अमेरिका आज वह कर रहा है जिसे वह पिछले 4 वर्षों में हमेशा करना चाहता था। वह अपने 46वें राष्ट्रपति जो बाइडन की ताजपोशी के साथ ही अपने 45वें राष्ट्रपति डोनाल्ड जॉन ट्रंप को भुला देना चाहता है। दुनिया भी उन्हें भुला देने को तैयार बैठी है। 2016 में चुनाव जीतकर राष्ट्रपति बनने से लेकर 2020 में राष्ट्रपति का चुनाव हारने तक उनका एक दिन भी ऐसा नहीं बीता जब उन्होंने अमेरिका को शर्मसार और दुनिया को हतप्रभ न किया हो। ऐसा इसलिए नहीं कि अमेरिका की आधी आबादी उनसे सहमत नहीं थी। सहमति-असहमति लोकतंत्र में हवा की तरह आती-जाती रहती है। कुछ असहमतियां जरूर ही इतनी गहरी होती हैं कि जो कभी जाती नहीं हैं। तो, लोकतंत्र का मानी ही यह होता है कि ऐसी असहमतियों से जनता को सहमत किया जाए और उस सहमति की ताकत से, जिससे असहमति है, उसे शासन से हटाया जाए। डेमोक्रेटिक पार्टी के नेताओं-कार्यकर्ताओं ने यही किया और रिपब्लिकनों को चुनाव में मात दी। पिछली बार यही ट्रंप ने किया था और डेमोक्रेटों को सत्ता से बाहर किया था। यह लोकतंत्र का खेल है, जिसे चलते रहना चाहिए।
लेकिन ट्रंप को यह खेल पसंद नहीं था, इसलिए उन्होंने पिछली बार जैसी अशोभनीय अहमन्यता से अपनी जीत का डंका बजाया था, उतनी ही दरिद्रता से इस बार अपनी हार को कबूल करने से इनकार कर दिया था। उन्हें यह एहसास ही नहीं है कि वे व्हाइट हाउस में अमेरिकी जन और संविधान के बल पर मेहमान थे, उन्होंने व्हाइटहाउस खरीद नहीं लिया था। वैसे भी आम अमेरिकी खरीदने-बेचने की भाषा ही समझता है; ट्रंप तो इसके अलावा दूसरा कुछ जानते-समझते ही नहीं हैं। इसलिए बाइडन से अपनी हार को जीत बता-बता कर वे पिछले दिनों में वह सब करते रहे जिसे करने की हिम्मत या कल्पना किसी दूसरे अमेरिकी राष्ट्रपति ने नहीं की थी। उन्होंने खुद ही घोषणा की कि वे ‘अब्राहम लिंकन के बाद के सबसे प्रभावी राष्ट्रपति हैं’ और यह भी कि ‘वे अौर उनके समर्थक ईश्वर द्वारा चुने सबसे अभिजात वर्ग के मनुष्य हैं।’ यह वे कहते थे और उनका परिवार उनकी इस दैवी विरासत में पक्का भरोसा कर चलता था। एक तरफ यह आलम था तो दूसरी तरफ यह भी था कि अमेरिका के मशहूर अखबार वाशिंगटन पोस्ट की जांच टीम ने उनके राष्ट्रपति-काल के अंतिम दिनों में हिसाब लगाकर बताया कि उन्होंने इन 5 साल के दौरान 30,000 झूठे या बेबुनियाद बयान दिए। जिस हिलेरी क्लिंटन को हरा कर वे राष्ट्रपति बने थे, उन पर अभद्र टिप्पणियां करने से लेकर अपने विरोधी उम्मीदवार और अब अमेरिका के राष्ट्रपति जो बाइडेन की जासूसी करवाने तथा विदेशी ताकतों की मदद से उन्हें अयोग्य साबित करवाने तक का गर्हित खेल उन्होंने खेला। पराकाष्ठा तब हुई जब उन्होंने नए साल को ठीक से आंखें खोलने का मौका भी नहीं दिया और उसकी आंख में धूल झोंक दी। यह उनका सबसे शर्मनाक कृत्य था। किसी अमरीकी विश्लेषक ने यह कठोर टिप्पणी भी की कि वे अमेरिका के ‘सबसे अ-राष्ट्रपति’ राष्ट्रपति थे।
लेकिन पराजित मानसिकता का जहर पीते हुए बुधवार 6 जनवरी 2021 को उन्होंने जो किया और करवाया, वह सिर्फ असंवैधानिक नहीं है बल्कि घोर अलोकतांत्रिक था; वह अक्षम्य ही नहीं है बल्कि ऐसा अपराध था जिसकी सजा उन्हें मिलनी ही चाहिए थी। क्या है उनका अपराध? लोकतंत्र के नागरिक को भीड़ में तब्दील करना वह घृणित अपराध है, जिसकी एक ही सजा हो सकती है कि उन्हें उन लोकतांत्रिक अधिकारों और सहूलियतों से वंचित कर दिया जाए, जिसके सहारे वे राष्ट्रपति बने फिर रहे थे। इसे सबसे पहले समझा सोशल मीडिया ने। मैं उन लोगों में हूं जो सोशल मीडिया के नाम से यह सब जो चल रहा है, उसे सबसे ‘अनसोशल मीडियो-क्रैसी’ मानता हूं लेकिन मुझे काफी खुशी हुई कि फेसबुक, ट्विटर, इंस्टाग्राम वगैरह ने तुरंत वह किया, जो दूसरे सारे संवाद माध्यमों को करना चाहिए था। सोशल मीडिया ने ट्रंप के सारे एकाउंट बंद कर दिए। हालत ऐसी हो गई कि ट्रंप साहब के पास ‘अपने सद्विचार’ फैलाने का कोई मंच नहीं रह गया। ट्विटर ने हमेशा के लिए ट्रंप का एकाउंट बंद करते हुए कहा, ‘हिंसा भड़काए जाने की नई संभावनाओं को रोकने के लिए यह कदम उठाया गया है।’ लोकतांत्रिक स्वतंत्रताओं का फायदा उठाकर लोकतंत्र की जड़ों पर कुठाराघात करने वालों को इस तरह रोकना हर किसी का लोकतांत्रिक दायित्व है।
परदे के पीछे से ट्रंप का समर्थन करने वाले कई तत्व अपने यहां भी और अमेरिका में भी इसे सोशल मीडिया की मनमानी बता रहे हैं। वे कह रहे हैं कि इस तरह तो सोशल मीडिया एक समानांतर शक्ति बन जाएगा, जो लोकतंत्र के लिए खतरनाक होगा। यह बात सही है और यह खतरा बिल्कुल सामने खड़ा है। लेकिन इन चालाक कायरों से पूछा जाना चाहिए कि सोशल मीडिया के नाम से बाजार खोलने वाली इन ताकतों को बढ़वा किसने दिया? अमेरिका में ट्रंप जैसों ने और हमारे यहां सांप्रदायिक राजनीति करने वालों ने। आप सोशल मीडिया के दम पर अपनी राजनीति करेंगे, वह उचित है लेकिन सोशल मीडिया अपने बल पर आपकी राजनीति की जड़ काटने लगे तो वह गलत है, यह कैसा बेतुका तर्क है! द्वेष फैलाने, सामाजिक तनाव पैदा करने, अनजान और मासूम लोगों को आक्रामक भीड़ में बदलने के लिए तथाकथित सोशल मीडिया का इस्तेमाल करने वाले अब ट्रंप के नाम पर घड़ियाली आंसू न बहाएं। वे लोकतंत्र के प्रति न तब ईमानदार थे, न आज हैं।
अमेरिकी संसद की अध्यक्ष नैंसी पेलोसी तथा मैसाच्यूसेट्स की सांसद कैथरीन क्लार्क ने बड़े पते की बात की, जब उन्होंने कहा कि (तब के) उप-राष्ट्रपति माइक पेंस संशोधित धारा 25 का इस्तेमाल कर ट्रंप को राष्ट्रपति के रूप में काम करने से रोकते नहीं हैं तो हम उन पर दूसरी बार महाभियोग का मामला चलाएंगे। उन्होंने ऐसा कहा भर नहीं बल्कि सच में यह महाभियोग ट्रंप पर चलाया गया। यह दूसरा मौका था जब ट्रंप महाभियोग के अपराधी माने गये। पहला महाभियोग 2019 में चलाया गया था जब अमेरिका की प्रतिनिधि सभा ने उसे पारित भी कर दिया था लेकिन ऊपरी सदन में अपनी पार्टी के बहुमत के बूते ट्रंप बच गये थे। इस बार उन्हें खेल बदला हुआ मिला। पेंस के इनकार के बाद भी महाभियोग अमेरिकी प्रतिनिधि सभा या निचले सदन से पारित हो गया। अब ट्रंप भविष्य में कोई राजनीतिक पद हासिल नहीं कर सकेंगे। सिनेट या ऊपरी सदन में बहस और मतविभाजन के लिए महाभियोग पेश है जिसका फैसला आने पर कई दूसरे रंग भी खिलेंगे। महाभियोग का मामला चलाना अमेरिकी संविधान की सबसे जटिल प्रक्रिया है। लेकिन अमेरिकी संविधान में ही यह व्यवस्था भी है कि खास मामलों में विधायिका महाभियोग की दूसरी सारी प्रक्रियाओं को किनारे कर, राष्ट्रपति पर सीधे मामला दर्ज कर सकती है और उस पर सीधी बहस करवा कर, मत विभाजन करवा सकती है। यह तब भी किया जा सकता है जब आरोपित राष्ट्रपति पद से हट चुका हो। ऐसी प्रक्रिया के बाद यदि वह राष्ट्रपति या पूर्व राष्ट्रपति दोषी साबित होता है तो संसद उसे भविष्य में किसी भी संवैधानिक पद के लिए अवैध घोषित कर, उसका राजनीतिक जीवन समाप्त सकती है। अमेरिका राष्ट्रपति के रूप में ट्रंप को अस्वीकार करे, यही उनकी सबसे उपयुक्त लोकतांत्रिक सजा है। अलास्का की रिपब्लिकन सांसद लीसा मुरकोवस्की ने जो कहा वही अमेरिका भी और दुनिया भी कह रही है, ‘‘मैं चाहती हूं कि वे विदा हों। उन्होंने बहुत-बहुत नुकसान कर दिया है।’’
यह इसलिए जरूरी है कि ट्रंप को 6 जनवरी के कुकृत्यों का कोई पछतावा नहीं है। अमेरिकी राष्ट्र को शर्मसार करने के दो दिन बाद तक वे व्हाइट हाउस में खमोश बैठे रहे। उनकी सलाहकार मंडली उन्हें समझाती रही कि उन्हें संसद में जबरन प्रवेश करने, हिंसा और लूट-मार करने की अपने समर्थकों की हरकत का निषेध करने वाला बयान तुरंत जारी करना चाहिए। लेकिन ट्रंप ऐसा कुछ भी कहने को तैयार नहीं हो रहे थे। जब उन्हें यह एहसास कराया गया कि अमेरिकी कानून उन्हें इसकी आपराधिक सजा सुना सकता है तब एक सामान्य अपराधी की तरह वे डर गए और बड़े बेमन से, काफी हीले-हवाले के बाद उस मजमून पर हस्ताक्षर किए, जो उनके नाम से दुनिया के सामने आया। यह हमारी आंखों में धूल झोंकने की नई कोशिश से अधिक कुछ नहीं है। उन्होंने यह भी कहा कि वे 20 जनवरी को नए राष्ट्रपति के शपथ-ग्रहण समारोह में हाजिर नहीं रहेंगे। लेकिन यह काम तो अमेरिकी संसद को करना चाहिए था। उसे राष्ट्रपति ट्रंप, उप-राष्ट्रपति माइक पेंस तथा ट्रंप प्रशासन के सभी उच्चाधिकारियों को, जो ट्रंप के कुकृत्यों में बराबरी के साझीदार रहे हैं, इस समारोह का आमंत्रण भेजने से मना कर देना चाहिए था। यह अमेरिका के संसदीय इतिहास की पहली घटना होती कि जब संसद किसी राष्ट्रपति अौर उसकी टीम को अस्वीकार कर देती।
यह क्यों जरूरी है? सारी दुनिया में हम यह नजारा देख रहे हैं कि लोकतांत्रिक प्रक्रियाओं और संवैधानिक प्रावधानों का इस्तेमाल कर, येन-केन-प्रकारेण कोई भी ऐरा-गैरा, नत्थू-खैरा सत्ता में पहुंच जाता है और फिर लोकतंत्र की बखिया उधेड़ने लगता है। वह लोकतंत्र को मनमाना करने का लाइसेंस मान लेता है और खोखले शब्दजाल में जनता को फंसा कर, उसे भीड़ में बदल लेता है। यह खेल हम अपने यहां भी देख रहे हैं। एक उन्मत्त भीड़ को स्थायी सेना का रूप दिया गया है, जो हर असहमति का सर तोड़ने को तैयार बैठी है। उसे संरक्षण और प्रोत्साहन देने के लिए सत्ता उसके पीछे खड़ी है। राज्यों में भी यही हो रहा है और केंद्र में भी। अब तो यह होने लगा कि सरकारें खुद ही उस उन्मत्त भीड़ की भूमिका अदा कर रही हैं। लोकतंत्र मानवीय कमजोरियों को निशाना बना कर सत्ता में पहुंचने और सत्ता से चिपकने का गर्हित खेल नहीं है, बल्कि इसकी आत्मा यह है कि लोगों को उनकी संकीर्णताओं से ऊपर उठा कर, भीड़ से नागरिक बनाया जाए और उस नागरिक की सम्मति से शासन चलाया जाए। ट्रंप जैसे लोग न लोकतंत्र समझते हैं, न उसमें आस्था रखते हैं। इसलिए जरूरी है कि लोकतंत्र उन्हें अपना पाठ पढ़ाए। अपराधी वे नहीं हैं जो 6 जनवरी को कैपिटल हिल में जा घुसे थे। वे ट्रंप समर्थक भी नहीं थे। वह असामाजिक तत्वों की वह जमात थी जो थोड़ी सुविधा, थोड़े धन और थोड़े वक्त की शक्ति का मजा लूटने को तैयार बैठी होती है। वह तो उन्मत्त बनाई गई, वह भीड़ थी जिसका आयोजन ट्रंप ने किया था। हमारे यहां ‘बंदर को दारू पिलाना’ खासा प्रचलित मुहावरा है। ट्रंप ने यही किया था। अब उन्हें यह बताने का वक्त है कि बंदरों का खेल सड़क पर देखना सुहाता है, राष्ट्रपति भवन में नहीं।
(लेखक गांधी शांति प्रतिष्ठान के अध्यक्ष और वरिष्ठ स्तंभकार हैं)