अमेरिका की आत्मा के लिए लड़ी गई लड़ाई अंततः जीत ली गई है। चुनाव प्रचार के दौरान ‘अमेरिकी आत्मा की वापसी’ ही जो बाइडन की थीम थी। अब यह लोगों को चुनना था कि वे अपने बच्चों के लिए किस तरह का देश चाहते हैं। बाइडन की जीत इस दिशा में पहला कदम है। अब उनके सामने आपस में बंटे देश के घाव भरने का मुश्किल काम है। देश एकजुट होने का महत्व बाइडन अच्छी तरह समझते हैं। वे जानते हैं कि लोग आहत हैं और उन्हें उन लोगों को राहत प्रदान करना है। विजेता घोषित किए जाने के बाद डेलावेयर स्थित अपने घर से भाषण में उन्होंने बाइबल को उद्धृत करते हुए कहा, “बाइबल बताती है कि हर काम का एक समय होता है- निर्माण का समय, बुवाई करने का समय, कटाई का समय। उसी तरह घाव भरने का भी समय होता है, और यह समय अमेरिका के घाव भरने का है।”
डोनाल्ड ट्रंप ने इस बार चुनाव में 2016 के नारे को दोहराया कि ‘अमेरिका को फिर महान बनाना है’, लेकिन व्हाइट हाउस में चार साल रहते हुए उन्होंने ऐसा कुछ नहीं किया। बाइडन को पॉपुलर वोटों में जीत मिली। उन्हें 7.4 करोड़ वोट मिले, लेकिन ट्रंप उनसे ज्यादा पीछे नहीं थे। उन्हें सात करोड़ अमेरिकियों का समर्थन मिला। यह कोई छोटी संख्या नहीं है। लगभग 50 फीसदी लोगों ने जो बाइडन और उनकी उपराष्ट्रपति पद की उम्मीदवार कमला हैरिस के पक्ष में मतदान किया और 48 फीसदी ने ट्रंप और उनके उपराष्ट्रपति माइक पेंस के पक्ष में। ट्रंप के पक्ष में मतदान करने वालों को लक्ष्य करते हुए बाइडन ने कहा, “मैं ऐसा राष्ट्रपति बनने की शपथ लेता हूं जो विघटन नहीं बल्कि एकता चाहता है, जो लाल (रिपब्लिकन) और नीले (डेमोक्रेट) राज्य नहीं बल्कि संयुक्त राज्य (अमेरिका) चाहता है।”
बाइडन को अफ्रीकी-अमेरिकी मतदाताओं के समर्थन के चलते विजय मिली है। अश्वेत और भारतीय मूल की कमला हैरिस को उपराष्ट्रपति चुनकर बाइडन ने परंपरा तोड़ी है। वे जानते थे कि महिलाएं, खासकर अफ्रीकी-अमेरिकी महिलाएं, डेमोक्रेटिक पार्टी का मजबूत आधार हैं। इसलिए उन्होंने एक अश्वेत महिला को चुना। उपराष्ट्रपति के रूप में कमला हैरिस बाइडन प्रशासन में दूसरे नंबर पर होंगी। एक समर्थक ने ट्वीट किया, “महिलाएं, अब आप जूते बांधने की तैयारी कर लें। मैडम वाइस प्रेसिडेंट अब कोई ख्वाब नहीं रहा।” 2016 में ट्रंप के साथ लड़ाई में हिलेरी क्लिंटन के पराजित होने के बाद जिन महिलाओं के दिल टूट गए थे, वे सब खुश हैं। कमला हैरिस ने ऐसा द्वार खोला है जिसमें आगे चलकर दूसरे प्रवेश कर सकते हैं। इसलिए उन्होंने कहा, “इस दफ्तर के लिए मैं पहली महिला हो सकती हूं, लेकिन मैं आखिरी महिला नहीं होंऊंगी, क्योंकि आज रात इसे देखने वाली हर छोटी लड़की समझ सकती है कि यह संभावनाओं का देश है।” सफ्रगेट आंदोलन (महिलाओं को वोटिंग अधिकार दिलाने का आंदोलन) को श्रद्धांजलि देते हुए कमला ने सफेद कपड़े पहने थे। उन्होंने अपनी मां श्यामला गोपालन को याद किया, जो भारत से अमेरिका गई थीं और कमला और उनकी बहन को बड़े सपने देखना सिखाया था।
जो बाइडन की जीत पर अंततः तब मुहर लगी जब उन्हें पेंसिलवेनिया के 20 इलेक्टोरल कॉलेज वोट मिले। इस खबर के बाद पूरे अमेरिका में खुशी की लहर दौड़ पड़ी। बाइडन और कमला हैरिस के समर्थक जश्न मनाने के लिए सड़कों पर उतर आए। झंडे लहराते, गाड़ियों के हॉर्न बजाते, नाचते-गाते लोग जैसे रंगभेद के तनाव, कोविड-19 महामारी और आर्थिक मंदी के प्रकोप से बाहर निकलना चाहते थे। करीबी लड़ाई में राष्ट्रपति ट्रंप की हार से जैसे लोग इन सब परेशानियों को भूल गए थे। ट्रंप ने हार स्वीकार करने से इनकार कर दिया तो लोग व्हाइट हाउस के इर्द-गिर्द जमा हो गए। अब वे कब और कैसे अपनी हार स्वीकार करेंगे, अभी यह अनिश्चित है। अभी कुछ राज्यों में वोटों की गिनती जारी है, लेकिन अब उसका कोई मतलब नहीं क्योंकि बाइडन और हैरिस 270 का जादुई आंकड़ा पार कर चुके हैं।
लेकिन टीवी रियलिटी स्टार और बिजनेस टायकून डोनाल्ड ट्रंप शांति से बैठने वाले नहीं हैं। रिपब्लिकन पार्टी में बाहरी होने के बावजूद व्हाइट हाउस में चार साल के दौरान ट्रंप ने अपना पूरा नियंत्रण रखा। उनकी लोकप्रियता का असर चुनाव में भी दिखा जहां लगभग आधे अमेरिकियों ने उनके पक्ष में वोट डाले। इसके पीछे कई वजहें हैं। एक तो उनका दर्जा सेलिब्रिटी वाला है। इसके अलावा कोविड-19 महामारी से पहले आर्थिक विकास दर काफी तेज हो गई थी। इन सबसे ऊपर जो बात थी, वह यह कि ट्रंप ने उन श्वेत नागरिकों के पक्ष में फैसले किए जिन्हें लगता है कि मुक्त व्यापार, जलवायु परिवर्तन और अबाध इमीग्रेशन के कारण साधारण और कम पढ़े-लिखे अमेरिकियों को नुकसान हुआ है। रिपब्लिकन सांसदों को भी महसूस हुआ कि ट्रंप की लोकप्रियता के कारण उन्हें चुनाव जीतने में मदद मिल सकती है। ये सब वजहें ट्रंप को व्हाइट हाउस के बाहर भी बड़ी ताकत के रूप में स्थापित करती हैं। अभी से इस बात की चर्चा होने लगी है कि वे 2024 का राष्ट्रपति चुनाव लड़ेंगे। हालांकि अभी यह कयास है, लेकिन राजनीतिक जानकार यह तो मानते हैं कि ट्रंपवाद अब अमेरिकी राजनीति का एक हिस्सा बन गया है। बाइडन को जीत जरूर मिली, लेकिन उनके पक्ष में लहर जैसी कोई बात नहीं थी। सीनेट में उनकी पार्टी को बहुमत न होने की वजह से अमेरिकी राजनीति में कशमकश अभी जारी रहेगी।
आगे जो बाइडन और कमला हैरिस के सामने कई मुश्किल काम हैं। महामारी पर नियंत्रण पाना और अर्थव्यवस्था को दोबारा गति देना फिलहाल प्राथमिकता में होंगे। दुनिया का एकमात्र सुपर पावर होने के नाते अमेरिका को एक बार फिर नेतृत्व की भूमिका निभानी पड़ेगी। जलवायु परिवर्तन, महामारी के खिलाफ लड़ाई तथा आर्थिक मंदी से निकलने जैसे प्रमुख मुद्दों के समाधान में सहयोग करना पड़ेगा।
बराक ओबामा के उपराष्ट्रपति के रूप में बाइडन के पास गवर्नेंस का बेहतरीन अनुभव हैं। उन्होंने कई मुद्दे गिनाए हैं, जो उनकी प्राथमिकता में होंगे। इनमें पेरिस जलवायु समझौते में शामिल होना, ईरान के साथ परमाणु समझौते पर दोबारा काम करना, विश्व स्वास्थ्य संगठन में दोबारा शामिल होना और यूरोप के नाटो मित्र देशों के साथ मिलकर चलना शामिल हैं। जर्मनी की चांसलर एंगेला मार्केल और फ्रांस के राष्ट्रपति इमैनुएल मैकरां जैसे यूरोपीय नेताओं ने बाइडन की जीत पर खुशी जताई है। बाइडन को सबसे पहले बधाई संदेश भेजने वालों में डोनाल्ड ट्रंप के बड़े प्रशंसक और दोस्त ब्रिटिश प्रधानमंत्री बोरिस जॉनसन थे। जॉनसन अमेरिका के साथ ऐसा व्यापार समझौता चाहते हैं, जिससे ब्रेक्जिट (यूरो जोन से अलग होने) की भरपाई हो सके।
प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी ने बाइडन और कमला हैरिस को बधाई देने के लिए अलग-अलग ट्वीट किए। भारत सरकार बाइडन से भलीभांति परिचित है। सीनेट की विदेश संबंध समिति के चेयरमैन के तौर पर 123 समझौता (भारत-अमेरिका परमाणु डील का हिस्सा) करवाने में उन्होंने महत्वपूर्ण भूमिका निभाई थी। जब परमाणु परीक्षणों के चलते अमेरिका ने भारत पर प्रतिबंध लगा रखे थे, तब 2001 में बाइडन ने तत्कालीन राष्ट्रपति जॉर्ज बुश से प्रतिबंध हटाने का आग्रह किया था। वॉशिंगटन में काम कर चुके एक वरिष्ठ भारतीय राजनयिक के अनुसार बाइडन ने कई वर्ष पहले ही कहा था कि भारत और अमेरिका के संबंध 2020 में बहुत अच्छे हो जाएंगे।
मोदी ने डोनाल्ड ट्रंप के साथ अच्छे संबंध बना लिए थे और वे उन्हें अच्छी तरह समझते भी थे। 2016 के राष्ट्रपति चुनाव में जब ट्रंप पहली बार सामने आए तो कोई उनके बारे में कुछ नहीं जानता था। 2019 में ह्यूस्टन की ‘हाउडी मोदी रैली’ में जब दोनों नेता स्टेज पर साथ थे, तो अगले राष्ट्रपति के रूप में मोदी ने परोक्ष रूप से ट्रंप का समर्थन किया था। इस वर्ष अहमदाबाद में आयोजित शो के दौरान जब मोदी ट्रंप को लेकर स्टेज पर पहुंचे तो वहां मौजूद भारी भीड़ देखकर ट्रंप की आंखें चौंधियां गई थीं। हालांकि किसी भारतीय के लिए यह सामान्य बात है। सौभाग्यवश बाइडन ट्रंप नहीं हैं, और ऐसी बातों से मोदी के बारे में उनके विचार नहीं बदलने वाले हैं।
लगभग हर विश्लेषक ने कहा है कि भारत के प्रति अमेरिका की नीति में कोई बड़ा बदलाव नहीं आएगा। राष्ट्रीय सुरक्षा सलाहकार बोर्ड के चेयरमैन और पूर्व राजनयिक पी.एस. राघवन कहते हैं, “जहां तक भारत की बात है, दोनों पक्षों के हित काफी मजबूत हैं। इसे देखते हुए कहा जा सकता है कि संबंधों में कोई बदलाव नहीं आएगा।” दोनों देशों के बीच रक्षा संबंध, भारत-प्रशांत क्षेत्र को लेकर नजरिया और आतंकवाद के खिलाफ एक दूसरे का सहयोग सब पूर्ववत बने रहेंगे।
चीन के प्रति बाइडन के नजरिए पर भारत की पैनी नजर रहेगी। अमेरिका के आधिपत्य को आने वाले दिनों में चीन से मिलने वाली चुनौती पर डेमोक्रेट और रिपब्लिकन, दोनों पार्टियां एक मत हैं, लेकिन उनका चीन से निपटने का तरीका अलग होगा। ट्रंप ने चीन पर अनुचित व्यापार तरीके अपनाने और विश्व व्यापार व्यवस्था का दुरुपयोग करने के आरोप लगाए थे। ऐसा करने वाले वे चुनिंदा नेताओं में थे। आर्थिक कारणों से अन्य नेता ऐसा करने में झिझकते थे। लेकिन अब जब ट्रंप ने राह बना दी है तो वापस लौटने का सवाल नहीं उठता है। अमेरिकी कंपनियों के लिए बाइडन भी उतने ही जोरदार तरीके से लड़ेंगे, हालांकि ज्यादातर वार्ता पर्दे के पीछे होगी।
भारत की टेक्नोलॉजी कंपनियों के लिए बाइडन की जीत बड़ी राहत लेकर आई है। ट्रंप ने एग्जीक्यूटिव आदेश के जरिए एच1बी वीजा जारी करने पर रोक लगा दी थी। उन्हें लगता था कि बाहर से सस्ते श्रमिक आने के कारण अमेरिकी नागरिक रोजगार से वंचित रह जाते हैं। करीब 70 फीसदी एच1बी वीजा भारतीयों को जारी होते हैं, इसलिए इस रोक से अमेरिकी बिजनेस को भी नुकसान हुआ। मोदी और ट्रंप के बीच दोस्ती की बातें चाहे जितनी कर ली जाए, भारत और अमेरिका की आर्थिक साझेदारी को इससे कोई फायदा नहीं हुआ, क्योंकि ट्रंप का मानना था कि भारत में ऊंचे आयात शुल्क के कारण अमेरिकी कंपनियों को नुकसान हो रहा है। भारत-अमेरिका व्यापार के लिए एक नई डील की जरूरत है, लेकिन इसमें वक्त लग सकता है। बाइडन ने मुक्त व्यापार और वैश्वीकरण को लेकर जो भी राय रखी हो, अमेरिकी कर्मचारियों के हित उनके लिए सर्वोपरि होंगे, जैसा कि हर सरकार के लिए होता है।
अमेरिकी थिंक टैंक हडसन इंस्टीट्यूट की अपर्णा पांडे कहती हैं, “आर्थिक चुनौतियां तो रहेंगी, लेकिन नजरिया बदलेगा। विवाद के बिंदु खत्म नहीं होंगे लेकिन उन पर चर्चा करना आसान होगा। भारत के साथ अमेरिका द्विपक्षीय व्यापार बढ़ाना चाहता है। अभी यह सिर्फ 150 अरब डॉलर है जो 500 अरब डॉलर तक जा सकता है। उसके लिए ओबामा प्रशासन की तरह बाइडन प्रशासन भी शुल्क घटाने और दूसरे उपायों पर काम करेगा। बाइडन प्रशासन अमेरिकी अर्थव्यवस्था के पुनर्निर्माण का प्रयास करेगा तो साथ में जापान, ताइवान, ऑस्ट्रेलिया और भारत जैसे सहयोगी देशों पर भी समान रूप से फोकस करेगा। इस तरह वह चीन को भी अलग-थलग करेगा।” भारत के प्रमुख उद्योग संगठन सीआइआइ के महानिदेशक चंद्रजीत बनर्जी का मानना है कि भारत और अमेरिका के बीच व्यापारिक संबंध बढ़ाने वाले जो सेक्टर हैं, उनमें ऊर्जा, हरित अर्थव्यवस्था, रक्षा, मैन्युफैक्चरिंग-खासकर छोटे बिजनेस को बढ़ावा, दवा और हेल्थकेयर प्रमुख हैं।
कुछ लोगों में इस बात को लेकर बेचैनी है कि जिस तरह डोनाल्ड ट्रंप ने मानवाधिकारों को लेकर आंखें मूंद ली थीं, वैसा डेमोक्रेटिक प्रशासन में नहीं होगा। सभी जानते हैं कि मानवाधिकार और लोकतांत्रिक मूल्य डेमोक्रेटिक पार्टी के केंद्र में है। जब प्रगतिवादी डेमोक्रेट इन मुद्दों को उठाना चाहते हैं तो बाइडन के लिए चुप रहना मुश्किल होगा। चुनाव अभियान की शुरुआत में ही बाइडन ने कश्मीर का मुद्दा उठाया था और भारत सरकार के निर्णय की आलोचना की थी। नागरिकता संशोधन कानून और राष्ट्रीय नागरिक रजिस्टर का भी मुद्दा उन्होंने उठाया था। लेकिन बाद में उन्होंने इनका कोई जिक्र नहीं किया। शायद उनकी नजर भारतीय-अमेरिकियों के वोट पर थी। ऐसा नहीं कि ट्रंप प्रशासन के दौरान कश्मीर का मुद्दा नहीं उठाया गया। अमेरिकी प्रतिनिधि सभा में इससे संबंधित दो प्रस्ताव लाए गए थे। राजनीतिक संगठन क्रिश्चियन राइट ने भी धार्मिक आजादी को लेकर भारत की आलोचना की है।
यह निश्चित है कि बाइडन प्रशासन मानवाधिकारों के मुद्दे उठाएगा, लेकिन इस बारे में ज्यादा बातचीत बंद कमरे में ही होगी। यही बाइडन की शैली है। लेकिन बढ़ते चीन की चुनौती को देखते हुए अमेरिका भारत समर्थक अपनी नीति बदलेगा, इसकी उम्मीद नहीं है। आखिर भारत को उसकी बहु-धार्मिक, बहु-नस्ली और बहु-सांस्कृतिक परंपरा की याद दिलाना कोई बुरी बात तो नहीं।