छत्तीसगढ़ में माओवाद विरोधी केंद्रीय बलों के अभियान में 21 मई को कुछ खास उपलब्धि का दिन था। तभी तो उस दिन मुठभेड़ में मारे गए 70 वर्षीय माओवादी नेता नंवबल्ला केशव राव उर्फ बसवराजू की खबर खुद केंद्रीय गृह मंत्री अमित शाह ने एक्स पर पोस्ट की। उन्होंने लिखा, ‘‘आज छत्तीसगढ़ के नारायणपुर में एक ऑपरेशन में हमारे सुरक्षा बलों ने 27 खूंखार माओवादियों को मार गिराया है, जिनमें सीपीआइ-माओवादी के महासचिव, शीर्ष नेता तथा नक्सल आंदोलन की रीढ़ नंबाला केशव राव उर्फ बसवराजू भी है। मैं नक्सलवाद के खिलाफ देश की लड़ाई के तीन दशकों में पहली बार इस बड़ी सफलता के लिए हमारे बहादुर सुरक्षा बलों और एजेंसियों की सराहना करता हूं।’’ उग्र वामपंथ और माओवाद की चुनौती से निपटने के लिए केंद्रीय सशस्त्र बलों का अभियान कुछ साल से छत्तीसगढ़, तेलंगाना और महाराष्ट्र में जारी है। इस दौरान कथित तौर पर 54 माओवादियों को गिरफ्तार किया गया है और 84 ने आत्मसमर्पण किया है। शाह का दावा है, ‘‘मोदी सरकार 31 मार्च 2026 से पहले नक्सलवाद के खात्मे के लिए दृढ़ संकल्प है।’’
तो, क्या वाकई बसवराजू की मौत छत्तीसगढ़, महाराष्ट्र, तेलंगाना, झारखंड और ओडिशा के लाल गलियारे में माओवादी चुनौती से निपटने में अहम है? बेशक, यह छोटी घटना नहीं है। लेकिन 70 साल के बसवराजू अब बूढ़े हो चले थे और संघर्ष की ताकत घट गई थी। श्रीकाकुलम जिले के जियन्नापेटा गांव के बसवराजू नवंबर 2018 से सीपीआइ माओवादी के महासचिव बने। पिछले 35 साल से माओवादी संगठन की केंद्रीय कमेटी के सदस्य बसवराजू पर करीब डेढ़ करोड़ रुपये का इनाम घोषित था। अपने साथ हमेशा एके 47 रायफल रखने वाले बसवराजू का छत्तीसगढ़, आंध्र प्रदेश, तेलंगाना और महाराष्ट्र के इलाके में बहुत दबदबा था। 24 साल से पोलित ब्यूरो सदस्य के तौर पर सक्रिय बसवराजू वारंगल से इंजीनियरिंग की पढ़ाई कर सीपीआइ माओवादी के साथ जुड़ गए थे। बसवराजू को छापामार युद्ध और सुरक्षा बलों को चकमा देने में में महारत हासिल थी। संगठन में ज्यादातर समय हथियारबंद कमान का संचालन किया और आक्रामक हमलों के लिए जाना जाता था। कहते हैं, बसवराजू ने ही 25 मई 2013 में हुए झीरम घाटी हत्याकांड की योजना रची थी, जिसमें कांग्रेस नेता विद्याचरण शुक्ल, छत्तीसगढ़ कांग्रेस अध्यक्ष नंद कुमार पटेल, कांग्रेस नेता महेन्द्र कर्मा वगैरह मारे गए थे। उसमें कुल 33 लोगों की घात लगाकर निर्मम हत्या कर दी गई थी।
माओवादियों के खिलाफ सुरक्षा बलों की कार्रवाई
साठ और सत्तर के दशक में पश्चिम बंगाल के नक्सलवाड़ी से उभरा उग्र अतिवामपंथ का आंदोलन पिछले तीन-चार दशक में आदिवासी लाल गलियारे में सिमट आया। मोटे तौर पर आदिवासियों की लड़ाई ही उसका हथियार बन गया। उनकी हिंसक कार्रवाइयों की वजह से आदिवासी बहुल इस इलाके को लाल गलियारा कहा जाने लगा। इसका विस्तार झारखंड, पश्चिम बंगाल, ओडिशा, आंध्र प्रदेश, तेलंगाना, छत्तीसगढ़, महाराष्ट्र, मध्य प्रदेश तक रहा है। ये क्षेत्र विकास की मुख्यधारा से वंचित रहे हैं।
इसलिए पशुपति (नेपाल) से लेकर तिरुपति तक लाल गलियारा कानून-व्यवस्था के लिए सबसे बड़ी चुनौती बन गया। एक समय ऐसा आया कि पश्चिम बंगाल, झारखंड, बिहार, ओडिशा, छत्तीसगढ़, मध्य प्रदेश, आंध्र प्रदेश और तेलंगाना का बड़ा हिस्सा इससे बुरी तरह प्रभावित हुआ।
दरअसल उग्र वामपंथ का इतिहास देश में कम्युनिस्ट आंदोलन से जुड़ा रहा है। भारतीय कम्युनिस्ट पार्टी की स्थापना 26 दिसंबर 1925 को कानपुर में हुई। कम्युनिस्ट पार्टी को तेभागा 1946 (बंगाल) और तेलंगाना 1945 (आंध्र प्रदेश) के किसान आंदोलनों से ख्याति और शक्ति प्राप्त हुई। स्वतंत्रता के बाद भारतीय राज्य के स्वरूप को लेकर भी कम्युनिस्ट पार्टी में मतभेद रहे। स्वतंत्रता के बाद यह समस्या खड़ी हुई की कम्युनिस्ट पार्टी लोकतांत्रिक संवैधानिक मार्ग पर चलेगी या वह हिंसा की कथित क्रांतिकारी राह अपनाएगी। लेकिन भारतीय कम्युनिस्ट पार्टी ने संवैधानिक लोकतंत्र का मार्ग चुना जिससे कम्युनिस्ट पार्टी के उग्रपंथी कार्यकर्ता हतोत्साहित और दिग्भ्रमित हुए। 1962 में भारत पर चीन के आक्रमण पर भी कम्युनिस्ट पार्टी में टकराव हुआ। उग्रपंथी धड़े चीन की लाइन के समर्थक थे। इसलिए भारत में हथियारबंद कम्युनिस्ट धड़े खुद को माओ और चीन से जोड़ते रहे। 1964 में भाकपा का विभाजन हो गया और माकपा का जन्म हुआ।
फिर, माकपा से टूटकर भाकपा (मार्क्सवादी लेनिनवादी) का गठन वर्ग संघर्ष की धारणा के साथ हुआ। पश्चिम बंगाल के नक्सलबाड़ी गांव में 24 मई 1967 को जांच करने पहुंचे एक पुलिस दल पर हुए हिंसक हमले में एक पुलिस अधिकारी की मृत्यु हो गई। अगले दिन पुलिस की कृषक सभा पर चलाई गई गोली से 11 लोगों की मौत हो गई। पश्चिम बंगाल के तत्कालीन मुख्यमंत्री सिद्धार्थ शंकर राय ने इस आंदोलन को कुचल दिया।
लेकिन 1969 में चारू मजूमदार और कानू सान्याल सहित उनके साथियों ने माकपा से अलग होकर भारतीय कम्युनिस्ट पार्टी (मार्क्सवादी-लेनिनवादी) का गठन किया। चारु मजूमदार की वर्ग शत्रुओं के सफाई की रणनीति से काफी खून खराबा हुआ। बांग्लादेश के गठन के बाद केंद्र सरकार का ध्यान पैर पसार रहे नक्सलवाद की और गया। जुलाई 16, 1972 को चारू मजूमदार को कोलकाता के उनके भूमिगत ठिकाने से पकड़ लिया गया और 28 जुलाई को पुलिस हिरासत में ही उनकी मौत हो गई। आगे चलकर सीपीआइ-एमएल विभिन्न गुटों में बंट गई। धीरे-धीरे ये लगभग 40 छोटे-छोटे गुट विभिन्न क्षेत्रों में काम करने लगे। 22 अप्रैल 1980 को कोंडपल्ली सीतारामैया ने पीपुल्स वार ग्रुप (पीजीडब्ल्यू) की स्थापना की।
वामपंथी उग्रवादी हिंसा की घटनाएं 2010 में 1936 के साथ अपने उच्चतम स्तर पर थीं, 2024 में घटकर 374 रह गईं। उनमें लगभग 81 प्रतिशत की कमी आई। इस अवधि के दौरान कुल मौतों (आम लोगों और सुरक्षा बलों) की संख्या भी 85 प्रतिशत घटकर 2010 में 1005 से 2024 में 150 रह गई है।
सरकार ने माओवादी हिंसा से निपटने के लिए बहुआयामी रणनीति अपनाई है। केंद्र सरकार ने 31 मार्च 2026 तक नक्सलवाद को पूरी तरह से खत्म करने के लिए प्रतिबद्धता जताई है। सरकार ने शून्य सहनशीलता नीति के साथ कानून का राज स्थापित करने तथा गैर-कानूनी हिंसक गतिविधियां रोकने की नीति पर काम करना शुरू किया है।