Advertisement

फिल्म: परदे पर अमर बगावत

भगत सिंह की 118वीं जयंती पर यह याद करना मौजू है कि क्यों आजादी की लड़ाई का यह महानायक परदे, रंगमंच, नुक्कड़ नाटकों, प्रदर्शनों, गीतों और गली-कूचों में अपने अलग-अलग रूपों और वैचारिक आग्रहों के साथ जगाता रहता है दिलचस्पी
परदे पर सबसे ज्यादा दिखाए जाने वाले क्रांतिकारी रहे हैं भगत सिंह

भगत सिंह को महज ऐतिहासिक शख्सियत नहीं, बल्कि राष्ट्र के पर्याय के रूप में याद किया जाता है। बीसवीं सदी के इस युवा क्रांतिकारी को दशकों से अलग-अलग रूपों में चित्रित किया गया, जिसे मात्र 23 साल की उम्र में 1931 में फांसी दे दी गई थी। उनकी तिरछी टोपी, घनी मूंछें और फांसी के तख्त तक नंगे पांव जाना, उनके क्रांति गीत सब एक प्रतीक और प्रेरणास्रोत हैं। लेकिन रंगमंच, नुक्कड़ नाटकों और रुपहले परदे पर तो वे बार-बार कई रूपों में पेश किए जाते रहे हैं। उन पर सबसे ज्यादा फिल्में बनीं और यह सिलसिला चलता ही जा रहा है। दरअसल, आजादी की लड़ाई के किसी दूसरे महानायक को इतना विपुल सिनेमाई जीवन नहीं मिला। फिल्मों, नाटकों, गीतों और वृत्तचित्रों में वे बार-बार पुनर्जन्म लेते रहे।

शहीद की भूमिका में मनोज कुमार

शहीद की भूमिका में मनोज कुमार

गौरतलब यह भी है कि परदे पर अतीत और इतिहास की विवादास्पद और भड़काऊ प्रस्तुतियों के दौर में भी भगत सिंह देशभक्त, समाजवादी, नास्तिक या रोमांटिक नायक की छवि बदस्तूर कायम है। उनकी जयंती (28 सितंबर) पर यह पूछना मुनासिब है कि सिनेमाई परदे पर भगत सिंह की कथा के बार-बार लौट आने की वजह क्या है। वह क्या दिलचस्पी है, जो उन्हें इस दौर में भी मौजू बनाए हुए है, जब सहमतियां बेहद ध्रुवीकृत और असहमतियां विभाजित हैं। 

मनोज कुमार की ब्लैक ऐंड ह्वाइट फिल्म शहीद (1965) ने दर्शकों के दिल में भगत सिंह के प्रति एक मायने में भक्तिभाव जगाया। यानी ऐसा नायक जो आजादी के बाद राष्ट्रवादी भावनाओं के चश्मे में समाहित है। ‘मेरा रंग दे बसंती चोला’ गाने ने उन्हें रोमांटिक, वीर और यादगार प्रतीक बना दिया। लेकिन मार्क्सवादी और नास्तिक भगत सिंह उसमें लगभग नदारद थे, जिनके लेख क्रांतिकारी सामाजिक बदलाव की वकालत करते थे। दर्शकों को इससे कोई फर्क नहीं पड़ा। तब सिनेमा में राष्ट्र-निर्माण की धारा बह रही थी, समाजशास्त्रीय चीर-फाड़ नहीं।

बॉबी देओल भी बने भगत सिंह

बॉबी देओल भी बने भगत सिंह

अब सीधे 2002 पर आते हैं। उस साल भगत सिंह पर तीन बड़ी फिल्में सिनेमाघरों में रिलीज हुईं। अजय देवगन की द लेजेंड ऑफ भगत सिंह, बॉबी देओल की शहीद और सोनू सूद की शहीद-ए-आजम। द लेजेंड ऑफ भगत सिंह ने ऐतिहासिक तथ्यों पर ध्यान केंद्रित करने की कोशिश की। उसमें रहमान के मार्मिक संगीत के साथ अजय ने गंभीर अभिनय किया। बॉबी देओल वाली शहीद ने मेलोड्रामा को प्राथमिकता दी। शहीद-ए-आजम फिल्म की अवधि छोटी थी लेकिन यह ज्यादा प्रामाणिक लगने वाली फिल्म थी। लेकिन दूसरी दोनों फिल्मों के बीच यह दब गई। उसके बाद 2006 में आई, रंग दे बसंती। उसने भगत सिंह के साहस को दिल्ली के छात्रों के विरोध और दोस्ती को फिल्म के बीच रखा और उसी भावना को आगे बढ़ाते हुए उसमें अतीत और वर्तमान टकराए।

सिनेमा में उनका नायकत्व एकरूप नहीं, विविधता भरा है, फिल्मकारों की नजर अलग-अलग है। शायद एक-सी नजर कभी हो भी नहीं। लेकिन गीतों में वह नायक एकरूप है। ‘मेरा रंग दे बसंती चोला’, गीत पहली बार शहीद (1965) में सुना गया था। लेकिन यह गीत आज भी विरोध प्रदर्शनों, रैलियों और कॉलेज समारोहों में गूंजता है। एक और गीत, ‘सरफरोशी की तमन्ना’ या ‘पगड़ी संभाल जट्टा’ फिल्मों से पहले के हैं, लेकिन सिनेमा ने उन्हें इतना फैलाया कि दशकों बाद भी ये गीत सांस्कृतिक स्मृति में दर्ज हो गए। ये गीत बेचैनी और संघर्ष दोनों ही भावनाओं के प्रतीक हैं और तेजी से फैलते हैं।

भगत सिंह की भूमिका में अजय देवगन खूब सराहे गए

भगत सिंह की भूमिका में अजय देवगन खूब सराहे गए

जहां व्यावसायिक फिल्में सेंसरशिप और लोकप्रियता के दबाव में समझौता करती हैं, वहीं नुक्कड़ नाटक भगत सिंह को तर्कशील और जीवंत बनाए रखते हैं। यहां माध्यम ही राजनैतिक हो जाता है। अयाज खान के निर्देशन सागर सरहदी के नाटक भगत सिंह की वापसी में उन्हें आज के भारत के हालात में प्रतिक्रिया देते दिखाया गया है। उसमें वे नेताओं का मजाक उड़ाते हैं और आज की राजनैतिक उदासीनता पर सवाल उठाते हैं। अचानक उसमें अभिनेता ऐतिहासिक नायक की भूमिका से संवाददाता में बदल जाता है और मानो दर्शकों से मुखातिब है, ‘‘आज के दौर में सत्ता से सवाल करने के लिए आपके पास पर्याप्त साहस है?’’

आनंद पटवर्धन की इन मेमोरी ऑफ फ्रेंड्स/उना मित्रां दी याद प्यारी (1990) ने दिखाया कि किस तरह अलग-अलग गुट, राज्य, अलगाववादी, वामपंथी उन्हें अपने-अपने तरीके से हासिल करना चाहते हैं। गौहर रजा की इंकलाब (2008) ने एक कदम और आगे बढ़कर देशभक्ति के गीतों के पीछे छिपी भगत सिंह की समाजवादी और धर्मनिरपेक्ष आवाज को पुनर्जीवित किया। यह डॉक्यूमेंट्री नाटकीयता से ज्यादा नास्तिकता, समाजवाद, उग्र आलोचना जैसे विचारों पर है। आसान देशभक्ति चाहने वालों के लिए उसे देखना कठिन है। विडंबना यह कि भगत सिंह को उनके वैचारिक आग्रहों के साथ याद करना भी एक तरह की असहमति का प्रदर्शन है।

आखिर क्यों किसी दूसरे क्रांतिकारी की तुलना में भगत सिंह बार-बार लौट आते हैं? क्या इसका कारण युवा जोश है या वे बरसों से घुटन महसूस करने वाली पीढ़ियों को आकर्षित करते हैं। उन्हें ऐसा साहस देते हैं, जिसमें इच्छा और क्रांति दोनों है। समाजवाद और नास्तिकता पर उनके निबंध बेचैन करते हैं और विचार को उकसाते हैं। वे याद दिलाते हैं कि विद्रोह तमाशा नहीं होता। ज्वलंत प्रश्न यह भी है कि क्या फिल्में आज के दौर में भी असहमति दिखा सकती हैं?

शहीद बनने में सोनू सूद भी पीछे नहीं रहे

शहीद बनने में सोनू सूद भी पीछे नहीं रहे

सिनेमा लाखों लोगों तक पहुंचता है। आज की मुख्यधारा की फिल्में महंगी, सेंसर की कैंची और ध्रुवीकृत राजनैतिक माहौल से बोझिल हैं। ऐसे में नास्तिक, मार्क्सवादी, क्रांतिकारी भगत सिंह के सेंसर से बच निकलने की संभावना नहीं है। शायद यही कारण है कि रंगमंच, वृत्तचित्र और डिजिटल शॉर्ट्स अब महत्वपूर्ण हैं। आम लोग बलिदान के प्रतीक के रूप में उनके जयकारे लगाते हैं, गुनगुनाते हैं और उनका सम्मान करते हैं। उनकी बहुआयामी शख्सियत ताकत भी है और कमजोरी भी। वे हर जगह मौजूद हैं, लेकिन पूरी तरह नहीं। शायद सबसे सच्ची श्रद्धांजलि यही है कि उन्हें समग्रता में देखा जाए।

उनकी 118वीं जयंती पर भगत सिंह मंचों, गीतों, परदों और सड़कों पर जिंदा हैं। शहीद और चिंतक, देशभक्त और क्रांतिकारी अपने तमाम रूपों में वे आज जिंदा हैं। उनका लगातार लौटना बताता है कि भारत अपने नायकों से क्या चाहता है। हर कोई अपने वैचारिक खांचे में उन्हें पेश करना चाहता है। वे किसी निश्चित छवि में नहीं बंधते, बल्कि हर छवि में जिंदा रहते हैं। कुल मिलाकर भगत सिंह बगावत का दूसरा नाम बने रहते हैं और शायद हमेशा बने रहेंगे, अपनी रोमांटिक, धारदार वैचारिक और देश पर न्यौछावर नायक की छवि के कारण?

 

Advertisement
Advertisement
Advertisement