कहते हैं कि बारह साल में काल का पहिया एक चक्कर पूरा घूम जाता है। आम आदमी पार्टी की पहली सरकार दिल्ली में 2013 में बनी थी। अल्पमत और कांग्रेस के सहारे यह सरकार पचास दिन भी पूरे नहीं कर सकी, लेकिन देश के राजनैतिक इतिहास में बेशक यह दर्ज हो गया कि पार्टी गठन (नवंबर 2012) के महज एक साल बाद न सिर्फ आप ने एक सूबे में सरकार बनाई, बल्कि उसका नेता मुख्यमंत्री भी बन गया। अब पार्टी के बनने के तेरहवें साल और पहली बार सरकार गठन के बारहवें साल में आम आदमी पार्टी (आप) जब चौथी बार जनादेश मांगने दिल्ली की सड़कों पर निकली है, तो वह खुद को उलझा हुआ पा रही है।
नए साल की 10 जनवरी को चुनाव आयोग के दिल्ली विधानसभा चुनाव की अधिसूचना जारी करने से कोई दो महीने पहले ही राजधानी की सड़कों पर चुनावी छटा बिखरनी शुरू हो गई थी। एक ओर विपक्षी भारतीय जनता पार्टी (भाजपा) के पोस्टर, होर्डिंग और बिलबोर्ड आप की सरकार को मुंह चिढ़ाते नजर आ रहे थे, तो दूसरी ओर आप ने विधानसभाओं में ‘रेवड़ी पर चर्चा’ नाम से बैठकें शुरू कर दीं। यह विचित्र इसलिए था क्योंकि आप ने मुफ्त बिजली-पानी को लोगों के हक के रूप में परिभाषित किया था, रेवड़ी नहीं।
आप नेता, पूर्व मुख्यमंत्री अरविंद केजरीवाल का कहना था कि उनकी पार्टी लोगों से पूछेगी कि उन्हें रेवड़ी चाहिए या नहीं। इस सवाल को समझने का सूत्र तीनों प्रमुख दलों की चुनाव पूर्व घोषणाओं में दिखता है। यही वह शय है, जहां आप अपने ही शुरू किए ‘‘डिलीवरी मॉडल’’ में खुद को फंसा हुआ पा रही है।
रेवड़ी बनाम मुद्दा
भाजपा ने मंदिरों और गुरुद्वारों को 500 यूनिट तथा घरों को 300 यूनिट मुफ्त बिजली का वादा किया है। इसके अलावा औरतों के लिए 2,500 रुपये की मासिक आर्थिक मदद का वादा किया है। यह इससे भी विचित्र है, क्योंकि पार्टी इन सेवाओं को रेवड़ी और लोगों को लाभार्थी बताती आई है। आप के राज में बिजली-पानी तो मुफ्त था ही, उसने महिला मतदाताओं को अपने पास बनाए रखने के लिए सबसे पहले 2,100 रुपये प्रतिमाह और मुफ्त स्वास्थ्य सेवा की घोषणा की। साल बीतते-बीतते आप ने धर्मगुरुओं को जुटाया, अरविंद केजरीवाल और पार्टी के दूसरे नेता बाबाओं और ग्रंथियों के साथ मंच पर दिखे और पंडों के लिए 18,000 रुपये महीने का वेतन घोषित कर दिया गया।
बदलाव की उम्मीदः रोहिणी में भाजपा की परिवर्तन रैली में प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी, 5 जनवरी 2024
लड़ाई में चार प्रतिशत वोट के साथ सुदूर तीसरे स्थान पर निष्क्रिय पड़ी कांग्रेस के पास देने को कुछ नहीं था, तो उसने भी महिलाओं के लिए 2,500 रुपये की घोषणा कर डाली, राजस्थान की तर्ज पर सभी के लिए 25 लाख रुपये के स्वास्थ्य बीमा कवर का ऐलान किया और बेरोजगार युवाओं को साढ़े आठ हजार रुपये का भत्ता देने की बात कह दी। 13 जनवरी को सीलमपुर में पहली सभा में कांग्रेस नेता राहुल गांधी ने पहली बार अरविंद केजरीवाल की आलोचना की। उन्होंने पूछा, ‘‘केजरीवाल अडाणी, जाति जनगणना, आरक्षण की सीमा बढ़ाने के मुद्दे पर मौन क्यों हैं।’’
‘‘डिलीवरी की राजनीति’’ की सबसे बड़ी कमजोरी और सबसे बड़ी ताकत एक ही चीज होती है। जो जितना देगा, उतना ही पाएगा। लेनदेन के इस खेल में लोगों के बाकी मुद्दे गौण हो जाते हैं। बीते दसेक वर्षों में भाजपा ने जिस तरीके से इस राजनीति को अपने केंद्रीय तंत्र के सहारे साधा है और सरकारी योजनाओं के फंड से मतदाताओं को अपना ‘‘लाभार्थी’’ बना दिया है, उसके सामने बाकी दलों की स्थिति कमजोर ही दिखती है। इसका एक असर यह हुआ है कि अब मुद्दे की राजनीति संभव नहीं रह गई क्योंकि वोटर प्रतिस्पर्धी लाभों की बाट जोहता है।
यही वजह है कि आप को रेवड़ी पर चर्चा शुरू करनी पड़ गई। आप के पास राजनैतिक और वैचारिक रूप से कोई और टेक नहीं है। उसने हमेशा खुद को ‘‘अराजनैतिक’’ ही बताया। इस ‘‘अराजनैतिक’’ के आवरण में उसने वे सारे काम किए जो एक राष्ट्रवादी या दक्षिणपंथी पार्टी को करने होते हैं, जैसे दिल्ली के स्कूली पाठ्यक्रम को देशभक्ति से ओतप्रोत बनाना या पूरी दिल्ली में तिरंगे लगाना और तिरंगा यात्राएं निकालना। धर्म की पिच पर अब पंडों-ग्रंथियों के लिए मासिक वेतन का ऐलान किया गया है।
डिलीवरी की राजनीति में तो वैसे ही दोनों दल टक्कर में हैं। लेकिन यह स्थिति 2020 के चुनाव से अलग है क्योंकि उस वक्त शाहीन बाग आंदोलन और दिल्ली दंगे ने मुसलमानों को आप के साथ एकवट ला दिया था और चुनाव ध्रुवीकृत हो गया था कि कांग्रेस के अदद नौ प्रतिशत वोट घटकर चार पर आ गए थे।
आज भाजपा और आप के बीच महज पंद्रह प्रतिशत वोटों का फासला है। भाजपा अगर चालीस प्रतिशत से ऊपर गई और आप पचास प्रतिशत से नीचे खिसकी, तो लड़ाई फंस सकती है। यह बात अलग है कि आप को बीस सीटों का नुकसान भी होता है तो बहुमत के साथ सरकार उसी की बनती दिखेगी। यही वह पेच है जहां दिल्ली का चुनाव अबकी मतदाता सूची में छेड़छाड़ और कटौती के आरोप-प्रत्यारोप पर आकर टिक गया है। यह अभूतपूर्व है क्योंकि इससे पहले न तो भाजपा इतनी बेचैन दिखी थी, न ही आप ने मतदाता सूचियों के संबंध में कभी कुछ कहा था। याद करें, तो 2015 और 2020 के दिल्ली चुनाव तकरीबन सपाट थे, जैसे कि आप का जीतना सब तय मानकर चल रहे हों। इस बार ऐसा नहीं है।
रेवड़ी राजनीति की बड़ी विडंबना यह है कि दिल्ली की सड़कों पर कोई नजर घुमा कर देखे तो उसे लगेगा कि चुनाव वाकई मुद्दों पर हो रहा है। चौतरफा भाजपा और आप के जो पोस्टर, बैनर, होर्डिंग लगे हैं उन सभी में सड़क, बिजली, स्वास्थ्य, यमुना, गंदगी, सीवर आदि के जवाबी नारे चल रहे हैं। यानी मनोवैज्ञानिक माहौल मुद्दा केंद्रित सतही प्रचार से बनाया जा रहा है लेकिन मतदाता रेवडि़यों से सीधे लुभाए जा रहे हैं।
सीट बनी नाक का सवाल
शायद यही बेचैनी है कि आम आदमी पार्टी ने चुनाव आयोग से लगातार मतदाता सूचियों में बदलाव के संबंध में शिकायत की है। दिलचस्प है कि ये शिकायतें केवल नई दिल्ली विधानसभा के बारे में की गई हैं जहां से अरविंद केजरीवाल चुनाव लड़ते हैं, जबकि बदलाव दूसरी विधानसभाओं में भी बराबर हुए हैं। सबसे पहले मुख्यमंत्री आतिशी ने 5 जनवरी को केंद्रीय चुनाव आयुक्त राजीव कुमार को लंबी चिट्ठी लिखी और नई दिल्ली सीट पर मतदाता सूची में जोड़े गए करीब 13,000 नामों और काटे गए करीब 6,000 नामों की शिकायत की। इस विधानसभा में एक लाख सात हजार के आसपास पंजीकृत मतदाता हैं और आप का आरोप है कि करीब 6 प्रतिशत मतदाताओं के नाम काटे गए हैं।
बिलकुल इन्हीं शिकायतों को लेकर अरविंद केजरीवाल ने 11 जनवरी को चुनाव आयोग को चिट्ठी लिखी। इसमें नया आरोप यह लगाया गया कि भाजपा देश भर के अपने वोटों को नई दिल्ली विधानसभा में अपने सांसदों और मंत्रियों के पते के माध्यम से जुड़वा रही है। इस संबंध में आप का एक प्रतिनिधिमंडल चुनाव आयोग में मिलने गया था। बताया जाता है कि मुख्य चुनाव आयुक्त राजीव कुमार मौजूद नहीं थे।
इससे यह शंकाएं मजबूत हुई हैं कि क्या वाकई मतदाता सूचियों के साथ भाजपा ने चुनावी लाभ के लिए छेड़छाड़ की है। कांग्रेस की मानें, तो पूरी दिल्ली में कोई तेरह लाख मतदाताओं के नाम सूचियों से काटे गए हैं। बीते दो महीनों के दौरान कोई पांच लाख नए मतदाता जोड़े गए हैं। चुनाव आयोग की मानें, तो 2020 के विधानसभा चुनाव के मुकाबले इस बार दिल्ली के मतदाताओं की संख्या में पांच फीसदी इजाफा हुआ है। इन आंकड़ों का सही-सही अर्थ क्या है और मतदाताओं के घटने-बढ़ने के चुनावी निहितार्थ क्या हैं, यह दलों के दावों और आरोपों से समझ में आता है लेकिन आप की ओर से केवल केजरीवाल की विधानसभा के संबंध में बार-बार शिकायत किया जाना इस बात को दिखाता है कि नई दिल्ली सीट पर भाजपा का इस बार खास जोर है।
जगह बनाने की कोशिशः सीलमपुर की 13 जनवरी को रैली में कांग्रेस नेता राहुल गांधी
शायद इसलिए इस वीआइपी सीट पर अबकी कांग्रेस ने पूर्व मुख्यमंत्री शीला दीक्षित के बेटे संदीप दीक्षित को उतार दिया है। दिलचस्प यह है कि इसी सीट से एक ऐसा प्रत्याशी भी चुनाव लड़ रहा है जो कभी केजरीवाल का खास दानदाता और मित्र हुआ करता था। यह भारतीय लिबरल पार्टी (बीएलपी) के अध्यक्ष डॉ. मुनीश रायजादा हैं, जिनकी चर्चा मीडिया में उतनी नहीं है। डॉ. मुनीश अमेरिका में बच्चों के डॉक्टर थे। जब आप ने 2015 में अपनी वेबसाइट पर चंदे की सूचना सार्वजनिक करनी बंद कर दी तो मुनीश ने चंदा सत्याग्रह के नाम से दिल्ली में अभियान चलाया।
नई दिल्ली विधानसभा की बीके दत्त कॉलोनी से अपना दफ्तर चला रहे डॉ. मुनीश अपनी सीट की मतदाता सूची में नामों की कटौती और जोड़े जाने पर बिलकुल भी चिंतित नहीं हैं। मुनीश का कहना है कि नई दिल्ली पर हल्ला इसलिए है क्योंकि वे तमाम फर्जी वोटर काटे गए हैं जिनके सहारे केजरीवाल लगातार जीतते आ रहे थे। वे कहते हैं, ‘‘इसका नुकसान अकेले अरविंद को होगा क्योंकि वे बोगस वोटर थे। इसीलिए वे चिल्ला रहे हैं।’’
भाजपा के समर्थकों का मानना है कि इस बार केजरीवाल को उनकी सीट पर हराना ही सबसे बड़ी उपलब्धि होगी, भले भाजपा की सरकार न बने।
उभरती पहचानें
मतदाताओं से लुभावने वादे, मतदाता सूची में छेड़छाड़ के अलावा चुनाव में इस बार अटपटी घटनाएं भी हो रही हैं। शुरुआत अरविंद केजरीवाल से हुई जब उन्होंने बीते 30 दिसंबर को राष्ट्रीय स्वयंसेवक संघ के प्रमुख मोहन भागवत को अजीब चिट्ठी लिख भेजी। उन्होंने लिखा, ‘‘मीडिया में खबरें चल रही हैं कि आरएसएस दिल्ली चुनावों में भाजपा के लिए वोट मांगेगी। क्या ये सही है? इसके पहले लोग आपसे जानना चाहते हैं कि पिछले दिनों भाजपा ने जो गलत हरकतें की हैं क्या आरएसएस उनका समर्थन करती है?” इसके बाद उन्होंने दो बिंदु लिखे। पहला, कि भाजपा के नेता ‘‘खुलकर पैसे बांटकर वोट खरीद रहे हैं’’ और दूसरा, कि ‘‘गरीब, दलित, पूर्वांचली और झुग्गी वालों के वोट कटवाने के प्रयास किए जा रहे हैं।’’
ऐसा ही एक पत्र उन्होंने 8 जनवरी को प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी को लिखा। इसमें उन्होंने जाट समेत पांच अन्य पिछड़ा वर्ग की जातियों को ओबीसी की केंद्रीय सूची में शामिल करने की मांग की, जिन्हें दिल्ली में ओबीसी का दरजा हासिल है। इस सिलसिले में उन्होंने 2015, 2017 और 2019 में किए गए मौखिक वादे गिनवाए, जिसमें एक ऐसी बैठक का जिक्र था जो परवेश वर्मा के यहां अमित शाह की अध्यक्षता में हुई थी। इस पर परवेश वर्मा ने तीखी प्रतिक्रिया दी। वर्मा और भाजपा नेता रमेश बिधूड़ी ने केजरीवाल पर आरोप लगाया कि वे दिल्ली को जातियों में बांटने की कोशिश कर रहे हैं, भाजपा ने जाटों के लिए बहुत कुछ किया है।
परवेश वर्मा खुद जाट हैं और ग्रामीण दिल्ली की 28 सीटें जाट बहुल हैं जिन पर टिकटों की अच्छी-खासी मारामारी देखने में आई है और कई विधायकों के टिकट कट गए हैं। ये 28 सीटें इस चुनाव में अहम भूमिका निभा रही हैं। जाट की तर्ज पर पूर्वांचली पहचान को लेकर भी बवाल हुआ। भाजपा नेता मनोज तिवारी बाकायदा भीड़ लेकर केजरीवाल का आवास घेरने पहुंच गए।
दंगे की फसल
दिल्ली की राजनीति में जाति और पहचान की लड़ाइयां इससे पहले कभी इतना सतह पर नहीं आई थीं। 2020 का चुनाव तो दंगे के कारण धार्मिक आधार पर थोड़ा ध्रुवीकृत हुआ था और उससे पहले 2015 के चुनाव में केजरीवाल की एकतरफा लहर थी। इस बार जातिगत पहचानों पर चुनाव के बंटने के आसार हैं और दंगे की फसल भी पक चुकी है।
दंगों में परवेश वर्मा के साथ बेहद विवादास्पद सांप्रदायिक नारा लगाने वाले कपिल मिश्रा को पहली बार भाजपा ने टिकट दिया है। करावल नगर से मोहन सिंह बिष्ट जैसे स्थापित नेता का टिकट काट कर मिश्रा को टिकट दिया गया तो थोड़ा असंतोष फैला। बाद में बिष्ट को मुस्तफाबाद भेज दिया गया। भाजपा और उसके अनुषंगी संगठन राम मंदिर की प्राण प्रतिष्ठा का एक साल पूरा होने के मौके पर दिल्ली भर में कार्यक्रम कर रहे हैं।
धार्मिक आयोजन आप भी करवा रही है। नई दिल्ली की सीट पर न्यू किदवई नगर में 12 जनवरी को प्रचार करने गए केजरीवाल को जिस तरह से लोगों ने दौड़ाया और मुर्दाबाद के नारे लगाए, वह भी संकेत है कि दिल्ली की फिजा बदल रही है।
दिल्ली में मतदान पांच फरवरी को होना है और नतीजा आठ फरवरी को आना है। लड़ाई भाजपा और आप के बीच दोतरफा है, भले ही मैदान में कई और छोटे-मोटे दल हैं। कांग्रेस की ओर से चुनावी तैयारी खास नहीं दिख रही, हालांकि चार-पांच सीटों पर उसकी दावेदारी ठोस है। इसके अलावा अन्य दलों में भाकपा, माकपा, भाकपा-माले, राकांपा, बसपा, बीएलपी और आजाद समाज पार्टी (कांशीराम) भी अपनी किस्मत मुट्ठी भर सीटों पर आजमा रहे हैं।