राष्ट्रीय स्वयंसेवक के प्रचारक के जीवन में इससे बड़ा संयोग और सुख नहीं हो सकता कि अपने जन्मदिन पर वह देश के सबसे बड़े सूबे के मुख्यमंत्री पद की शपथ संघ के सबसे बड़े प्रचारक और देश के प्रधानमंत्री की उपस्थिति में ले। दूसरा संयोग भी उतना ही बड़ा है कि भजन लाल शर्मा बीते तीन दशक में हरिदेव जोशी के बाद राजस्थान के दूसरे ब्राह्मण मुख्यमंत्री बने हैं। संयोगों के संयोग से मिली यह ताकत ही है जिसके बल पर शर्मा ने मुख्यमंत्री बनते ही पिछली सरकार में बनाए गए डेढ़ सरकारी आयोगों और बोर्डों को एक झटके में खत्म कर दिया, जिसमें पूर्व मुख्यमंत्री अशोक गहलोत का बनाया सामाजिक कल्याण बोर्ड भी था। यह बात दीगर है कि चुनाव से पहले भाजपा द्वारा जारी जिस संकल्प पत्र के सहारे इस सरकार को चलाने का दम भरा जा रहा है, सामाजिक कल्याण उसका एक अहम घटक है। भाजपा का सामाजिक कल्याण कांग्रेस के सामाजिक कल्याण से अलग कैसे होगा, यह साबित करना भजन लाल शर्मा के लिए अपनी जनता के लिए बड़ी चुनौती होगी, जो कांग्रेस की कल्याणकारी गारंटियों के सहारे जीने की आदी हो चुकी है।
जिस ताकत से भजन लाल शर्मा ने अपनी पारी शुरू की है, वही ताकत उनके लिए प्रशासनिक संकट का बायस भी हो सकती है। मंत्रिमंडल को शक्ल देने के लिए दिल्ली के चक्कर लगाना यह बताता है कि उनके हाथ में अपने मंत्रियों को चुनने का अधिकार भी नहीं है। इससे यह भी संकेत निकलता है कि वे जो भी फैसले ले रहे हैं, उसे संघ और भाजपा के आलाकमान की सहमति प्राप्त है। यह ऐसे ही नहीं हुआ है। इसके पीछे संघ और भाजपा की राजनीति के साथ एक काडर के बतौर उनकी दशकों पुरानी सक्रियता है, जिसकी जड़ें अखिल भारतीय विद्यार्थी परिषद की कश्मीर यात्रा तक जाती हैं, जो 1990 में हुई थी। उसके बाद राम जन्मभूमि में वे 1992 में जेल गए थे। तब से लेकर अब तक उनकी कुल राजनीतिक सक्रियता और अनुभव चौंतीस साल का है, तो उन्हें इतना युवा भी नहीं कहा जा सकता, भले विधायी राजनीति में उनकी यह पहली कामयाबी हो।
शर्मा ने 2018 में पार्टी से टिकट मांगा था। संभव है, उस समय पार्टी ने उस समय उपयुक्त न समझा हो क्योंकि भाजपा और नरेंद्र मोदी को केंद्र में आए तब महज चार साल हुए थे और इतनी जल्दी किसी महत्वपूर्ण और अनुभवी प्रचारक को खर्च करना पार्टी को गंवारा नहीं होता। यह बात और है कि किसी गुमनाम संघ प्रचारक को मुख्यमंत्री बनाने का प्रयोग हरियाणा से 2014 में ही शुरू हो चुका था, लेकिन 2019 की लोकसभा में कामयाबी ने इस संकोच को भाजपा आलाकमान के मन से शायद दूर कर दिया। तभी इस बार पांच राज्यों के चुनावों में भारी कामयाबी के बाद भजन लाल सहित मध्य प्रदेश और छत्तीसगढ़ में भी संघ के काडरों को ही मुख्यमंत्री बनाया गया है।
आज से बीस बरस पहले जब राजस्थान में भाजपा की सबसे बड़ी नेता वसुंधरा राजे और आरएसएस के बीच मतभेदों की शुरुआत हुई थी, उसय वक्त भाजपा ने कई आनुषंगिक संगठनों और मंचों को अपनी राजनीति का विस्तार करने के लिए पैदा किया था। इन्हीं मंचों में एक था सामाजिक न्याय मंच, जिसे लोकेंद्र सिंह कालवी (करणी सेना के राष्ट्रीय अध्यक्ष) और देवी सिंह भाटी (पूर्व कैबिनेट मंत्री) ने 2003 में विधानसभा चुनाव से ठीक पहले एक सामाजिक-राजनीतिक संगठन के रूप में स्थापित किया था। यह बाकायदा एक पंजीकृत राजनीतिक दल था जो राजस्थान के बाद हरियाणा में सबसे ज्यादा सक्रिय था। इस मंच ने तब 38 सीटों पर चुनाव लड़ा था जिसमें उसे एक पर जीत हासिल हुई थी। भजन लाल शर्मा पहली बार विधायकी का चुनाव इसी मंच से लड़े थे। 2016 में भले ही चुनाव आयोग ने सामाजिक न्याय मंच की मान्यता रद्द कर दी, लेकिन राजस्थान की राजनीति में इसने आर्थिक रूप से कमजोर और वंचित राजपूतों और ब्राह्मणों के आरक्षण के बीज बो दिए थे।
भजन लाल शर्मा की राजनीति को आरएसएस की विचारधारा के साथ इस मंच की औपचारिक विचारधारा से भी समझा जा सकता है, जिसके पीछे कालवी की करणी सेना की राजनीति भी खड़ी थी। कुछ विश्लेषकों का मानना है कि शर्मा का मुख्यमंत्री बनना और उससे ठीक पहले चुनाव परिणामों के ठीक बाद मूल करणी सेना से टूटे उदार माने जाने वाले गहलोत समर्थक करणी सेना के धड़े के अध्यक्ष सुखदेव सिंह गोगामेड़ी की हत्या इस संदर्भ में दो स्वतंत्र घटनाएं नहीं भी हो सकती हैं। शर्मा के मुख्यमंत्री बनते ही अपराध पर लगाम लगाने के लिए एसटीएफ का गठन भी गौरतलब है।
बहरहाल, भजन लाल शर्मा जैसे पहली बार के विधायक का मुख्यमंत्री बनना इस लिहाज से अहम परिघटना है क्योंकि अब तक माना जाता रहा है कि सूबे में भाजपा की सरकार आए या कांग्रेस की, भ्रष्टाचार के मामले में दोनों का ही रिकॉर्ड समान रहा है और मुख्यमंत्री चाहे कोई बने, खाने-कमाने की सुविधा दोनों ओर रहती आई है। चुनाव से पहले भजन लाल के ऊपर 38 लाख रुपये का लोन था। इससे समझा जा सकता है कि राजनीति और विचारधारा से इतर, एक व्यक्ति और जनप्रतिनिधि के तौर पर शर्मा कम से कम निजी जीवन में आर्थिक मामलों में शुचिता बरतेंगे।
वैसे भी, सारे फैसले संघ और भाजपा के आलाकमान से ही होने हैं, तो एक तरह से भजन लाल शर्मा अपने सूबे के केयरटेकर की भूमिका में रहेंगे, जैसे मोहनलाल यादव या विष्णु दत्त साय हैं। लोकतंत्र और संविधान के लिहाज से हालांकि यह बात ठीक नहीं मानी जाएगी क्योंकि इससे संघीयता का मूल्य-ह्रास होगा। एक राष्ट्र, एक पार्टी और एक नेता के घोषित दौर में शायद यह भी अब भारत में स्वाभाविक हो चला है।