इस बार बिहार में युवा मतदाताओं, खासकर जनरेशन जेड या जेन जी का रुझान नतीजे तय कर सकता है। विपक्ष हो या सत्तारुढ़ दल, सभी उसी के इर्दगिर्द रणनीतिक बुनावट तैयार कर चुके हैं। पिछले चुनावों के विपरीत, 2025 में जेन जी का जोर है। असल में कोविड महामारी के बाद उभरे सामाजिक-आर्थिक मसले, बढ़ती डिजिटल हिस्सेदारी और पारंपरिक राजनैतिक नेतृत्व के प्रति दिखने वाली नाराजगी युवा मतदाताओं में दिख रही है। जेन जी इसे सोशल मीडिया, प्रदर्शनों और चर्चाओं में दिखा भी रही है और राजनैतिक विचारों को आकार भी दे रहा है।
बिहार की लगभग 58 प्रतिशत आबादी 25 वर्ष से कम उम्र की है। यह वर्ग पारंपरिक जाति से जुड़ी राजनैतिक विचारधारा को नया रूप दे सकती है। ये लोग पार्टियों की चुनावी रणनीतियों, नारों और राजनैतिक व्याकरण को प्रभावित कर रहे हैं। हाल में दक्षिण एशिया, खासकर बिहार से सटे नेपाल में युवाओं की लामबंदी से तख्तापलट हो गया। उसका असर सीमा पार भी गूंज सकता है।
बिहार में देश में युवाओं का अनुपात सबसे ज्यादा है। बिहार के 7.44 करोड़ पंजीकृत मतदाताओं में लगभग 25 प्रतिशत जेन जी से हैं और करीब 14.7 लाख मतदाता पहली बार मतदाता बने हैं। यानी हर विधानसभा सीट पर लगभग 5,700 नए मतदाता जुड़े हैं।
पिछले यानी 2020 के चुनावों से इस बार 11.17 लाख युवा वोटरों में इजाफा हुआ है। यह संख्या 2015 में पंजीकृत 24.13 लाख युवा वोटरों से काफी कम है। प्रति निर्वाचन क्षेत्र में पहली बार के मतदाताओं की औसत संख्या 2015 में 9,930 से घटकर 2020 में 4,597 हो गई। 2015 के चुनाव के आंकड़ों से 73 सीटें ऐसी थीं जहां पहली बार के मतदाताओं की संख्या जीत के अंतर से आगे निकल गई, जिसमें तरारी की सीट भी थी, जहां भाकपा-माले के उम्मीदवार ने लोजपा-रामविलास के उम्मीदवार को सिर्फ 272 वोटों से हराया था। खास बात यह है कि 2020 के चुनाव में 56 निर्वाचन क्षेत्रों (कुल सीटों का 23 प्रतिशत) में जीत का अंतर पहली बार के मतदाताओं की संख्या से कम था, जिससे 2025 में कई विधानसभा क्षेत्रों में इस वर्ग के संभावित चुनावी असर का अंदाजा मिलता है।
बिहार की राजनैतिक संस्कृति लंबे समय से जातिगत पहचानों पर आधारित रही है। राष्ट्रीय जनता दल (राजद) और जनता दल (यूनाइटेड) (जद-यू) जैसी ओबीसी के नेतृत्व वाली पार्टियों का दबदबा सामाजिक न्याय और पहचान की राजनीति का उदाहरण है। हालांकि जेन जी का रुझान बदल रहा है। जेन जी का जोर डिजिटल मीडिया, पढ़ाई-लिखाई और रोजगार जैसे मुद्दों पर है, जिससे धीरे-धीरे चुनावी समीकरण बदल रहा है। उनकी राजनीतिक प्राथमिकताएं रोजगार, हुनर विकास, भ्रष्टाचार और स्त्री-पुरुष समानता जैसे मुद्दों से प्रभावित दिखती हैं। यह बदलाव पार्टियों को पारंपरिक पहचान की राजनीति से आगे बढ़कर एजेंडा-आधारित लामबंदी की ओर बढ़ने के लिए मजबूर कर रहा है।
राष्ट्रीय जनतांत्रिक गठबंधन (एनडीए) के बैनर तले नीतीश कुमार ने 2005 से बिहार के राजनैतिक विमर्श को जातिगत गणित से हटकर सड़क, स्कूल और बिजली के मुद्दों को आगे किया। उनके गठबंधन ने शुरुआत में सवर्णों और गैर-यादव ओबीसी को एकजुट किया, जो राजद-कांग्रेस गुट से छिटक गए थे। लेकिन दो दशक बाद, थकान साफ दिखाई दे रही है। युवा पीढ़ी अब न केवल बुनियादी ढांचे की मांग करती है, बल्कि अवसर, शिक्षा, रोजगार और सम्मान की भी मांग करती है। राज्य में शहरीकरण की दर मात्र 13.3 प्रतिशत है, जो देश में सबसे कम है, और औद्योगिक विकास सीमित है, ऐसे में बिहार के युवा विकास के अधिक जीवंत और समावेशी मॉडल की मांग कर रहे हैं।
इस बार राजनीतिक परिदृश्य में जन सुराज पार्टी के रूप में प्रशांत किशोर नए खिलाड़ी के रूप में उभर रहे हैं। जन सुराज बेरोजगारी और भ्रष्टाचार को मुद्दा बनाने की कोशिश कर रही है। प्रशांत बिहार लोक सेवा आयोग (बीपीएससी) के पेपर लीक के खिलाफ छात्र विरोध प्रदर्शनों में शामिल हुए। उन्होंने सरकार में जवाबदेही और पारदर्शिता के पैरोकार के रूप में छवि मजबूत की ।
ये मुद्दे बिहार के युवाओं में लगातार बेरोजगारी, शिक्षा व्यवस्था की बुरी हालत और सरकार की नाकामियों से व्यापक मोहभंग से उपजे हैं। नियंत्रक और महालेखा परीक्षक (सीएजी) की 2017-2022 की रिपोर्ट से पता चलता है कि 18 प्रतिशत शिक्षा निधि का उपयोग नहीं हो पाया है और 57 प्रतिशत शिक्षकों के पद खाली हैं। ये आंकड़े सरकारी नाकामियां उजागर करते हैं, जिसके कारण हजारों युवा बेहतर शिक्षा और रोजगार के लिए पलायन करने को मजबूर हैं। युवाओं का पलायन 2001 में 55 लाख से बढ़कर 2011 में 79 लाख हो गया। राज्य सरकार की 2023 की जाति-आधारित सर्वेक्षण रिपोर्ट का अनुमान है कि लगभग 10 प्रतिशत ऊंची जातियों के परिवारों में कम से कम एक सदस्य प्रवासी है, हाशिए के समुदायों के लोगों का हाल तो और बुरा है। हुनरमंद और अकुशल दोनों तरह के युवाओं का पलायन बड़े पैमाने पर हो रहा है। जो लोग बचे हैं, उनके लिए निजी कोचिंग सेंटर असफल सरकारी संस्थानों के विकल्प बन गए हैं, जिससे उनके सपने का व्यवसायीकरण हो रहा है।
इस मोहभंग के मद्देनजर पारंपरिक राजनैतिक दल चुनावी रणनीतियों को नया रूप दे रहे हैं। तेजस्वी यादव के नेतृत्व में राजद अपनी विशुद्ध जाति-आधारित छवि को त्यागकर खुद को युवा आकांक्षाओं के प्रतिनिधि के रूप में स्थापित करने का प्रयास कर रहा है। उसके प्रमुख वादों में बिहार युवा आयोग की स्थापना, परीक्षा फॉर्म की फीस माफी, मुफ्त कोचिंग सहायता और परीक्षाओं में छात्रों के लिए यातायात सुविधाएं शामिल हैं। उल्लेखनीय है कि बाद में युवा आयोग के मुद्दे को नीतीश कुमार सरकार ने अपनाया था, जिससे साफ है कि चुनावी होड़ नई रणनीतियों के लिए मजबूर कर रही है।
इस बीच, सत्तारूढ़ जदयू-भाजपा गठबंधन ने जननायक कर्पूरी ठाकुर कौशल विश्वविद्यालय और मुख्यमंत्री निश्चय स्वयं सहायता भत्ता योजना के तहत बेरोजगार स्नातकों को 1,000 रुपये मासिक वजीफा और मुफ्त कौशल प्रशिक्षण जैसी योजनाओं के जरिए युवाओं को लुभाने की कोशिश की है। इन उपायों के बावजूद, अपने नौवें कार्यकाल में नीतीश कुमार को युवा पीढ़ी से जुड़ने में चुनौतियों का सामना करना पड़ रहा है।
आबादी के प्रतिनिधित्व में विरोधाभास भी चौंकाने वाला है। बिहार में युवा मतदाता बढ़ रहे हैं, जबकि विधायकों की आयु बढ़ती जा रही है। 2015 और 2020 के बीच, 56-70 आयु वर्ग के विधायकों की संख्या 27 प्रतिशत से बढ़कर 33 प्रतिशत हो गई और 80 वर्ष से अधिक आयु के विधायकों की संख्या चार प्रतिशत से बढ़कर पांच प्रतिशत हो गई।
सीएसडीएस-लोकनीति के 2020 के चुनाव-बाद सर्वेक्षण में युवा मतदाताओं (18-29 वर्ष) के बीच लगभग बराबरी का बंटवारा दिखा। 36 प्रतिशत ने एनडीए का समर्थन किया, जबकि 37 प्रतिशत ने महागठबंधन का समर्थन किया। जाति के बजाय रोजगार और भ्रष्टाचार निर्णायक मुद्दे थे।
सरकार में युवाओं का भरोसा लगातार घटता गया है। राष्ट्रीय अपराध रिकॉर्ड ब्यूरो (2022) ने बिहार में भ्रष्टाचार के 108 मामले दर्ज किए, जिसमें यह देश के राज्यों में 12वें स्थान पर रहा। उसके अलावा, एसोसिएशन फॉर डेमोक्रेटिक रिफॉर्म्स (एडीआर) के आंकड़े बताते हैं कि 68 प्रतिशत मौजूदा विधायकों पर आपराधिक मामले दर्ज हैं, जिससे जेन जी का राजनीतिक वर्ग के प्रति संदेह और गहरा गया है।
चुनाव आयोग के 2024 में जानकारी, दृष्टिकोण और व्यवहार के आधारभूत सर्वेक्षण (केएपी) के अनुसार, केवल 4.2 प्रतिशत मतदाताओं ने मतदान के लिए जाति को अपनी प्राथमिकता बताई। यह बदलाव बताता है कि शिक्षा, रोजगार और मुद्दा-आधारित राजनीति धीरे-धीरे पारंपरिक पहचान-आधारित लामबंदी को कमजोर कर रही है। फिर भी, जाति राजनीति पूरी तरह से गायब नहीं है। राजद के नेतृत्व वाले महागठबंधन के हाल ही में हुए 65 प्रतिशत आरक्षण विस्तार से लाभ मिलने की उम्मीद है, जिसने 2024 के लोकसभा चुनावों में उसके प्रदर्शन को मजबूत किया है। उसे 2019 के मुकाबले नौ सीटें मिली। इस बीच, भाजपा अपने विकास के ढर्रे पर चलते हुए सवर्णों और महिला मतदाताओं के बीच समर्थन को मजबूत कर रही है।
दिलचस्प बात यह है कि 2010 के बाद से बिहार में महिला मतदाताओं की संख्या हर चुनाव में पुरुषों की तुलना में लगातार बढ़ रही है। यह रुझान 2025 में भी जारी रहा, तो 2.42 लाख नए मतदाताओं में से एक लाख से अधिक पहली बार मतदान करने वाली 18-25 वर्ष की युवा महिलाएं होंगी, जो नतीजों को प्रभावित कर सकती हैं। अब विवाह की औसत आयु 22 वर्ष है, इसलिए अधिक लड़कियां शिक्षा और करियर की तलाश में हैं। दोनों प्रमुख गठबंधन इसी वर्ग को लक्षित कर रहे हैं। राजद ने ‘माई-बहन सम्मान योजना’ का प्रस्ताव रखा है, जिसके तहत महिलाओं को 2,500 रुपये मासिक दिए जाएंगे, जबकि नीतीश कुमार की सरकार ने राज्य सरकार की 35 प्रतिशत नौकरियों को महिलाओं के लिए आरक्षित किया है।
मुकाबला सिर्फ महागठबंधन, एनडीए या जन सुराज के बीच नहीं, बल्कि पुरानी वफादारियों और नई आकांक्षाओं के बीच है। राज्य के जेन जी मतदाता राजनैतिक व्याकरण नए सिरे से लिखेंगे या पुरानी परिपाटी कायम रहेगी, यह देखना बाकी है। एक बात साफ है, कोई भी पार्टी अब यंगिस्तान की अनदेखी नहीं कर सकती। बिहार का लोकतंत्र ऐसे मुकाम है, जहां युवा पीढ़ी चुप रहने से इनकार करती है।
(लेखक दिल्ली के जाकिर हुसैन कॉलेज में राजनीति विज्ञान विभाग में प्रोफेसर हैं। विचार निजी हैं)