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28 नवंबर 2022 · NOV 28 , 2022

क्रिकेट: लड़कियां भी कमाई के छक्के जड़ेंगी

बीसीसीआइ ने महिला क्रिकेटरों के लिए पुरुष खिलाड़ियों के समान फीस देने का ऐलान कर नए दौर का आगाज किया
गेंदबाजी में नाम कमाने वाली झूलन गोस्वामी

अक्टूबर महीने की 27 तारीख को जब भारतीय क्रिकेट कंट्रोल बोर्ड के सचिव जय शाह ने एक ट्वीट किया, “भेदभाव से निपटने की दिशा में पहले कदम की घोषणा करते हुए खुशी हो रही है। हम अपने अनुबंधित महिला क्रिकेटरों के लिए समान वेतन नीति लागू कर रहे हैं। पुरुष और महिला क्रिकेटरों दोनों के लिए मैच फीस समान होगी क्योंकि हम क्रिकेट में स्त्री-पुरुष समानता के नए युग में प्रवेश कर रहे हैं।” इस ट्वीट पर बधाई या प्रशंसा से ज्यादा नाराजगी भरे जवाब थे। वही सब दलीलें, जो दूसरे चर्चित क्षेत्रों राजनीति या बॉलीवुड या कारपोरेट जगत में महिलाओं को उचित प्रतिनिधित्व, समान पारिश्रमिक के सवालों पर दी जाती हैं। जवाबी ट्वीट में प्रमुख ‘चिंता’ थी कि महिला क्रिकेटर अपने खेल से पैसा तो कमाती नहीं, फिर किस बात की ‘बराबरी!’

बीसीसीआइ का यह निर्णय अमेरिका की राष्ट्रीय महिला फुटबॉलरों की अपने महासंघ के साथ समान वेतन के लिए छह साल की लंबी लड़ाई जीतने के ठीक चार महीने बाद आया है। भारत से बाहर भी खेल में यह भेदभाव आम है। टेनिस की दुनिया इसमें अपवाद है। टेनिस जगत ने पुरुष और महिला खिलाड़ियों के बीच समान वेतन बढ़ाने के लिए कदम उठाए हैं और अब सभी चार प्रमुख टेनिस टूर्नामेंट (ऑस्ट्रेलियाई ओपन, रोलां गैरां, विंबलडन और यूएस ओपन) में पुरस्कार की राशि समान होती है। हालांकि टेनिस में पुरुष 5 सेट और महिलाएं तीन सेट खेलती हैं।

बीसीसीआइ के फैसले के बाद मुट्ठी भर लोग थे, जिन्हें इस बात की खुशी थी कि भारत न्यूजीलैंड के बाद दूसरा ऐसा देश बन गया है, जो अपने यहां महिला क्रिकेट खिलाड़ियों को पुरुष खिलाड़ियों के बराबर वेतन देगा। महिला क्रिकेट टीम में ग्लैमर और पॉवर दो बातों की कमी खलने की बात करने वाले शायद नहीं जानते कि लड़कियों के लिए बराबरी के मायने अलग होते है, चाहे खेल हो, बॉलीवुड या कॉरपोरेट जगत। पूर्व टेस्ट क्रिकेटर और भारतीय पेसर करसन घावरी इस फैसले का स्वागत करते हैं और उम्मीद करते हैं कि महिला क्रिकेट का यह नया युग वाकई महिला खिलाड़ियों के लिए नई रोशनी है। आउटलुक से बातचीत में वे कहते हैं, “बदलाव बड़ा शब्द है और यह अचानक एक दिन में नहीं आता। लेकिन मिताली राज, झूलन गोस्वामी जैसी खिलाड़ियों ने जो नींव रखी, संघर्ष किया, उसका फल यह नतीजा है।” उन्हें पूरी आशा है कि भारतीय क्रिकेट कंट्रोल बोर्ड (बीसीसीआइ) सिर्फ पैसे बढ़ा कर ही खिलाड़ियों को नहीं भूल जाएगा बल्कि महिला क्रिकेट को भी पुरुषों के बराबर लोकप्रिय बनाने के लिए प्रयास करेगा। वे कहते हैं, “निश्चित तौर पर महिला क्रिकेट में ग्लैमर लाने के लिए बीसीसीआइ ने कुछ न कुछ सोचा होगा। जब तक इसे बहुत ज्यादा व्यावसायिक नहीं बना दिया जाता, जनता को खींच कर लाने के इंतजाम नहीं किए जाते, तब तक बहुत ज्यादा परिवर्तन की उम्मीद नहीं की जा सकती। और इसके लिए जरूरी है कि खेल में ग्लैमर हो।”

समान वेतन की ओर भारतीय महिला क्रिकेट टीम

समान वेतन की ओर भारतीय महिला क्रिकेट टीम

महिला क्रिकेट खिलाड़ियों के सुकून के बीच राजनीति अभी भी 33 फीसदी आरक्षण की बाट जोह रही है और बॉलीवुड में असमान फीस का मुद्दा कोई नई बात नहीं है। अभी भी ज्यादातर नायिकाएं, अच्छी भूमिका के बावजूद नायकों से कम फीस लेती आई हैं। या इसे यूं कहना बेहतर होगा कि नायकों के बराबर पैसे मांगने वाली महिला कलाकारों को फीस देने के बदले बाहर का रास्ता दिखा दिया जाता है। कॉरपोरेट जगत में वेतन वृद्धि और पदोन्नति की असमानताओं पर सेमिनार हो जाना ही काफी होता है।

जैसा कि घावरी कहते हैं कि ग्लैमर जरूरी है तो इस शब्द के हर क्षेत्र में मायने अलग होते हैं। बॉलीवुड में इसका मतलब नितांत अलग है और राजनीति में अलग। लेकिन खेल में ग्लैमर का मतलब पॉवर प्ले है, जो महिला क्रिकेट में कम ही देखने को मिलता है। विराट के शॉट्स, धोनी की फुर्ती, हार्दिक जैसे युवाओं के छक्के...पुरुष क्रिकेट में इतना कुछ होता है कि दर्शक स्टेडिम को खाली नहीं रहने देते। जो छूट जाते हैं वे हर काम छोड़ कर टीवी से चिपके रहते हैं। एक बड़ा वर्ग (महिलाओं सहित) मैच का स्कोर जानने में उत्सुक रहता है। टी20 और आइपीएल ने इस रोमांच में दस का गुणा ही किया है। खेल एक तरह से संपूर्ण मनोरंजन है, जो अंत तक उत्सुकता जगाए रहता है। पॉवर शॉट्स, आखिरी ओवर में कम गेंद पर ज्यादा रनों के पीछे भागना इस रोमांच को इतना बढ़ा देता है कि कुछ चिकित्सक हृदय रोग के मरीजों को ऐसे मैचों से दूरी बनाने तक की सलाह दे डालते हैं।

क्रिकेट कमेंट्रीः एक कला एक विज्ञान के लेखक और भारत में हिंदी कमेंट्री के दिग्गज सुशील दोषी इन बातों से इत्तेफाक तो रखते हैं लेकिन उनका नजिरया अलग ढंग से सकारात्मक है। वे कहते हैं, “पिछली बार जब महिला क्रिकेट कप हुआ था, तो स्टेडियम में अस्सी हजार लोग मौजूद थे। यह कम बड़ी बात नहीं है। रही बात बॉल को बाऊंड्री पार पहुंचा कर छह रन जुटाने की तो यह फिजिकल फिटनेस का मामला है, जिसे हासिल करना इतना भी मुश्किल नहीं।” वे पूर्व भारतीय खिलाड़ी शांता रंगास्वामी का खेल याद करते हैं, जो छक्के जड़ कर सबको हैरत में डाल दिया करती थीं। दोषी कहते हैं, “पैसे आएंगे, तो भारतीय खिलाड़ियों की जीवन शैली में भी बदलाव आएगा। वे खुद का ट्रेनर रख सकती हैं। इससे उनकी फिजिकल फिटनेस, जाहिर-सी बात है, बढ़ेगी। खेल में कई तरह के लोगों की मदद की जरूरत होती है जिसमें ट्रेनर, फीजियो, डाइट सभी की महत्वपूर्ण भूमिका होती है। पुरुष खिलाड़ी भी पहले इन बातों पर ध्यान नहीं देते थे लेकिन निजी ट्रेनर रखने के बाद उनके खेल के बदले रूप को स्पष्ट रूप से देखा जा सकता है।”

दोषी इस बात पर भी जोर देते हैं कि क्रिकेट में समान वेतन से भारत फोर्स बन कर उभरेगा। इसकी वजह यह है कि भारतीय लड़कियां भी बहुत अच्छा खेलती हैं। इंडिया ही ज्यादा पैसा जनरेट कर रहा है। ऐसे में दोनों ही टीमें बेहतर प्रदर्शन करेंगी, तो सब भारत की ओर ही देखेंगे। घावरी कहते हैं, “अब लड़कियां सिर्फ इसलिए खेल में नहीं आएंगी कि उन्हें बैंक, रेलवे या पुलिस में नौकरी मिल जाएगी, बल्कि वे सिर्फ खेलने के लिए आएंगी। आर्थिक ताकत खिलाड़ियों को मानसिक ताकत भी देती है। लड़कियां क्रिकेट को करिअर के तौर पर लेंगी। दूसरे राज्यों से लड़कियां भारत का प्रतिनिधित्व करेंगी, तो टीम मजबूत होगी। दुनिया भर में भारत का डंका बजेगा।”

अगले साल होने वाले महिला आइपीएल के लिए करसन घावरी और सुशील दोषी दोनों ही बहुत आशान्वित हैं। दोनों का मानना है कि इससे महिला क्रिकेट को नई दिशा मिलेगी। घावरी कहते हैं, “महिला क्रिकेट में अभी वैसे भी बहुत ज्यादा टीमें नहीं हैं। ऑस्ट्रेलिया, इंग्लैंड के बाद भारत का ही नंबर आता है।” लेकिन साथ में वे यह भी मानते हैं कि सिर्फ पैसा देना ही काफी नहीं है। इन्फ्रास्ट्रक्चर ऐसा विषय है, जिस पर काम करना बाकी है। लेकिन हां यह बदलाव प्रेरणा तो लाएगा ही और किसी भी खेल को आगे बढ़ाने के लिए सबसे पहले प्रेरणा की ही जरूरत होती है।

बराबरी का हक

क्रिकेट में तो एक बोर्ड होता है, जो फैसले ले सकता है और उसने यह फैसला ले लिया। लेकिन भारतीयों के जिन और दो पसंदीदा विषयों के बारे में बात की गई, वहां न कोई बोर्ड न कोई सचिव। वहां किसी की सुनवाई नहीं। दोनों ही असंगठित क्षेत्र की तरह ही हैं, जहां कोई किसी का खैरख्वाह नहीं। ऐसे में यदि अमिताभ बच्चन अपने इंटरव्यू में यह कहें कि पीकू के लिए दीपिका पादुकोण को उनसे ज्यादा पैसे मिले थे, तो लोगों का मुंह आश्चर्य से खुला रह जाता है। इस सूची में करीना कपूर या कंगना रणौत की बात करना इसलिए बेमानी है क्योंकि दो-चार नायिकाओं की फीस को बॉलीवुड की शैली नहीं कहा जा सकता। यही वजह है कि जय शाह के ट्वीट के नीचे कई जवाबों में एक यह भी है, “ये क्या मजाक लगा रखा है, “क्या महिला टीम पुरुषों के समान ही दर्शकों या प्रायोजक राशि लाती हैं क्या?” यह सिर्फ सोच है, जिसे बदलना होगा और यह कोई मुश्किल काम भी नहीं है।

समानता लिखा झंडा थामे खड़े लोगों के पास भी कम से कम फिलहाल ऐसे प्रश्नों का कोई जवाब नहीं है।

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