेरिका की आंतरिक राजनीति से वास्ता रखते हैं, लेकिन दुनिया भर में इनका असर होगा क्योंेकि दक्षिणपंथी सरकारें ट्रम्प के अमेरिका की नकल करने की कोशिश करेंगी।
ट्रम्प की विदेश नीति के संबंध में उनके पहले कार्यकाल के आधार पर कुछ बातें स्पष्ट हैं। जैसे, वे जलवायु परिवर्तन पर संदेह करते हैं और इसे चीनी अफवाह मानते हैं। उनका मानना है कि इसका उद्देश्य कंपनियों को चीन में उत्पादन करने के लिए बरगलाना है। लिहाजा, पेरिस जलवायु परिवर्तन समझौते से उनका पैर खींचना अपेक्षित ही था। इस तरह विश्व व्यापार संगठन (डब्लूटीओ) के बारे में उनके विचार सार्वजनिक हैं। जिन देशों का भुगतान संतुलन अमेरिका के बरअक्स बेहतर है उनके साथ शुल्क-युद्ध भी ट्रम्प की स्वाभाविक नीति है। मोटे तौर पर ट्रम्प के तहत अमेरिका की विदेश नीति का खाका वैसा ही रहने वाला है, जिसमें चीन को भविष्य की सबसे बड़ी चुनौती के रूप में देखा जाना है। पहले कार्यकाल में ट्रम्प ने खुलकर चीन को निष्पक्ष व्यापार के लिए आड़े हाथों लिया था और शुल्क-युद्ध का आगाज किया था। बाद में बाइडेन ने भी चीन के संबंध में ट्रम्प की ही लीक पकड़े रखी। हिंद-प्रशांत में चीन को काबू में रखने के लिए अमेरिका-भारत-जापान-ऑस्ट्रेलिया का समूह भी अपनी जगह कायम रहेगा।
ट्रम्प के शपथ ग्रहण के एक दिन बाद ही क्वाड देशों के विदेश मंत्रियों की पहली बैठक हुई। ट्रम्प के विदेश मंत्री मार्को रूबियो ने शपथ ग्रहण में वॉशिंगटन आए तमाम मंत्रियों से मुलाकात की। रूबियो से बातचीत के बाद भारत के विदेश मंत्री एस. जयशंकर काफी उत्साहित थे। भारत का मानना है कि ट्रम्प के कार्यकाल में अमेरिका के साथ उसके रिश्ते ज्यादा ‘‘साहसिक, बेहतर और महत्वाकांक्षी’’ होंगे।
दिल्ली में बैठे अधिकारी ट्रम्प से परिचित हैं और प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी के साथ ट्रम्प का समीकरण भी बढि़या है। इसके बावजूद शुल्क के मसले पर थोड़ी दिक्कत भारत को होना लाजिमी है, यदि ट्रम्प भारतीय बाजारों तक पहुंच के लिए सरकार पर लगातार जोर लगाते रहे। जाहिर है, दोनों पक्षों में लेनदेन के आधार पर ही शुल्क तय किया जाना है। इसलिए दिल्ली में बैठे अधिकारी उसे लेकर बहुत चिंतित नहीं हैं। इसके अलावा, अवैध भारतीय आप्रवासियों का अमेरिका से प्रत्यर्पण भी चिंता की बात नहीं है। बाइडेन के कार्यकाल में भी दो जहाजों में लादकर अवैध आप्रवासियों को चुपचाप भारत भेजा गया था। जन्म के आधार पर नागरिकता वाले मसले से भारत खुद को बाहर ही रखेगा क्योंकि वह अमेरिका का घरेलू मसला है। हां, एच1बी वीजा पर प्रतिबंध थोड़ा चिंता का विषय है लेकिन इस मामले में ट्रम्प प्रौद्योगिकी कंपनियों के मालिकान के साथ हैं, जो उच्च योग्यता वाले वैध आप्रवासियों के लिए बांहें फैलाए रहते हैं।
घुसने का जुनूनः बीते मार्च में हजारों मैक्सिन लोगों ने अमेरिका में घुसने के लिए बाड़ तोड़ दी थी
ट्रम्प हमेशा से ही युद्ध के आलोचक रहे हैं। उनका दावा रहा है कि वे यदि राष्ट्रपति होते तो रूस-युक्रेन की जंग नहीं हुई होती। उन्होंने चौबीस घंटे के भीतर जंग रुकवाने की डींग हांक दी थी, हालांकि बाद में उन्होंने इस समय सीमा को बढ़ा दिया। फिर भी यह सच है कि ट्रम्प ने इजरायल के प्रधानमंत्री बेंजमिन नेतन्याहू को युद्धविरााम और हमास के साथ बंधकों की अदला-बदली के लिए मना लिया, हालांकि यह युद्ध विराम फौरी तौर पर दिखता है और किसी भी वक्त दोबारा लड़ाई शुरू हो सकती है, एक बार इजरायली बंधक बस घर लौट आएं। इतना तय है कि गाजा के लोगों को जंग से थोड़ी राहत मिली है और वे धीरे-धीरे ही सही वापस आ रहे हैं। ट्रम्प का हालिया बयान कि मिस्र और जॉर्डन को फलस्तीनियों को अपने यहां ले लेना चाहिए ताकि ‘‘गाजा साफ हो सके’’, जातीय सफाये का भय पैदा करने वाला है, हालांकि यह सरसरा बयान था या कोई गंभीर नीतिगत वक्तव्य, यह साफ नहीं है।
अपनी विदेश नीति में ट्रम्प ने एक और आयाम जोड़ा है। कुछ महीने पहले तक ऐसा लगता था कि ट्रम्प दूसरे देशों की जंग में हाथ डालने या अमेरिकी सैनिकों को बाहर भेजने के मसले पर संकोची हैं लेकिन अब वे अमेरिका की सरहदों के विस्तार की बात कर रहे हैं और अपने बयानों में विस्तारवादी जान पड़ रहे हैं। वे डेनमार्क से ग्रीनलैंड को खरीद लेना चाहते हैं, पनामा नहर को कब्जाना चाहते हैं जिसे बनाने में अमेरिका ने मदद की थी। वे मैक्सिको की खाड़ी का नाम बदलकर अमेरिका की खाड़ी करना चाहते हैं और कनाडा को अमेरिका में मिला लेना चाहते हैं। इन मंसूबों में सेना का इस्तेमाल न करने की बात उन्होंने नकारी नहीं है। कोई नहीं जानता कि ट्रम्प इन बातों को लेकर कितने गंभीर हैं, लेकिन ग्रीनलैंड पर तो पहले कार्यकाल से ही उनकी निगाह रही है। जानकार ऐसे बयानों पर आश्चर्यचकित नहीं हैं। वे मानते हैं कि ऐसे बयानों की जड़ें अमेरिका के इतिहास में हैं। पेरिस स्थित अमेरिकन युनिवर्सिटी के प्रोफेसर फिलिप गोलब कहते हैं, ‘‘ऐसे बयानों की जड़ें गहरी हैं, जो उन्नीसवीं सदी के मध्य के उन विस्तारवादी और सम्प्रभुतावादी लोगों तक जाती हैं जिन्होंने अमेरिकी महाद्वीप के विस्तार की परिकल्पना की थी और इसे अमेरिका और मैक्सिको के मूलवासियों के खिलाफ जंग से हासिल भी किया गया था, जिसे बाद में देश की नियति बताया गया।’’
गोलब कहते हैं, ‘‘अमेरिकी इतिहास में गहरे धंसी उस धारा के ही वारिस ट्रम्प हैं। अमेरिका की अंतरराष्ट्रीय नीति में यह कैसे रूपांतरित होगा यह देखने वाली बात होगी। वे यूरोप और मध्य-पूर्व के युद्धों में हाथ नहीं डालना चाहते क्योंकि उनके हिसाब से यह ऐसे समय में अमेरिकी संसाधनों की बरबादी होगी जब देश को- उनके और अमेरिकी अभिजात्यों की निगाह में- चीन के साथ बाहुबल के लंबे और निर्णायक इम्तिहान के लिए तैयार किए जाने की जरूरत है। वे दुनिया के दूसरे क्षेत्रों से अमेरिका को अलग रखने को जितना आसान काम समझते हैं यह उससे कहीं ज्यादा कठिन साबित होने जा रहा है क्योंकि दूसरे विश्व युद्ध के बाद से अमेरिका इन्हीं क्षेत्रों पर नियंत्रण के आधार पर अपना वर्चस्व कायम रखे हुए है।’’