“इस बार तेजस्वी तय है, इस बार तेजस्वी तय...”
बिहार के सुदूर इलाकों में आजकल राष्ट्रीय जनता दल (राजद) के चुनावी अभियान का यह गीत खूब बज रहा है, जिसमें यह कहा जा रहा है कि तेजस्वी प्रसाद यादव के लिए राज्य की सत्ता की कमान हाथ में लेने का वक्त आ गया है। राजद, कांग्रेस और वाम दलों के महागठबंधन के मुख्यमंत्री पद के उम्मीदवार तेजस्वी, सत्ताधारी जद (यू) और भाजपा की ताकतवर और मिलीजुली सेना के खिलाफ विपक्ष का जोशोखरोश के साथ नेतृत्व कर रहे हैं। लेकिन बिहार की जटिल चुनावी प्रक्रिया का यह महज एक छोटा-सा विवरण है। दरअसल, ऐसा चुनाव बिहार ने कभी नहीं देखा है, सिर्फ इसलिए नहीं कि इस पर कोविड-19 जैसी वैश्विक महामारी के बादल मंडरा रहे हैं। पिछली बार राज्य की जनता ने नई विधानसभा के गठन के लिए मतदान किया था, तो लालू प्रसाद जमानत पर बाहर थे, जद (यू), राजद और कांग्रेस एक साथ थे, दलित आंदोलन के अग्रणी नेताओं में से एक, रामविलास पासवान जीवित थे और सुशांत सिंह राजपूत कोई चुनावी मुद्दा नहीं था। पांच साल राजनीति में बहुत लंबा समय है, और 15 साल– जितने समय से मुख्यमंत्री नीतीश कुमार राज्य के सिंहासन पर काबिज हैं- तो जीवन भर की तरह है।
शायद यही कारण है कि राजद के बचे हुए कुछ पारंपरिक गढ़ों में उसके समर्थक 30 वर्षीय नेता को सत्ता में लाने के लिए संघर्षरत हैं। उन्हें उम्मीद है कि तेजस्वी नीतीश कुमार को 1, अणे मार्ग से विदा करके मुख्यमंत्री के बंगले को पुनः हासिल करने के मिशन को पूरा करेंगे, जहां उन्होंने लालू प्रसाद और राबड़ी देवी के मुख्यमंत्री के कार्यकाल के दौरान अपने जीवन के प्रारंभिक वर्ष बिताए थे। अपने पिता के उत्तराधिकारी के रूप में तेजस्वी के चुने जाने से बहुत पहले, वे पटना के लुटियंस जोन कहे जाने वाले इलाके में स्थित इस बंगले में 1990 और 2005 के बीच रहते थे, जहां अब नीतीश का आधिकारिक निवास है। उस दौरान उनका ज्यादा समय किताबों से दूर गेंद और बल्ले के साथ वहां के लॉन में बीतता था। उसी परिसर में उन्होंने अपने क्रिकेट कौशल को निखारा, जिसकी बदौलत उन्हें बाद में झारखंड रणजी टीम और इंडियन प्रीमियर लीग के दिल्ली डेयरडेविल्स में जगह मिली।
लेकिन जब लालू को यह एहसास हुआ कि उनका अपना राजनैतिक भाग्य और भविष्य चारा घोटाले में लंबे समय से लंबित मुकदमों से जुड़ा है, तो उन्हें अपने बेटे के लिए मैचों के दौरान 12वें खिलाड़ी के रूप में मैदान में ड्रिंक्स परोसने की तुलना में राजनीति में बेहतर संभावनाएं दिखाई दीं। नतीजतन, उन्होंने तेजस्वी को वापस बुला लिया, और एक बिलकुल अलग तरह के खेल, राजनीति के लिए पैड बांधने को कहा। वे तब मुश्किल से 20 वर्ष के थे।
लगभग दस वर्ष बाद, बिहार में 28 अक्टूबर से शुरू हो रहे तीन चरण के मतदान में तेजस्वी नीतीश को लगातार चौथी बार मुख्यमंत्री बनने की उपलब्धि से वंचित करने के लिए महागठबंधन का नेतृत्व कर रहे हैं। अगर वे इस बार नीतीश को सत्ता से बेदखल करने में सफल होते हैं तो उन्हें देश के सबसे कम उम्र के मुख्यमंत्री बनने का गौरव प्राप्त होगा। लेकिन यह आसान नहीं है। उनकी लड़ाई लालू प्रसाद के समकालीन और उन्हीं की तरह जेपी आंदोलन से निकले हुए एक ऐसे सियासी योद्धा के खिलाफ है, जिसे ऐसे चुनावी रण में जाने का लंबा अनुभव है। नीतीश कुमार की जद (यू) राज्य में 15 साल से अजेय रही है; चाहे वह भाजपा के साथ लड़ी हो, उसे छोड़ कर राजद-कांग्रेस के साथ ‘धर्मनिरपेक्ष’ सहयोगी बनी हो या फिर भाजपा के पास फिर लौटी हो। इस बार, भाजपा के अलावा उसके साथ महादलित नेता जीतन राम मांझी और अत्यंत पिछड़ी जातियों (ईबीसी) के अगुआ मुकेश सहनी भी एनडीए का जनाधार बढ़ाने के लिए जुटे हैं। सबसे महत्वपूर्ण बात है कि नीतीश अब भी एक साफ-सुथरी छवि वाले नेता समझे जाते हैं, जिनकी प्रशासनिक क्षमता और जाति-ग्रस्त राज्य की राजनीति में जमीनी हकीकत की गहरी समझ रखने की काबिलियत के लोग कायल हैं। इन सब कारणों से पिछले किसी भी चुनाव में उन्हें सत्ता-विरोधी लहर का सामना नहीं करना पड़ा है। लेकिन क्या इस बार कुछ अलग होने की संभावना है?
विपक्ष को लगता है इसकी संभावना प्रबल है। उसके अनुसार, नीतीश कुमार का मौजूदा कार्यकाल सृजन जैसे गैर-सरकारी संगठन के घोटाले और मुजफ्फरपुर बालिका आश्रय गृह में हैवानियत जैसी घटना के साथ-साथ लॉकडाउन के दौरान कोविड और प्रवासी मजदूरों के पलायन से उत्पन्न स्थिति से कथित रूप से ठीक से नहीं निपटने के कारण, बेदाग नहीं रहा है। इसके अलावा, उसे यह भी उम्मीद है कि एनडीए खेमे के भीतर मौजूद ‘नीतीश के आतंरिक दुश्मन’ भी उनके खिलाफ षड्यंत्र कर रहे हैं, जिसका लाभ उसे मिलेगा। आश्चर्य नहीं, उनके खिलाफ चाकू की धार तेज की जा रही है और उनके कवच को भेदने की पूरी तैयारी चल रही है।
इस मुहिम में तेजस्वी के अलावा विपक्ष की बड़ी फौज है। उपेंद्र कुशवाहा और पप्पू यादव जैसे दिग्गजों से लेकर पुष्पम प्रिया चौधरी जैसे कई नवोदित नेता मुख्यमंत्री पद के दौड़ में शामिल हैं और अपनी बारी का इंतजार कर रहे हैं। उन्हें उम्मीद है कि इस चुनाव के बाद के बदले हुए राजनैतिक परिदृश्य में उन्हें मौका मिल सकता है, खासकर अगर फरवरी 2005 के चुनाव परिणाम की पुनरावृत्ति होती है, जब एक खंडित जनादेश ने बिहार को राजनैतिक अनिश्चितता में डाल दिया था।
इनमें सबसे खास हैं लोक जनशक्ति पार्टी (लोजपा) के प्रमुख चिराग पासवान, जिन्होंने अपने कौतूहल भरे एजेंडे के साथ इस चुनाव के स्क्रिप्ट में एक नया मोड़ दिया है। वे हाल ही में नीतीश के साथ वैचारिक मतभेदों का हवाला देते हुए एनडीए से बाहर चले गए, लेकिन वे भाजपा के नरेंद्र मोदी, जो नीतीश के लंबे समय तक सहयोगी रहे हैं, की शान में अब भी कसीदे पढ़ रहे हैं। एक तरफ, उन्होंने जद (यू) के खिलाफ लोजपा के उम्मीदवारों को मैदान में उतारा है, तो दूसरी ओर, चुनाव के बाद बिहार में ‘मोदी का विकास मॉडल लागू करने’ के लिए भाजपा-लोजपा सरकार के गठन की बात कर रहे हैं। जिन्हें इस चुनाव की बारीकियों का अंदाजा नहीं है, उन्हें भी इसमें पर्दे के पीछे रची जा रही साजिश की बू आ रही है। चुनाव मैदान में ऐसे कुछ लोजपा उम्मीदवारों की उपस्थिति, जो हाल तक भगवा झंडा पकड़े हुए थे, से ऐसे अनुमानों को बल मिला है। उनमें से एक, बिहार-झारखंड में आरएसएस के पुराने नेता नेता, राजेंद्र सिंह भी शामिल हैं। उन्हें 2015 के बिहार चुनाव में भाजपा के संभावित सीएम उम्मीदवार के रूप में पेश किया गया था।
सवाल यह है कि क्या चिराग का फैसला वाकई भाजपा के इशारे पर बिहार में नीतीश की पकड़ को कमजोर करने के लिए है या यह उनकी अपनी पार्टी को पुनर्जीवित करने की महत्वाकांक्षी योजना है? अभी इस पर किसी निष्कर्ष तक पहुंचना कठिन है, लेकिन इससे जद (यू) के नेता अच्छे-खासे परेशान दिखते हैं। उनमें से एक ने पासवान जूनियर की तुलना महान कवि कालिदास से की है, जिनके बारे में किंवदंती है कि वे जिस पेड़ की शाखा पर बैठे थे, उसे ही काटने को आतुर थे। सुशील कुमार मोदी जैसे वरिष्ठ भाजपा नेता नीतीश को लगातार आश्वस्त करने की कोशिश कर रहे हैं कि, चाहे गठबंधन में कोई भी पार्टी अधिक सीटें जीते, वे ही मुख्यमंत्री रहेंगे। भाजपा के राष्ट्रीय महासचिव और बिहार चुनावों के लिए पार्टी के प्रभारी भूपेंद्र यादव भी जोर देकर कहते हैं कि भाजपा-लोजपा के कथित सौदे की बात सफेद झूठ, मनगढ़ंत और काल्पनिक है। वे आउटलुक से कहते हैं, "हमारा गठबंधन जद (यू) के साथ है और हम जद (यू) के साथ चुनाव लड़ रहे हैं।"
यहां तक कि भाजपा के प्रदेश अध्यक्ष संजय जायसवाल ने किसी भी पार्टी (मतलब लोजपा) के खिलाफ प्राथमिकी दर्ज कराने की धमकी दी है, यदि वह अपने अभियान में प्रधानमंत्री की तस्वीरों का उपयोग करती है। इसके अलावा, पार्टी ने एनडीए के खिलाफ चुनाव लड़ने वाले सभी नेताओं को निष्कासित कर दिया है। भाजपा के राष्ट्रीय मीडिया सह-प्रभारी संजय मयूख कहते हैं कि बिहार चुनाव विकास के मुद्दे पर लड़ा जा रहा है और नीतीश कुमार-सुशील कुमार मोदी की जोड़ी फिर से सरकार बनाने जा रही है। वे कहते हैं, “कोई टक्कर है ही नहीं। महागठबंधन अपनी शैशवावस्था में ही मृत हो गया है।”
बहरहाल, चिराग फैक्टर ने जद (यू) और भाजपा के बीच अविश्वास कि खाई को और गहरा बना दिया है, जो 2010 के उस घटनाचक्र की याद दिलाता है, जब पटना में भाजपा की राष्ट्रीय कार्यकारिणी के दौरान नीतीश ने मोदी की उपस्थिति के कारण वरिष्ठ भाजपा नेताओं के सम्मान में आयोजित रात्रिभोज रद्द कर दिया था। मोदी उस समय गुजरात के मुख्यमंत्री थे। उसके तीन साल बाद, एनडीए के प्रधानमंत्री पद के उम्मीदवार के रूप में मोदी के नाम की घोषणा के बाद नीतीश ने भाजपा के साथ नाता तोड़ लिया था, और 2015 के विधानसभा चुनावों में राजद और कांग्रेस के साथ ‘सेक्युलर गठबंधन’ के नेता के रूप में जीत हासिल की थी। पाला बदलकर वे 2017 में एनडीए में पुनः लौटे तो जरूर, लेकिन तब तक गठबंधन के भीतर समीकरण बदल गए थे और उनकी स्थिति पहले जैसी नहीं रही।
मोदी-अमित शाह के दौर में नीतीश निस्संदेह गठबंधन में अपनी पुरानी जमीन बचाने में सफल नहीं हो पाए हैं। 2019 के लोकसभा चुनाव में, जद (यू) और भाजपा दोनों ने 17-17 सीटों पर चुनाव लड़ा और इस चुनाव में भी, उन्होंने सीटों को लगभग समान रूप से विभाजित किया है। लेकिन हमेशा ऐसा नहीं था। 2005 के विधानसभा चुनाव के बाद से, जद (यू) ने हमेशा बड़े भाई की भूमिका निभाई थी। फरवरी 2005 में जद (यू) ने 138 और भाजपा ने 103 सीटों पर चुनाव लड़ा था, जबकि उसी साल नवंबर में हुए अगले चुनाव में उनकी संख्या क्रमशः 139 और 102 थी। 2010 में जद (यू) 141 सीटों पर लड़ी, जबकि भाजपा को शेष 102 सीटें मिलीं। नीतीश 2009 के लोकसभा चुनावों में भी 40 में से 25 सीटें हासिल करने में सफल रहे थे।
यही नहीं, वाजपेयी-आडवाणी युग में नीतीश को 2000 में सात दिनों तक चलने वाले एनडीए शासन में मुख्यमंत्री बनाया गया था। हालांकि भाजपा के पास उस समय नीतीश की तत्कालीन समता पार्टी (34) से अधिक सीटें (67) थीं। उस समय लालू यादव को सत्ता से बाहर करने के लिए भाजपा को नीतीश जैसे स्वच्छ छवि वाले ओबीसी नेता की जरूरत थी। इसलिए उन्हें नवंबर 2005 के चुनाव से पहले एनडीए के मुख्यमंत्री उम्मीदवार के रूप में पेश किया गया, जिससे उनके गठबंधन को फायदा हुआ और पहली बार बहुमत मिलने का मार्ग प्रशस्त हुआ।
हालांकि यह समीकरण 2014 में केंद्र में मोदी के सत्ता में आने के बाद और पांच साल बाद उनके अपने प्रदर्शन को दोहराने के बीच बदलना शुरू हो गया था। पिछले साल नीतीश को एक बड़ा झटका लगा जब लोकसभा चुनाव के बाद उनकी पार्टी को केंद्र सरकार में केवल एक मंत्री पद की पेशकश की गई, इसके बावजूद कि उनकी पार्टी के 16 सांसद थे। नीतीश ने सरकार में शामिल नहीं होने का फैसला किया और भाजपा ने भी उन्हें इस पर पुनर्विचार करने की अपील नहीं की।
तब से अनुमान लगाए जा रहे हैं कि भाजपा लंबे समय तक राज्य में पिछलग्गू रहने के बाद नीतीश को किनारे कर गठबंधन में अग्रणी भूमिका निभाने की आकांक्षा लिए बैठी है। इसी पृष्ठभूमि के कारण राजनीतिक टिप्पणीकार यह समझ रहे हैं कि चिराग के अलग चुनाव लड़ने की मंशा के पीछे कोई खिचड़ी जरूर पक रही है। जद (यू) नेताओं को आशंका है कि लोजपा भले ही अधिक सीट न जीत पाए, लेकिन उसके उम्मीदवारों से उनको नुकसान पहुंच सकता है। आखिकार, बहुकोणीय विधानसभा चुनाव में कुछ सौ वोटों का अंतर भी खेल बिगाड़ सकता है।
जद (यू) के लिए यह भी चिंताजनक बात है कि भाजपा ने अभी तक कोई बयान नहीं दिया है, जिसे पता चले कि लोजपा अब राष्ट्रीय स्तर पर एनडीए का हिस्सा है या नहीं? यह भी नहीं स्पष्ट किया गया है कि चिराग को अपने पिता रामविलास पासवान, जिनका हाल ही निधन हो गया, के स्थान पर कैबिनेट मंत्री नहीं बनाया जाएगा। पिछले कुछ हफ्तों में मोदी ने नीतीश की क्षमताओं की बार-बार प्रशंसा की, इसके बावजूद राजनैतिक टिप्पणीकार इस संभावना को खारिज नहीं करते हैं कि चिराग भाजपा के ‘प्रॉक्सी’ के रूप में मैदान में उतरे हैं।
लगता है, नीतीश ने भी जवाबी रणनीति बना ली है। राज्य कांग्रेस के पूर्व अध्यक्ष अशोक चौधरी को जद (यू) का कार्यकारी अध्यक्ष नियुक्त करना उनकी जवाबी कार्रवाई के रूप में देखा जा रहा है। राजनीतिक विश्लेषक नवल किशोर चौधरी कहते हैं, “चुनाव के बाद अगर नीतीश को कांग्रेस और राजद के समर्थन की आवश्यकता होगी, तो सोनिया गांधी लालू यादव को आसानी से मना सकती हैं ताकि भाजपा को सत्ता से बाहर रखा जा सके। आखिरकार उनके लिए नीतीश भाजपा से बेहतर विकल्प हैं।” चौधरी के अनुसार भले ही तेजस्वी महागठबंधन के मुख्यमंत्री पद के उम्मीदवार हैं, लेकिन जरूरत पड़ने पर सोनिया, लालू से नीतीश का समर्थन करने का अनुरोध कर सकती हैं। वे कह सकती हैं कि तेजस्वी अभी युवा हैं और भविष्य में उन्हें कई मौके मिलेंगे। चौधरी के अनुसार, भाजपा चिराग के कंधे से बंदूक चला नीतीश जैसे मास्टर राजनीतिक रणनीतिकार को कम आंकने का जोखिम नहीं उठा सकती है। वे कहते हैं, “याद कीजिए कि पिछले चुनाव में क्या हुआ था।”
अपनी ओर से नीतीश हमेशा की तरह आशवस्त दिख रहे हैं। वे कहते हैं, “लोगों की सेवा करना मेरा धर्म है। अगर मुझे जनता का जनादेश दोबारा मिल जाता है, तो मैं बिहार की सेवा करता रहूंगा।” उन्होंने पहले ही अपने अगले कार्यकाल के लिए ‘सात निश्चय भाग 2’ नाम से अपनी आगामी विकास योजनाओं की पोटली मतदाताओं के समक्ष रख दी है। पंचायत चुनावों में महिलाओं के लिए 50 प्रतिशत आरक्षण से लेकर बाहुबलियों को सलाखों के पीछे पहुंचाने तक और समावेशी विकास के साथ-साथ दस प्रतिशत से अधिक की विकास दर सुनिश्चित करने जैसे कई कदमों के कारण उनकी उपलब्धियों की फेहरिस्त उनकी सरकार की खामियों से लम्बी है। आज भी यही उनकी सबसे बड़ी ताकत है।
लेकिन नीतीश यह भी जानते हैं कि सिर्फ विकास कार्य ही उस राज्य में पर्याप्त नहीं है जहां जातीय अंकगणित जैसे कारक अब भी मायने रखते हैं। इसलिए, वह लोगों को यह याद दिलाना नहीं भूलते कि लालू के ‘जंगल राज’ के बाद उन्हें कैसा राज्य विरासत में मिला था और कैसे उन्होंने बिहार की किस्मत बदल दी। इसके अलावा, उन्होंने इस बार टिकट वितरण में मुसलमानों सहित सभी वर्गों को पर्याप्त प्रतिनिधित्व देने का भी ध्यान रखा है। अपने पारंपरिक अति पिछड़ा और ओबीसी आधार को मजबूत करने के अलावा, उन्होंने लालू पर व्यक्तिगत लाभ के लिए मुस्लिम और यादव की उपेक्षा करने का आरोप लगाकर उनके ‘माय’ वोट बैंक में सेंध लगाने की कोशिश भी की है। खासकर, उन्होंने अपनी महिला वोट बैंक को शराबबंदी जैसे कदमों से मजबूत करने की कोशिश की है, जिसके कारण 2010 के बाद से ही उन्हें सभी चुनावों में अपने प्रतिद्वंद्वियों पर बढ़त मिली है। समाज विज्ञानी ज्ञानदेव मणि त्रिपाठी कहते हैं, “हालांकि जाति अब भी सबसे बड़ा मुद्दा है, लेकिन नीतीश ने महिलाओं के सपनों को बगैर उनकी जाति और धर्म के आधार पर पंख दिए हैं। वे उनके सबसे बड़े वोट बैंक हैं। याद कीजिए, जिन लड़कियों को अपने पहले कार्यकाल में नीतीश से साइकिल मिली थी, वे सब अब नए मतदाता हैं। वे किसी और को वोट नहीं देंगे। वह एक दीर्घकालिक राजनीतिक निवेश था जो हर चुनाव में नीतीश को फायदा पहुंचाएगा। बिहार में कोई अन्य राजनेता ऐसा नहीं कर पाया है।”
हालांकि राजद का मानना है कि हाल के दिनों में बढ़ती बेरोजगारी, कोविड-19 की खराब स्थिति और लॉकडाउन के दौरान लाखों प्रवासी कामगारों की उपेक्षा के करण ने नीतीश सरकार की विदाई अब तय है। तेजस्वी को लगता है कि राजद के नेतृत्व वाली सरकार के लिए सत्ता संभालने का मंच तैयार है। वे कहते हैं, “हम विकासोन्मुख राजनीति को आगे बढ़ाने के लिए चुनावी लड़ाई में हैं और हम इसे जनहित के मुद्दों पर मजबूती से लड़ रहे हैं। हम पिछले 15 वर्षों में बढ़े बेरोजगारी और पलायन जैसे ज्वलंत मुद्दों को दूर करने के लिए प्रतिबद्ध हैं।”
तेजस्वी ने यह भी घोषणा की है कि अगर उनकी गठबंधन सरकार बनती है, तो अपने पहले कैबिनेट फैसले में वे युवाओं को दस लाख सरकारी नौकरियां प्रदान करेंगे। बिहार में बेरोजगारी दर 46 प्रतिशत तक बढ़ने और हर जगह आर्थिक मंदी के कारण प्रदेश में नौकरियां और भी कम हो गई हैं। हजारों प्रवासी, जो लॉकडाउन के दौरान घर लौट आए थे, अब वापस दूसरे राज्यों में काम की तलाश में वापस चले गए हैं। तेजस्वी अपनी ओर से चुनाव जीतने की पूरी कोशिश कर रहे हैं, यहां तक कि 15 साल के राजद कार्यकाल के दौरान किसी भी भूलचूक के लिए उन्होंने सार्वजनिक रूप से माफी भी मांगी हैं। हालांकि नीतीश ‘जंगल राज’ के दिनों का बार-बार स्मरण कराने से नहीं चूकते, फिर भी तेजस्वी जनता से अतीत को भुलाकर एक मौका मिलने की उम्मीद रख नई शुरुआत करना चाह रहे हैं।
लेकिन इस चुनाव में क्या बिहार के मतदाता एक ताजा चेहरे को चुनेंगे या एक बार फिर अनुभवी सुशासन बाबू को ही मौका देंगे, यह सवाल बना हुआ है। या कहीं बिहार में फरवरी 2005 की तरह एक त्रिशंकु विधानसभा बनने जा रही है, जब लोजपा किंगमेकर की भूमिका में उभरी थी? इन सब सवालों के उत्तर अभी या तो मतदाताओं के मन में हैं या भविष्य के गर्भ में। हमें इसका कोई इल्म नहीं। ‘लेट द बेस्ट मैन विन (जो सर्वोत्तम है, वही जीते)’।
जातियों का रुझान
ऊंची जातियांः इसमें ब्राह्मण, राजपूत, भूमिहार और कायस्थ प्रमुख हैं। जिन्हें मुख्य रूप से भाजपा का समर्थक माना जाता है। लेकिन भाजपा के इस वोट बैंक में कांग्रेस ने भी थोड़ी सेंध लगाई है। इसके अलावा पिछले 15 साल में नीतीश ने भी विकास कार्यों के जरिए इन जातियों में अच्छी खासी पैठ बनाने की कोशिश की है।
महादलितः इसके तहत राज्य में करीब 22 अनुसूचित जातियां शामिल हैं। पिछले कुछ विधानसभा चुनावों में नीतीश कुमार ने कल्याणकारी योजनाओं के जरिए इनके बीच एक बड़ा वोट बैंक बनाया है। साथ ही मुसहार नेता जीतन राम मांझी के दोबारा एनडीए में शामिल होने से उसका वोट बैंक मजबूत हुआ है। राज्य में दुसाध (पासवान) समुदाय का वोट रामविलास पासवान की मृत्यु के बाद चिराग को बड़ी मात्रा में मिलने की संभावना है। दूसरी तरह राजद को यूनाइटेड लेफ्ट फ्रंट का साथ मिलने से महागठबंधन को वंचित वर्ग का वोट भी भारी संख्या में मिलने की उम्मीद है।
मुस्लिमः पिछले कुछ चुनावों से मुस्लिम वोट राजद, जनता दल यूनाइटेड और कांग्रेस में बंटता रहा है। हालांकि इस बार ऐसी संभावना है कि बड़ी संख्या में मुस्लिम वोट महागठबंधन के खाते में जाएगा। जिस तरह से पिछले चुनाव के बाद नीतीश कुमार ने नरेंद्र मोदी का दामन थाम लिया था, उससे भी इस समुदाय में उनके खिलाफ नाराजगी है।
ओबीसी-ईबीसीः सत्ता हासिल करने के लिए असली लड़ाई राजनीतिक दलों में ओबीसी और ईबीसी मतदाताओं को लुभाने की है। इन दोनों समुदाय में करीब 125 जातियां आती है। हालांकि यादव वोट तो एक बार फिर लालू प्रसाद के साथ ही जाएगा, वहीं कुर्मी वोट भी परंपरागत रूप से नीतीश का ही साथ देगा। इसके अलावा एनडीए को कोयरी (कुशवाहा) , और वैश्य का वोट भी इस बार हासिल होने की उम्मीद है। हालांकि कोयरी नेता और पूर्व केंद्रीय मंत्री उपेंद्र कुशवाहा ने बहुजन समाज पार्टी और असुद्दीन ओवैसी के एआइएमएम के साथ तीसरा मोर्चा बना लिया है। जिसका भी असर चुनावों में दिखेगा