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भला किसानों का या कॉरपोरेट का?

कृषि कानूनों को तेजी से बढ़ते खाद्य बाजार के संदर्भ में देखना जरूरी
किसानों के नाम पर कॉरपोरेट को फायदा

करीब तीन साल पहले खाद्य प्रसंस्करण मंत्रालय के लिए कंसल्टेंसी फर्म ईवाइ और उद्योग चैंबर सीआइआइ ने एक रिपोर्ट तैयार की थी। नवंबर 2017 की उस रिपोर्ट के अनुसार भारत में खाद्य और पेय पदार्थों का बाजार करीब 27,000 अरब रुपये का था, जो 2025 में 83,000 अरब से अधिक का हो जाएगा। इसमें प्रसंस्कृत खाद्य करीब 70,000 अरब रुपये के होंगे। जब यह रिपोर्ट तैयार की गई, तब हाल में संसद में पारित कृषि विधेयकों का कोई जिक्र नहीं था, लेकिन इन आकड़ों से इन विधेयकों के एक परिप्रेक्ष्य का पता चलता है।

भारत का खाद्य बाजार तेजी से बढ़ रहा है। इसके कई कारण हैं। कोरोना काल को छोड़ दें तो हाल तक दुनिया की सबसे तेज अर्थव्यवस्था रहे इस देश में शहरीकरण और लोगों की आमदनी बढ़ी है। इसका असर उनके खानपान पर भी पड़ा है और वे प्रसंस्कृत और पैकेट वाले खाद्य पदार्थों का इस्तेमाल ज्यादा करने लगे हैं। यूं तो अभी ज्यादातर घरों में लोग नाश्ते में पराठे, पूड़ी-सब्जी, इडली, डोसा, उपमा, पोहा या ढोकला खाते मिल जाएंगे, लेकिन यह ट्रेंड भी तेजी से बदल रहा है। लोग कॉर्नफ्लेक्स और ब्रेड जैसे प्रसंस्कृत खाने की तरफ जा रहे हैं। इसके साथ अगर हम इस तथ्य को भी जोड़ें कि 2026 तक भारत की 64 फीसदी आबादी 15 से 59 साल की होगी, तो आने वाले वर्षों में भारत के फूड रिटेल और फूड प्रोसेसिंग बाजार की संभावनाओं का पता चलता है। इन संभावनाओं को देखते हुए छोटी-बड़ी अनेक कंपनियां फूड बिजनेस में उतर रही हैं और कृषि विधेयकों को इसी संदर्भ में देखा जा रहा है।

संसद के मानसून सत्र में सरकार ने दो कृषि बिल और एक आवश्यक वस्तु अधिनियम संशोधन बिल पारित कराए हैं। कृषि उपज व्यापार एवं वाणिज्य (संवर्धन एवं सरलीकरण) विधेयक 2020 के अनुसार किसान एपीएमसी की मंडियों के अलावा किसी फैक्टरी, प्रोसेसिंग प्लांट, उपज संग्रह केंद्र, कोल्ड स्टोरेज या अपने खेत में भी उपज बेच सकेंगे। इन सौदों पर कोई शुल्क नहीं लगेगा। कृषक (सशक्तीकरण व संरक्षण) कीमत आश्वासन और कृषि सेवा पर करार विधेयक 2020 कॉन्ट्रैक्ट फार्मिंग यानी ठेके पर खेती से जुड़ा है। किसान बड़े खरीदारों, निर्यातकों और रिटेल कंपनियों के साथ समझौता करके खेती कर सकते हैं। बुवाई से पहले किसानों को पता होगा कि उन्हें उपज की क्या कीमत मिलेगी। आवश्यक वस्तु (संशोधन) बिल 2020 में अनाज, दालें, तिलहन, खाद्य तेल, प्याज और आलू को आवश्यक वस्तुओं की सूची से बाहर किया गया है। विशेष परिस्थितियों के अलावा इन पर स्टॉक लिमिट लागू नहीं होगी।

इन बिलों के विरोध और फूड इंडस्ट्री पर असर के बारे में पूछने पर ऑल इंडिया फूड प्रोसेसर्स एसोसिएशन के उपाध्यक्ष और जैडली फूड्स (इंडिया) प्राइवेट लिमिटेड के डायरेक्टर राघव जैडली ने आउटलुक से कहा, “सबसे पहले बिल को समझने की जरूरत है। सभी सरकारें कहती रही हैं कि बिचौलियों की भूमिका कम होनी चाहिए। किसान भी इसे लेकर समय-समय पर आवाज उठाते रहे हैं ताकि उन्हें अपनी उपज का उचित दाम मिले।” यह बिल किसानों को अपनी उपज कहीं भी बेचने का विकल्प देता है। वह चाहे तो मंडी जाकर अपनी उपज बेचे या इंडस्ट्री या एग्रीगेटर को। जहां तक फूड प्रोसेसिंग इंडस्ट्री की बात है तो अगर कमीशन नहीं देना पड़ा तो जाहिर है कि उन्हें कम दरों पर चीजें उपलब्ध होंगी।

माना जा रहा है कि मंडी टैक्स, सेस, कमीशन आदि नहीं चुकाने और सीधी खरीद से कंपनियों को 10 फीसदी की बचत होगी। दूसरी तरफ यह डर भी है कि किसान पूरी तरह इंडस्ट्री के रहमों करम पर आ जाएंगे, जो कार्टेल बनाकर किसानों से खरीद करेंगे। ऐसे में किसान न्यूनतम समर्थन मूल्य (एमएसपी) के लिए भी तरस जाएंगे।

हालांकि विशेषज्ञ इस बात से पूरी तरह सहमत नहीं। कंसल्टेंसी फर्म ईवाइ में सरकारी एवं सार्वजनिक क्षेत्र और स्ट्रैटजी तथा ट्रांजैक्शन मामलों से जुड़े पार्टनर सत्यम् शिवम् सुंदरम् के अनुसार, “एमएसपी का मकसद यह है कि उपज की आपूर्ति अधिक और मांग कम होने पर किसानों को एक न्यूनतम कीमत मिल सके। सप्लाई चेन की दिक्कतें दूर होने से मांग बढ़ेगी और किसानों को अधिक कीमत मिलने का रास्ता साफ होगा।”

कांट्रैक्ट फार्मिंग के प्रावधान का विरोध करने वालों का कहना है कि भारत के ज्यादातर किसान छोटी जोत वाले हैं। 2015-16 की कृषि जनगणना के अनुसार 86 फीसदी किसानों के पास पांच एकड़ से कम जमीन है। इसलिए वे बड़े खरीदारों के साथ मोलभाव करने की स्थिति में नहीं होंगे। यहां गौर करने वाली बात है कि मॉडल एपीएमसी एक्ट 2003 में भी कॉन्ट्रैक्ट फार्मिंग की अनुमति थी और ऐसे सौदों का रिकॉर्ड रखने की जिम्मेदारी एपीएमसी की थी। विवाद होने पर हल का जिम्मा भी उन्हीं का था। कुछ राज्यों ने कॉन्ट्रैक्ट फार्मिंग का रजिस्ट्रेशन एपीएमसी में कराना अनिवार्य कर रखा है। एपीएमसी को इसकी मार्केट फीस भी मिलती है। अब तक 14 राज्यों ने कॉन्ट्रैक्ट फार्मिंग के नियम बनाए हैं। इसके बावजूद बहुत कम कंपनियां ही इसके लिए आगे आई हैं।

जैडली इसकी वजह बताते हैं, “अभी तक कॉन्ट्रैक्ट फार्मिंग मुख्य तौर से संबंधों के आधार पर होती रही है। व्याहारिक रूप से देखें तो लिखा-पढ़ी की बात आते ही किसान घबरा जाते हैं, उन्हें डर सताने लगता है कि कहीं कोई हमारी जमीन न हड़प ले।” बड़ी इंडस्ट्री ने ज्यादा रुचि इसलिए नहीं दिखाई क्योंकि उनके लिए बड़ी संख्या में किसानों को साथ लाना और समझौता करना मुश्किल है।

जैडली के अनुसार किसान किसी भी समय समझौते से बाहर निकल सकता है और उसे कोई पेनल्टी नहीं देनी पड़ेगी। लेकिन कंपनी ऐसा नहीं कर सकती, उसे पूर्व निर्धारित कीमत देनी पड़ेगी। अगर वह समझौता तोड़ता है तो उस पर पेनल्टी लगेगी। लेकिन समस्या यह है कि मॉडर्न रिटेलर हों या प्रोसेसर, कंपनियां अभी किसानों के साथ लिखित कॉन्ट्रैक्ट करने से बचती हैं। अलिखित कॉन्ट्रैक्ट ही चलन में है। नए बिल में भी लिखित समझौता जरूरी नहीं किया गया है। ऐसे में अगर कंपनी समझौता तोड़ती है तो किसान उसे साबित ही नहीं कर सकेगा।

सत्यम् बताते हैं कि लिखित समझौता कभी अनिवार्य नहीं था और न ही ऐसा किया जा सकता है। सरकार ने यथासंभव न्यूनतम रेगुलेशन का रास्ता अपनाया है। भविष्य में पैदा होने वाली किसी भी परिस्थिति के लिए दिशानिर्देश और मॉडल एग्रीमेंट तय करने का अधिकार तो सरकार के पास है ही। फिर भी छोटे और सीमांत किसान एफपीओ बनाकर समझौता करें तो उनका जोखिम काफी कम हो सकता है।

बिल में कॉन्ट्रैक्ट की कीमत को एमएसपी से जोड़ा नहीं गया है। इसलिए कंपनी इससे कम कीमत पर भी कॉन्ट्रैक्ट के लिए किसान पर दबाव डाल सकती है। इस आशंका पर जैडली कहते हैं, इसमें मांग और आपूर्ति का फैक्टर काम करेगा। दूसरी बात यह है कि किसान के पास मंडी जाने का विकल्प तो है ही। अगर उसका कॉन्ट्रैक्ट पहले से बना हुआ है तो कीमत को लेकर डरने की जरूरत ही नहीं है।

अभी तक किसानों, उनकी कोऑपरेटिव और एफपीओ पर स्टॉक लिमिट लागू नहीं होती थी। अब यह छूट व्यापारियों और कंपनियों को भी मिलेगी। इससे जमाखोरी बढ़ सकती है। हालांकि जैडली का मानना है कि कंपनियों के स्तर पर इसकी आशंका बहुत कम है। कोई भी कंपनी अपनी पूंजी इस तरह फंसा कर नहीं रखना चाहेगी। प्रोसेसिंग इंडस्ट्री जो भी पैसा लगाती उस पर वैल्यू एडिशन करके आगे बेच देती है। उसे अपना कैश फ्लो बनाए रखना पड़ता है। वह यह सोचकर पैसे नहीं फंसा सकती कि भविष्य में मांग बनेगी तब वह अधिक कीमत पर बेचेगी। उद्यमी इस तरह का जोखिम नहीं लेते हैं।

वैसे, बिल के घोषित लक्ष्यों को देखें तो इससे किसानों का जोखिम भी कम होगा। बाजार का जोखिम अब तक किसान उठाते थे, अब जोखिम उसका होगा जो किसान के साथ समझौता करेगा। किसानों को अच्छी गुणवत्ता वाले बीज, उर्वरक और कीटनाशक मिल सकेंगे। खेती में निजी निवेश आकर्षित होगा और भारत का कृषि बाजार वैश्विक बाजार से जुड़ेगा। कृषि इन्फ्रास्ट्रक्चर के विकास और फूड प्रोसेसिंग इंडस्ट्री में लोगों को काम भी मिलेगा। विश्व खाद्य निर्यात में भारत का हिस्सा सिर्फ 2.3 फीसदी है। बेहतर इन्फ्रास्ट्रक्चर से इसे बढ़ाने में मदद मिलेगी। अनुबंध के बाद किसान को व्यापारियों के चक्कर काटने की आवश्यकता नहीं होगी, खरीदार ही उसके खेत से उपज लेकर जाएगा। भंडारण सुविधाएं बढ़ने से फसलों की बर्बादी कम होगी, कीमतों में स्थिरता आएगी और किसानों की आमदनी बढ़ेगी।

कंसल्टेंसी फर्म डेलॉय इंडिया में पार्टनर और खाद्य और कृषि मामलों के विशेषज्ञ आनंद रामनाथन के अनुसार भारतीय कृषि में उत्पादकता और संपन्नता उन चुनिंदा क्षेत्र तक सीमित रही है जहां हरित क्रांति आई और तय मूल्यों पर किसानों ने अपनी उपज बेची। लेकिन इन्हीं इलाकों में बंजर होते खेत और गरीब होते किसान भी देखने को मिले। ये बिल कम उत्पादकता से जूझती भारतीय कृषि के लिए उम्मीद की किरण की तरह हैं। इनसे किसानों को अपनी उपज मुनाफे में बेचने का विकल्प मिलेगा और सूचनाओं और कीमतों की अपारदर्शिता खत्म होगी। ये बिल शुरुआती कदम हैं, आगे इसे ठीक से लागू करने की जरूरत है ताकि निजी क्षेत्र की भागीदारी बढ़े और आने वाली पीढ़ियों के लिए खेती मुनाफे का पेशा साबित हो। सत्यम् भी मानते हैं कि तीनों विधेयकों से किसानों को अधिक कीमत मिलने, नुकसान कम होने और वैल्यू एडिशन बढ़ने की उम्मीद है। पूरी वैल्यू चेन में उत्पादकता बढ़ेगी। बेहतर क्वालिटी के बीज, सीधी बिक्री और कॉन्ट्रैक्ट फार्मिंग से किसानों को सबसे अधिक फायदा होगा क्योंकि उनकी आमदनी बढ़ेगी।

हालांकि ऐसी आदर्श स्थिति की हम सिर्फ कल्पना ही कर सकते हैं। आने वाले दिनों में अनेक समस्याएं सामने आएंगी। मंडी से बाहर का कारोबार एक तरह से अनियंत्रित रहेगा। भंडारण सुविधा की कमी के कारण किसान उपज ज्यादा दिनों तक अपने पास नहीं रख सकेंगे, इसलिए उन्हें खरीदार पर निर्भर रहना पड़ेगा। कंपनियों का मकसद मुनाफा कमाना होता है, इसलिए वे कम से कम कीमत पर किसानों से उपज खरीदना चाहेंगी। छोटे किसान कंपनियों के साथ मोलभाव नहीं कर सकेंगे तो यह उम्मीद भी बेमानी होगी कि उनका भला होगा। अभी किसान किसी व्यापारी या एजेंट के खिलाफ एपीएमसी अधिकारी के पास शिकायत कर सकते हैं। नए कानून के मुताबिक किसानों को एसडीएम के पास जाना पड़ेगा। राजनीतिक इशारों पर काम करने वाला अधिकारी कॉरपोरेट की बात सुनेगा या किसान की, यह बात आसानी से समझी जा सकती है।

कृषि बाजार को मुक्त करना 1991 के उदारीकरण की तरह महत्वपूर्ण कदम हो सकता है, लेकिन यह इस बात पर निर्भर करता है कि इन विधेयकों पर अमल कैसे होता है। बिहार में 14 साल पहले एपीएमसी खत्म कर दिया गया था, लेकिन अभी तक वहां न तो खुली नीलामी की व्यवस्था हो सकी और न ही इन्फ्रास्ट्रक्चर विकसित हुआ है। नोटबंदी और जीएसटी के भी मकसद बड़े नेक बताए गए थे, लेकिन हश्र सामने है।

कॉरपोरेट का फायदा

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