Advertisement
19 अगस्त 2024 · AUG 19 , 2024

सरकारी कर्मचारीः पुराना सवाल, नया संदर्भ

राष्ट्रीय स्वंयसेवक संघ से प्रतिबंध हटने के बाद देखना दिलचस्प होगा कि सरकार को इससे बढ़त कैसे मिलेगी
आरएसएस का पथसंचलन

हाल ही में केंद्र सरकार ने राष्ट्रीय स्वयंसेवक संघ (आरएसएस) की गतिविधियों में सरकारी कर्मचारियों के भाग लेने पर लगी 58 साल पुरानी बंदिश को कार्मिक और प्रशिक्षण विभाग के एक आदेश की मार्फत हटा लिया। आदेश आने के कोई एक पखवाड़े बाद यह सार्वजनिक विमर्श का मुद्दा बना, तो अलग-अलग दलीलें सामने आ रही हैं। इन सभी में फैसले का तात्कालिक संदर्भ संघ और भारतीय जनता पार्टी (भाजपा) के बीच उपजे हालिया तनावों और  बयानबाजियों को बताया जा रहा है।

गौरतलब है कि फैसले की पृष्ठभूमि मध्य प्रदेश हाइकोर्ट में एक सेवानिवृत्त सरकारी कर्मचारी की याचिका है, जिसने प्रतिबंध हटाने की मांग की थी। पहली सुनवाई पिछले साल सितंबर में हुई थी। छह सुनवाइयों के बाद 10 जुलाई को केंद्र सरकार ने एक हलफनामा दाखिल कर अदालत को बताया कि उसने प्रतिबंधित संगठनों में से संघ का नाम हटाने का फैसला ले लिया है। छह दशक पुराने इस प्रतिबंध को लेकर कितनी गफलत थी, इसका पता इससे चलता है कि कोर्ट के बार-बार आदेश के बावजूद केंद्र सरकार ने कोई जवाब दाखिल नहीं किया। कम से कम पांच तारीखें ऐसी रहीं जब अदालत ने केंद्र सरकार के कर्मचारियों के आरएसएस से जुड़ने पर लगे प्रतिबंध से संबंधित सर्कुलर और ऑफिस मेमोरेंडम का आधार जानने की कोशिश की, लेकिन सरकार ने जवाब नहीं दिया। तब अदालत ने वरिष्ठ अधिकारियों को तलब किया।

 फैसले की विडंबना

जब पहली बार संघ के प्रचारक अटल बिहारी वाजपेयी प्रधानमंत्री बने, तब भी यह प्रतिबंध जारी रहा। फिर दूसरे प्रचारक नरेंद्र मोदी के तीसरी बार प्रधानमंत्री बनने तक यही स्थिति रही और सार्वजनिक दायरे में इस पर कहीं कोई चर्चा नहीं हुई। इसके बावजूद कथित तौर पर 2023 के अंत तक संघ की करीब एक लाख शाखाएं देश भर में चलती रहीं और सरकारी कर्मचारी उनमें जाते रहे। इतना ही नहीं, मंत्रालयों से लेकर विभागों और उच्च शिक्षा संस्थानों में नियुक्तियों के पीछे संघ की भूमिका की चर्चा होती रही।

दिलचस्प यह भी है कि जिस मध्य प्रदेश से इस प्रतिबंध को चुनौती दी गई, वहां भाजपा सरकार आने पर 2003 में ही यह प्रतिबंध हटा लिया गया था। ऐसा करने वाला यह इकलौता राज्य था। इस संबंध में राज्य सरकार के कर्मचारियों के लिए दो सर्कुलर 2006 में जारी किए गए थे। एक में कर्मचारियों को किसी भी राजनैतिक संगठन या उसकी गतिविधियों से अलग रहने को कहा गया था। दूसरे में राजनैतिक संगठनों की सूची से आरएसएस को अलग करने की बात कही गई थी।

हालांकि केंद्रीय लोक सेवा आचार नियम 1964 की धारा 5 (1) साफ कहती है कि कोई भी सरकारी कर्मचारी किसी राजनैतिक संगठन का सदस्य नहीं हो सकता या उससे संबद्ध नहीं हो सकता, जो राजनीति में हिस्सा लेता हो। न ही वह किसी भी राजनैतिक आंदोलन या गतिविधि में भाग लेगा, उसे मदद करेगा या किसी भी रूप में उससे संबद्घ रहेगा। जाहिर है, संघ को राजनैतिक संगठनों की श्रेणी से निकाल दिया गया है और उस पर 1966 में लगाए गए प्रतिबंध को अब हटा लिया गया है।

 संघ पर फिर बहस

संघ कहता रहा है कि वह राजनैतिक नहीं, सांस्कृतिक संगठन है। जब सरकार ने मध्य प्रदेश हाइकोर्ट के पांच नोटिस पर कोई जवाब नहीं दिया, तो अदालत ने 10 जुलाई को मतलब यह निकाल लिया कि संघ के सांप्रदायिक या धर्मनिरपेक्षता-विरोधी होने के नाम पर सरकारी कर्मचारियों के उसमें जाने पर लगाए गए प्रतिबंध का कोई आधार नहीं था। इसी के सहारे कोर्ट ने फैसला दे दिया कि संघ राजनैतिक संगठन नहीं है।

संघ राजनैतिक संगठन है या सांस्कृतिक, इस पर बहस करने के कई संदर्भ हो सकते हैं लेकिन 1966 में सरकारी कर्मचारियों के इसमें जाने पर लगे प्रतिबंध की पृष्ठभूमि के तौर पर सरदार वल्लभ भाई पटेल की एक चिट्ठी को पढ़ा जाना चाहिए, जो उन्होंने संघ के गुरु गोलवलकर को लिखी थी। यह पत्र उन्होंने महात्मा गांधी की हत्या के बाद संघ पर लगाए प्रतिबंध को जायज ठहराते हुए संघ प्रमुख को 1948 में लिखा था।

पटेल लिखते हैं, ‘‘उनके सारे भाषण सांप्रदायिक विष से भरे हुए थे। इसी विष का अंतिम परिणाम था कि देश को गांधीजी के अनमोल जीवन का बलिदान देखना पड़ा। इसलिए न तो लोगों की और न ही सरकार की लेशमात्र भी सहानुभूति संघ के लिए रह गई। वास्तव में विरोध ही तेज हुआ। यह विरोध और उग्र हुआ जब संघ के लोगों ने गांधीजी के निधन के बाद उत्सव मनाया और मिठाइयां बांटीं। इन परिस्थितियों में सरकार के लिए यह अपरिहार्य हो गया कि वह आरएसएस के खिलाफ कार्रवाई करे।’’

इस बारे में उत्तर प्रदेश कांग्रेस के नेता शाहनवाज आलम याद दिलाते हैं, ‘‘न्यायलय को गांधीजी की हत्या की जांच के लिए इंदिरा गांधी सरकार द्वारा गठित जेएल कपूर कमीशन की रिपोर्ट पढ़नी चाहिए, जिसमें समाजवादी नेता जयप्रकाश नारायण, राममनोहर लोहिया और कमलादेवी चट्टोपाध्याय की प्रेस कॉन्फ्रेंस में दिए गए उस बयान का जिक्र है, जिसमें उन्होंने कहा था कि गांधी की हत्या के लिए कोई एक व्यक्ति जिम्मेदार नहीं है बल्कि इसके पीछे एक बड़ी साजिश और संगठन है। इस संगठन में उन्होंने आरएसएस और हिंदू महासभा का नाम लिया था।’’

अभी तक तो भाजपा की तरफ से 1966 के प्रतिबंध को ‘असंवैधानिक’ ही बताया जा रहा है। संघ से जुड़े राकेश सिन्हा एक अंग्रेजी दैनिक में लिखे एक लेख में कहते हैं कि ‘सांस्कृतिक’ क्या होता है। इसके लिए उन्होंने 1968 में राज्यसभा में कच्छ अवॉर्ड पर हुई बहस के संदर्भ में संघ के संकल्प‍ का हवाला दिया है और संघ के नेता दत्तोपंत ठेंगड़ी को उद्धृत किया है। ठेंगड़ी के कथन के आधार पर वे कहते हैं कि ‘राष्ट्रीय सुरक्षा और अखंडता’ के सवाल राजनीतिक नहीं, सांस्कृतिक भी हैं। यदि संघ हस्तक्षेप करता है, तो महज इसलिए वह राजनीतिक संगठन नहीं हो जाता। सिन्हा तत्कालीन गृह मंत्री वाइ.बी. चव्हाण का जवाब भी उद्घृत करते हैं कि “यह एक दार्शनिक सवाल है।’’

 अपने-अपने राग

ताजा फैसले का तात्कालिक कारण विशुद्ध व्यावहारिक बताया जा रहा है। आम चुनाव के पहले सरसंघचालक का बयान, कि संघ अपना शताब्दी वर्ष सार्वजनिक धूमधाम से नहीं मनाएगा; उसके बाद भाजपा अध्यक्ष जेपी नड्डा का बयान, कि भाजपा को अब संघ की जरूरत नहीं रह गई है; चुनाव परिणाम के बाद फिर भागवत का ‘सुपरमैन’ वाला बयान और इंद्रेश कुमार का सीधा बयान- ये सब मिलकर भाजपा और संघ के बीच बढ़ते तनाव को दर्शाते रहे हैं। चुनाव के बाद मोहन भागवत का दो बार गोरखपुर जाना और उसके बाद योगी आदित्यनाथ के खिलाफ केशव मौर्य के सहारे  केंद्र की गोलबंदी की खबर अब सामने है। इसी रोशनी में जानकार सरकार के ताजा फैसले को देख रहे हैं।

इस बीच यूपी कांग्रेस के अल्पसंख्यक प्रकोष्ठ के प्रेस नोट ने इस फैसले को संवैधानिक अधिकारों पर हमला बताया और कहा है कि सरकारी कर्मचारियों को संघ में जाने की छूट देकर सरकार दलितों, अल्पसंख्यकों, आदिवासियों, पिछड़ों और महिलाओं के खिलाफ भेदभाव को संस्थागत रूप देना चाहती है।

 अतीत की सफाई

सरकारी कर्मचारियों के लिए प्रतिबंधित संगठनों की सूची से संघ को अलग करने का और उसमें जमात-ए-इस्लामी को बनाए रखने का एक और आयाम है। पिछले दिनों जब प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी ने कांग्रेस के घोषणापत्र पर मुस्लिम लीग की छाप वाला बयान दिया था तब हिंदू महासभा, मुस्लिम लीग और देश विभाजन के रिश्ते की याद कांग्रेस अध्यक्ष मल्लिकार्जुन खड़गे ने दिलाई थी। संदर्भ यह है कि 1943 में सिंध की प्रांतीय सरकार में मुस्लिम लीग और हिंदू महासभा दोनों शामिल थे। भारत का विभाजन करके पाकिस्तान बनाने का पहला प्रस्ताव मार्च 1943 में सिंध की असेंबली में ही पारित हुआ था। इसलिए ताजा आदेश उस अतीत को अविश्वसनीय बनाने का भी है जिसमें हिंदू महासभा और मुस्लिम लीग विभाजन के सहभागी थे।

इस आदेश की टाइमिंग आम चुनाव परिणाम की तात्कालिक पृष्ठभूमि में भाजपा को संघ की बढ़ती जरूरत का भी पता देती है। संघ के कुछ प्रचारकों को गवर्नर बनाया जाना और 29 जुलाई को हुई दोनों की बैठक को भी इसी रोशनी में देखा जा सकता है।

Advertisement
Advertisement
Advertisement