हाल में एक ब्राह्मण लड़की से शादी करने के कारण इलाहाबाद हाइकोर्ट परिसर में एक दलित को मारा-पीटा गया। महीने भर पहले गुजरात के बोटाद जिले में ऊंची जाति के लोगों ने एक दलित की हत्या कर दी। उत्तराखंड में एक दलित को ऊंची जाति वालों के सामने भोजन करने का दुस्साहस करने पर मार दिया गया। मई में उत्तर प्रदेश के मुजफ्फरनगर जिले में 14 वर्षीय दलित लड़की के साथ सामूहिक बलात्कार के बाद उसे जला दिया गया। गिनने बैठें तो सूची खत्म नहीं होती। ऐसे में प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी का ‘सबका साथ, सबका विकास और सबका विश्वास’ का लक्ष्य भारी चुनौतियों से मुकाबिल है।
दलितों पर ऊंची जातियों का अत्याचार और अपराध बेरोकटोक जारी है। राष्ट्रीय अपराध रिकार्ड ब्यूरो की ‘भारत में अपराध’ रिपोर्ट के अध्याय सात के पेज नंबर 289 और 297 में लिखे के मुताबिक, 2015 में अनुसूचित जातियों पर अत्याचार और अपराध के 38,670 और 2016 में 42,217 मामले सामने आए। इनमें 3,172 मामले महिलाओं पर अत्याचार के थे। 2016 में प्रतिदिन दलितों पर अत्याचार की औसतन 115 घटनाएं हुईं। सबसे ज्यादा अपराध मध्य प्रदेश, राजस्थान, गोवा, बिहार और गुजरात में हुए, जहां भाजपा या उसके गठबंधन का शासन है या रहा है। 2017 और 2018 की रिपोर्ट अभी सार्वजनिक नहीं हुई है।
दलित राजकाज में भी भारी भेदभाव का एहसास करते हैं, क्योंकि उनकी सुरक्षा के लिए नियुक्त अनुसूचित जाति आयुक्त असली मुद्दों पर चुप रहते हैं। मसलन, संविधान का अनुच्छेद 338 (डी) कहता है कि यह आयुक्त, अनुसूचित जातियों की सुरक्षा के लिए उठाए गए कदमों की रिपोर्ट हर साल राष्ट्रपति को देंगे। यह रिपोर्ट संसद में रखी जाएगी। इसमें बताया जाएगा कि क्या कार्रवाई की गई है। लेकिन ऐसी किसी रिपोर्ट के बारे में आज तक नहीं सुना गया। एनडीए सरकार अनुसूचित जाति और जनजाति (अपराध निरोधक) कानून 1989 के जरिए सुप्रीम कोर्ट में दलितों के हितों की रक्षा करने में विफल रही, उससे भी उनमें भेदभाव की भावना मजबूत हुई है। अप्रैल 2018 में दलितों ने हड़ताल का आह्वान किया तो बैकफुट पर आई सरकार को अध्यादेश लाना पड़ा।
दलितों को भाषाई स्तर पर भी अपमानित किया जाता है। रोहित वेमुला की आत्महत्या के बाद उनकी मां से वंशावली पूछने के नाम पर केंद्र द्वारा गठित आयोग के एक सदस्य ने उन्हें अपमानित किया। पिछली एनडीए सरकार में मंत्री वी.के. सिंह ने दलितों की तुलना कुत्तों से कर दी थी। उत्तर प्रदेश में मई 2017 में मुख्यमंत्री आदित्यनाथ से मिलने के नाम पर प्रशासन ने दलितों को साबुन और शैंपू दिए, ताकि वे नहाने के बाद ही मिलें।
नीयत में खोटः दलितों के अपमान का अलग तरह का उदाहरण ओडिशा में दिखा। भाजपा के एक नेता ने अपने राष्ट्रीय अध्यक्ष को दलित के घर में कैमरे के सामने भोजन करवाया। वह तसवीर सोशल मीडिया पर वायरल हुई। ऐसा ही प्रतीकात्मक व्यवहार भाजपा के राष्ट्रीय अध्यक्ष ने "समरसता स्नान" के नाम पर 2016 में उज्जैन में आयोजित कुंभ मेले में किया था। इसी कड़ी को आगे बढ़ाते हुए प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी ने फरवरी 2019 में इलाहाबाद (प्रयागराज) में आयोजित कुंभ में दलितों के पैर धोए थे।
नई "राष्ट्रीय शिक्षा नीति 2019” के मजमून से भी दलितों को भेदभाव ही महसूस हुआ। 477 पेज की रिपोर्ट में केवल 30 लाइन में अनुसूचित जाति के बच्चों की शिक्षा के बारे में कहा गया है। इन 30 लाइन में भी उनको अन्य पिछड़ा वर्ग के साथ जगह मिली है। दलितों ने उस समय भी इस भेदभाव को महसूस किया, जब 200 प्वाइंट रोस्टर के तहत विश्वविद्यालयों और कॉलेज में शिक्षकों की नियुक्ति में सरकार उनकी रक्षा नहीं कर पाई। विश्वविद्यालय अनुदान आयोग 13 प्वाइंट रोस्टर सिस्टम लेकर आया। इससे दलित, आदिवासी और अन्य पिछड़ा वर्ग के लिए आरक्षण की व्यवस्था पूरी तरह खत्म हो गई, जो काशी हिंदू विश्वविद्यालय की 2018 की रिपोर्ट में साफ तौर पर दिखता है। इसके अनुसार, आर्थिक रूप से पिछड़े वर्ग को 10 फीसदी आरक्षण से अनुसूचित जाति, जनजाति और अन्य पिछड़ा वर्ग के लिए आरक्षित शैक्षिक पद सभी केंद्रीय विश्वविद्यालय से पूरी तरह खत्म हो जाएंगे।
शिक्षण संस्थानों में दलितों के प्रति भेदभाव का एक और उदाहरण उच्च पदों पर उनके प्रतिनिधित्व से स्पष्ट होता है। देश के 42 केंद्रीय विश्वविद्यालयों में शायद एक में भी अनुसूचित जाति या जनजाति का कुलपति नहीं है। मध्य प्रदेश की आंबेडकर यूनिवर्सिटी फॉर सोशल साइंस और उत्तर प्रदेश की बाबा साहब आंबेडकर सेंट्रल यूनिवर्सिटी में अनुसूचित जाति या जनजाति से संबंध रखने वाला कुलपति नियुक्त करने की परंपरा रही है। इसी तरह मध्य प्रदेश की इंदिरा गांधी नेशनल ट्राइबल यूनिवर्सिटी में गठन के समय से अनुसूचित जनजाति से संबंध रखने वाले को कुलपति बनाया जाता रहा है। लेकिन भाजपा के दौर में एक उच्च जाति वाले व्यक्ति को कुलपति नियुक्त किया गया है। दिल्ली में 82 कॉलेज दिल्ली यूनिवर्सिटी से संबद्ध हैं। इनमें से एक में अनुसूचित जाति का प्रिंसिपल है। उसकी भी नियुक्ति कांग्रेस सरकार के समय हुई थी।
निष्कर्षः भाजपा शासन के दौरान दलितों को अपमान और भेदभाव का सामना करना पड़ा है। उन्हें सत्तारूढ़ राजनीतिक दल के पदाधिकारियों और सरकार में मंत्रियों से अपमानित होना पड़ा है। दलितों को लगता है कि मौजूदा सरकार ने शीर्ष और स्थानीय अदालतों में उनके अधिकारों का बचाव नहीं किया और जानबूझकर उनके वैध संवैधानिक अधिकारों के साथ छेड़छाड़ की है। इन परिस्थितियों में दलित अलग-थलग, असंतुष्ट और निराश महसूस करते हैं। यही वजह है कि पिछले पांच वर्षों में उन्होंने दो बार ‘भारत बंद’ का आह्वान किया। क्या यह परिपक्व होते लोकतंत्र में लोकतांत्रिक मूल्यों की गिरावट है?
(लेखक सेंटर फॉर द स्टडी ऑफ सोशल सिस्टम, जेएनयू में समाजशास्त्र के प्रोफेसर हैं, यह उनके निजी विचार हैं)