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कानून से अधिक जोर व्यावहारिकता पर

1949-2019 के बीच न्यायिक आदेश मुस्लिमों के पक्ष में कभी नहीं रहे, हमेशा 'यथास्थिति' बदली गई
6 दिसंबर 1992 का दिनः बाबरी म‌स्जिद विध्वंस को बेरोकटोक अंजाम देते हिंदुत्ववादी संगठनों के लोग या 'कारसेवक'

सियासी सोच भले कुछ कहती हो, लेकिन अयोध्या का विवाद बाबर के साथ 1528 में शुरू नहीं हुआ था, बल्कि बाबरी मस्जिद के बाहर बने चबूतरे को लेकर 1886 में ब्रिटिश अदालत में दाखिल याचिका से शुरू हुआ। इस चबूतरे का निर्माण महंत रघुवर दास ने 1850 के दशक में कराया था। जब अंग्रेजों ने चबूतरे के ऊपर मंदिर निर्माण पर रोक लगा दी, तो दास ने रोक हटाने के लिए तीन न्यायिक मंचों में अपनी याचिका दाखिल की। लेकिन हर बार अदालतों ने यथास्थिति बनाए रखने पर जोर दिया। मतलब यह कि मुसलमान बाबरी मस्जिद के अंदर नमाज पढ़ेंगे, जबकि हिंदुओं का अधिकार चबूतरे पर प्रार्थना करने तक सीमित होगा। अब 2019 में पांच न्यायाधीशों की पीठ अपने फैसले में मुसलमानों की उदारता को उनके खिलाफ मानकर इस नतीजे पर पहुंची कि बाबरी मस्जिद पर मुसलमानों का कब्जा सहज और बेरोकटोक नहीं था। अदालत ने कब्जे के कानून के जरिए मुसलमानों  के कब्जे की निरंतरता के दावे को खारिज कर दिया। मुसलमानों ने कभी भी जमीन का दावा नहीं किया था, क्योंकि इस्लाम में यह माना जाता है कि मस्जिद की जमीन हमेशा अल्लाह के पास होती है। अदालत ने इस मुद्दे पर वक्फ के कानून को सही ढंग से दर्ज किया। न्यायालय की यह टिप्पणी  सही नहीं थी कि मुसलमान 1528 से 1855 के बीच मस्जिद के एकमात्र उपयोगकर्ता के अपने दावे को भी साबित नहीं कर सके।

यह बात जगजाहिर है कि बाबर ने मस्जिद के लिए 60 रुपये का अनुदान दिया था और मीर बकी को मुतव्वली नियुक्त किया था। इसलिए किसी के मन में शक की कोई गुंजाइश नहीं होनी चाहिए, कि शक्तिशाली मुगल साम्राज्य के दौरान स्थानीय पुलिस अधिकारियों ने हिंदू प्रार्थना के लिए किसी मस्जिद के इस्तेमाल की इजाजत दी होगी। मुगलों के बाद शक्तिशाली मुस्लिम नवाबों ने फैजाबाद के इलाके वाले अवध पर शासन किया, जो 1722 से उनकी राजधानी थी और अयोध्या से सिर्फ आठ किलोमीटर दूर था। यह सामान्य समझ से बाहर है कि इस अवधि के दौरान इस ऐतिहासिक और जो खास मस्जिद का इस्तेमाल सिर्फ मुसलमान न करके कोई और भी करता होगा। खैर, हाइकोर्ट ने इस मामले को फ्रेम भी नहीं किया था और न ही इन तीन सदियों के दौरान किसी भी पार्टी ने मुसलमानों द्वारा मस्जिद के लगातार इस्तेमाल को साबित करने या खारिज करने के दावे के लिए कभी कोई सबूत मांगा। 1885-86 के तीन फैसले साफ तौर पर साबित करते हैं कि यह बाहरी आंगन यानी चबूतरा ही था, जिसे राम का जन्मस्थान माना जाता था और मुसलमानों को वहां हिंदुओं के शांतिपूर्ण प्रार्थना को लेकर दिक्कत नहीं थी। तीनों अदालतों ने चबूतरे पर मंदिर निर्माण की इजाजत नहीं दी।

सुप्रीम कोर्ट ने दूसरी तमाम बातों पर आस्था को अहमियत दी। अदालत ने यह तो कहा कि आस्था व्यक्तिगत मामला है और आस्था के आधार पर भूमि विवाद का फैसला नहीं किया जा सकता। फिर भी अदालत ने अंततः विवादित भूमि को हिंदू मंदिर निर्माण के लिए दे दिया, क्योंकि कुछ लोगों का मानना था कि राम का जन्म अयोध्या में विवादित स्थल पर हुआ था। हालांकि, किसी भी संस्कृत अभिलेख में ऐसा नहीं कहा गया है और इसका जिक्र वाल्मीकि रामायण या तुलसीदास के रामचरितमानस में भी नहीं है। दरअसल, 18वीं सदी से पहले के किसी भी ऐतिहासिक रिकॉर्ड ने ऐसा दावा नहीं किया था कि भगवान राम का जन्म ठीक उसी जगह पर हुआ था। ऐसे में, अदालत ने धर्म की स्वतंत्रता के तहत अपने पहले के फैसलों की ही अनदेखी की, जो कहता है कि वह किसी भी मजहबी आस्था की जांच नहीं कर सकता और न ही इसकी तर्कसंगतता की पड़ताल कर सकता है। अदालत ने वास्तव में अपने अनिवार्य सिद्धांत की अनदेखी की। इसका मतलब है कि कानून की जगह लोगों के एक वर्ग की आस्था को तवज्जो दी गई।

संविधान के अनुच्छेद 25 के तहत धार्मिक स्वतंत्रता के संदर्भ में

यह निर्णय एक मील का पत्थर है। जब कोई पक्ष धर्म की स्वतंत्रता का दावा करता है, तो अदालत इस बहस में नहीं पड़ सकती कि आस्था तर्कसंगत है या तर्कहीन, उचित या अनुचित। अदालत ने फैसला सुनाते हुए कानून और आस्था के बीच संतुलन बनाने की कोशिश की। लेकिन, जाहिर है कि आखिरी जीत आस्था की ही हुई।

एक तरफ, अदालत ने माना है कि भारतीय पुरातत्व सर्वेक्षण (एएसआइ) रिपोर्ट-2003 यह साबित नहीं करती है कि बाबरी मस्जिद के निर्माण के लिए एक मंदिर, विशेष रूप से राम मंदिर को ध्वस्त किया गया था। अदालत ने केस संख्या-5 यानी रामलला विराजमान का मूल तर्क खारिज कर दिया। इसी तरह, न्‍यायालय ने केस संख्या-5 में दूसरे वादी को भी नहीं माना है। यानी राम जन्मभूमि का न्यायिक अस्तित्व नहीं माना। वास्तव में, अदालत ने लॉ ऑफ लिमिटेशन के आधार पर निर्मोही अखाड़ा को मुकदमेबाजी से हटा दिया। इसने यह भी कहा कि अखाड़ा का जमीन के स्वामित्व वाले मुकदमे में अधिकार नहीं है, भले ही वह पहला पक्षकार था। उसने सिर्फ प्रबंधन का अधिकार मांगा था। अदालत ने कहा कि रघुवर दास ने भले ही खुद को निर्मोही अखाड़े का महंत बताया हो, लेकिन उन्होंने अखाड़े की ओर से 1885 का मूल मामला दर्ज नहीं किया था। अखाड़ा 100 साल से केस लड़ रहा है। यह संभवतः जरूरी था, क्योंकि निर्मोही अखाड़े की मौजूदगी में केस संख्या-5 के रामलला को इस मामले को दर्ज करने का भी अधिकार नहीं हो सकता था। अदालत अंततः केस संख्या-5 के वादी को ही जमीन देना चाहती थी।

अदालत ने साफ तौर पर कहा कि वे बाबरी मस्जिद निर्माण के लिए राम मंदिर के विध्वंस का कोई सबूत नहीं दे सके, लेकिन अदालत ने अंततः इसी पक्ष को जमीन दी। यही वह सवाल था, जिसे इलाहाबाद हाइकोर्ट ने 2010 में एएसआइ से पूछा था। एएसआइ ने इस संदर्भ का जवाब नहीं दिया। सुप्रीम कोर्ट की पीठ ने कहा कि रिपोर्ट सिर्फ यह बताती है

कि मस्जिद के निर्माण के समय विवादित जमीन खाली नहीं थी। एएसआइ की रिपोर्ट में यह नहीं बताया गया है कि जमीन के नीचे क्या था। हालांकि, मस्जिद के नीचे कुछ निर्माण के मलबे की ओर इशारा किया गया है। भले ही सतह के नीचे हिंदू संरचना थी, लेकिन एएसआइ की रिपोर्ट ने यह साबित नहीं किया है कि वह ढांचा राम से जुड़ा था। अदालत ने यह भी कहा कि मस्जिद में इस्तेमाल किए गए काले कासुती पत्थर के खंभे पहले से मौजूद ढांचे के नहीं थे।

अदालत ने माना कि 22-23 दिसंबर 1949 की दरम्यानी रात को कुछ लोगों ने मस्जिद में जबरन घुसकर अवैध रूप से भगवान राम की मूर्ति को बाबरी मस्जिद के केंद्रीय गुंबद के नीचे रख दिया। इस तरह चार दशक बाद 1989 में पक्षकार बने रामलला ने गैरकानूनी गतिविधि के तहत मस्जिद में प्रवेश किया और आखिरकार जमीन उन्हें दे दी गई। समानता का सिद्धांत है कि जो समता चाहता है, उसके हाथ खुद साफ होने चाहिए। इससे हमें कोई मतलब नहीं कि भगवान राम को उनके अनुयायियों के अवैध कार्यों के लिए दोषी ठहराया जाए। दरअसल, नवंबर-दिसंबर, 1949 में चबूतरे पर एक हवन इस घोषणा के साथ किया गया कि हवन के अंत में एक चमत्कार होगा और रामलला की मूर्ति खुद मस्जिद के अंदर जाएगी। यह चमत्कार नहीं हुआ, जो यह बतलाता है कि रामलला अपनी इच्छा से मस्जिद के अंदर नहीं गए थे।

1949 से 2019 के दरम्यान न्यायिक आदेश कभी भी मुसलमानों के पक्ष में नहीं रहे और हर बार यथास्थिति को एक नया मोड़ दिया गया। 22-23 दिसंबर 1949 की घटना के कुछ दिनों बाद स्थानीय अदालत ने यथास्थिति कायम रहने दी। यानी मुसलमानों को मस्जिद के अंदर नमाज पढ़ने की अनुमति नहीं होगी, मूर्ति नहीं हटाई जाएगी और हिंदुओं के पास राम की पूजा करने का 'सीमित' अधिकार होगा और पुजारी भोग लगाएंगे। भले ही यह अब भी शर्की वास्तुकला का महान प्रतीक था, लेकिन कोई मस्जिद नहीं रह गई थी। किसी की आपराधिक गतिविधि के वजह से मस्जिद को मंदिर में बदल दिया गया था।

1986 में यथास्थिति में बदलाव का एक और मोड़ आया। फिर, अदालत ने उस पर मुहर लगाई। एक फरवरी 1986 को जिला मजिस्ट्रेट के.एम. पांडे ने मस्जिद के अंदर मूर्ति और उसके दर्शन के लिए आए भक्तों के बीच ‘दीवार’ का काम करने वाले गेट को खोलने का आदेश दिया। डीएम ने तर्क दिया कि गेट को खोल देने से ‘कोई आसमान नहीं गिरने वाला’ है। पांडे के आदेश ने रामलला की मूर्ति तक बेरोकटोक पहुंच की इजाजत देकर 'यथास्थिति' की फिर एक अलग व्याख्या की। अंततः उसने 1992 में मस्जिद विध्वंस का रास्ता तैयार कर दिया।

6 दिसंबर 1992 को मस्जिद का विध्वंस भारत में कानून के शासन का भी विध्वंस था, जिसे खुद सुप्रीम कोर्ट ने बेहद दुर्भाग्यपूर्ण बताया है। हमें फैसले में विध्वंस के बारे में और अधिक व्याख्या की उम्मीद थी। अदालत को स्पष्ट रूप से कहना चाहिए था कि जो कोई भी इस विध्वंस से जुड़ा था या जिसका नाम चार्जशीट में है, वह राम मंदिर का निर्माण करने वाले नए ट्रस्ट का ट्रस्टी नहीं बन सकता है। चाहे देश भर में लालकृष्ण आडवाणी की उग्र रथयात्रा हो या पीवी नरसिंह राव सरकार की बढ़ती निष्क्रियता- 1992 के पापों से कोई भी नहीं बच सकता है। अयोध्या से मिली खुफिया रिपोर्टों के साथ-साथ रामजन्मभूमि आंदोलन के नेताओं के बयानों से स्पष्ट था कि कारसेवा 'प्रतीकात्मक' नहीं  होने जा रही थी (जैसा कि उसके पहले सुप्रीम कोर्ट को वचन दिया गया था)। इरादा मस्जिद गिराने का था और विध्वंस को प्रभावी ढंग से अंजाम दिया गया। मस्जिद विध्वंस के कुछ ही घंटों के भीतर ढांचा के स्थान पर एक अस्थाई मंदिर की संरचना बन गई। विध्वंस के महीने भर के भीतर इलाहाबाद हाइकोर्ट ने अस्थाई मंदिर में दर्शन की अनुमति दे दी।

इलाहाबाद हाइकोर्ट की लखनऊ पीठ ने 2010 में 2-1 के बहुमत से फैसला सुनाया कि जमीन विवाद को संपत्ति के संयुक्त स्वामित्व के सवाल के रूप में तय किया जाना चाहिए। इसलिए, बहुमत से फैसला दिया गया कि विवादित जमीन को संपत्ति के तीन हिस्सों मुसलमान, रामलला और निर्मोही अखाड़ा के बीच बांटा जाना चाहिए। इस फैसले को अब पूरी तरह पलट दिया गया है, क्योंकि पूरी जमीन राम मंदिर निर्माण के लिए एक ट्रस्ट को दी जा रही है।

इस तरह सुप्रीम कोर्ट के फैसले के बाद हमें मालूम है कि राम मंदिर किसी मुगल सम्राट ने ध्वस्त नहीं किया था, लेकिन पूरी दुनिया देखेगी कि कैसे आधुनिक उदारवादी धर्मनिरपेक्ष लोकतंत्र में एक मस्जिद को दिनदहाड़े ढहा दिया गया। और फिर, उन्हीं लोगों ने अब इस केस को भी जीत लिया है।

(फैजान मुस्तफा संविधान विशेषज्ञ और ऐमन मोहम्मद एनएएलएसएआर यूनिवर्सिटी, हैदराबाद में रिसर्च स्कॉलर हैं)

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