विधानसभा की 200 सीटों वाले राजस्थान में 2023 के चुनाव की तैयारियां आखिरी दौर में हैं। पिछले तीस साल में पहली बार कांग्रेस सत्ता में होने के बावजूद आक्रामक दिख रही है और भाजपा नेतृत्वविहीन लग रही है। भाजपा पीढ़ीगत बदलाव की चाहत रखती है, लेकिन वसुंधरा राजे के नेतृत्व वाली पुरानी पीढ़ी को हाशिये पर धकेलने का साहस नहीं जुटा पा रही है। यह बात अलग है कि भाजपा आलाकमान ने एक नई पीढ़ी राजस्थान में तैयार कर दी है। ये चेहरे प्रदेश में कई इलाकों, वर्गों और जातियों से आते हैं, लेकिन वे खुद भी इस चुनाव में बड़ी चुनौतियों का सामना कर सकते हैं। कांग्रेस के विधायकों के प्रति मतदाताओं का असंतोष जाहिर है, लेकिन सरकार और मुख्यमंत्री अशोक गहलोत खुले रोष से बचे हुए हैं।
ढाई दशक पहले 1998 में जब भैरोंसिंह शेखावत के नेतृत्व में भाजपा बुरी तरह हारी थी, तब पार्टी के भीतर एक उद्वेलन हुआ था। उस नाकामी से वसुंधरा राजे नए चेहरे के रूप में उभर कर बड़ी ताकत बनी थीं। भाजपा का सियासी कारवां उनके माध्यम से ही सूबे में आज तक आगे बढ़ता रहा है। कांग्रेस की सरकार जब 1998 में बनी, तो पार्टी आलाकमान ने पुराने नेताओं की भीड़ को दरकिनार कर के तेजतर्रार नए चेहरे अशोक गहलोत पर भरोसा किया और सरकार की कमान उन्हें दी। आज किसी भी को यह पच नहीं रहा है कि वसुंधरा के बिना भाजपा चुनाव में उतर सकती है। अभी तक यह स्पष्ट नहीं है कि वसुंधरा राजे इस चुनाव में उसी भूमिका में रहेंगी, जिसमें वे 2003 से लगातार दो दशक तक बनी रही हैं।
दस अलग-अलग दिलो-दिमाग वाले सियासी इलाकों में सिमटी प्रदेश की 200 सीटों की राजनीति को गहलोत ने कमाल तरीके से समझा और कांग्रेस पर कभी भी अपनी पकड़ कमजोर नहीं होने दी, भले ही मतदाता उनसे दूर छिटकता रहा। उनकी पहली सरकार बुरी तरह हारी और कांग्रेस 153 से 56 सीटों पर आकर सिमट गई। वह 2003 का चुनाव था और भाजपा का नेतृत्व तब वसुंधरा राजे के हाथ में था। उस चुनाव से भाजपा को ही नहीं, राजस्थान को भी एक बड़ा चेहरा मिला। प्रदेश की पुरुष वर्चस्वशाली राजनीति में पार्टी के बाहर और भीतर वसुंधरा लगातार निशाने पर रहीं, लेकिन उन्होंने अपने आपको एक सशक्त नेता के रूप में स्थापित किया। 2013 के चुनाव में उनके नेतृत्व में भाजपा को 45.17 प्रतिशत वोट मिला और भाजपा की सरकार बनी। उनकी सरकार पर भ्रष्टाचार के आरोप भी लगे, लेकिन वे सत्ता में लौटने के लिए लड़ीं और करिश्माई कामयाबी पाई। इस बार इस कामयाबी की संभावनाएं धुंधलके में हैं।
सचिन पायलट
यह सच है या सिर्फ कल्पना, यह तो भाजपा का शीर्ष नेतृत्व ही बता सकता है, लेकिन 2023 के चुनाव में भाजपा शायद किसी नए प्रयोग की ओर बढ़ रही है। इस बार कांग्रेस की सरकार को टक्कर देने उतरा प्रतिपक्ष चेहराविहीन है और इसे आलोचक बिना दूल्हे की बारात बता रहे हैं। यह वही तंज है, जो भाजपा अपने प्रतिपक्षी गठबंधन पर राष्ट्रीय स्तर पर करती आई है। वसुंधरा को लेकर भाजपा का रवैया असमंजस भरा है। इसे अगर एक साहित्यिक इबारत के रूप में समझा जाए, तो जिस समय वे मंजिल के बेहद करीब हैं, उन्हें कारवां से दूर रखा जा रहा है।
उधर, गहलोत के नेतृत्व में राजस्थान इस बार कांग्रेस के एक ऐसे आक्रामक मुख्यमंत्री को देख रहा है जो सादगी और शुचितावाद की राजनीति को परे रखकर जैसे को तैसे वाले रूप में सबके सामने है। अशोक गहलोत अपने प्रथम संस्करण (1998-2003) से द्वितीय (2008-2013) और तृतीय (2018-2023) तक एकदम अलग नजर आ रहे हैं। उनके नेतृत्व में कांग्रेस की सरकार 2013 का चुनाव बुरी तरह हारी और महज 21 सीटों पर सिमट गई थी। वसुंधरा के नेतृत्व में भाजपा को 163 सीटों का ऐतिहासिक बहुमत मिला था। यह ठीक वैसे ही था, जैसे 1998 में कांग्रेस को 44.95 प्रतिशत वोटों के साथ 153 सीटें मिली थीं, जबकि भाजपा 2013 में 45.17 प्रतिशत वोटों के साथ 163 सीटों तक पहुंची थी। प्रदेश की सियासत की हकीकत साफ बता रही थी कि 1998 राजस्थान की सियासत से भैरोसिंह शेखावत की विदाई की पुकार लेकर आया तो 2013 के चुनाव नतीजों ने गहलोत के प्रति पार्टी हाईकमान को गुस्से से भर दिया। इस हकीकत के बावजूद कि लोकसभा चुनाव में कांग्रेस का निस्तेज नेतृत्व भाजपा के 31 प्रतिशत वोटों के साथ 282 सीटों के मुकाबले 19.31 प्रतिशत वोटों के साथ महज 44 सीटों पर सिमट गया। इस दौरान आलाकमान ने गहलोत की विदाई की सोची और प्रदेश में एक नए नेतृत्व के तौर पर सचिन पायलट को कमान सौंपी। अब चाहे गहलोत हों या वसुंधरा, राजस्थान के नेताओं का अपनी मिट्टी से प्रेम कहें या मुख्यमंत्री की कुर्सी से, उनका मोहभंग होना इतना आसान नहीं है।
गहलोत ने अपनी रणनीति बदलकर अपने आपको विधायकों के आश्चर्यजनक समर्थन से इतना मजबूत कर लिया कि न उन्हें आंतरिक विद्रोह हिला पाया और न ही आलाकमान की चाहत। आलाकमान ने पहली बार 2013 में पायलट को जब कमान सौंपी तो उसे साफ पता चल गया था कि राजस्थान कांग्रेस में क्या होने जा रहा है। जब चुनाव आया तो गहलोत ने विधायकों का समर्थन हासिल करने में रणनीतिक कौशल का परिचय दिया और महज 100 सीटों के साथ अपनी सरकार बनाई। इस मुकाम पर आकर सचिन पायलट आलाकमान के वरदहस्त के बावजूद पिछड़ गए। आज वसुंधरा राजे के सामने कुछ-कुछ वैसे ही हालात हैं, जो आज से दस साल पहले अशोक गहलोत के सामने थे। राजस्थान की राजनीति के प्रेक्षक निगाहें लगाए हैं कि राजस्थान की एक करिश्माई नेता बन चुकीं वसुंधरा राजे क्या अशोक गहलोत जैसी रणनीतिक सफलता हासिल कर पाती हैं या वे दिग्गज नेता शेखावत की तरह इतिहास के पन्नों में चली जाएंगी या फिर हाईकमान के निर्णय पर ही अपने भाग्य को छोड़ देंगी।
राजस्थान के लिए 2023 का चुनाव एक नए ही अंदाज में लड़े जाने के लिए तैयार है। मुख्यमंत्री अशोक गहलोत ने न केवल अपनी सरकार की कई बेहद आकर्षक योजनाएं धरातल पर उतारी हैं, बल्कि वे पूरे देश में अकेले ऐसे मुख्यमंत्री हैं जिन्होंने भाजपा के ऑपरेशन लोटस को बुरी तरह फ्लॉप कर दिया। यही नहीं, जिस समय आलाकमान के भेजे दूतों ने उन्हें सत्ता से हटाकर केंद्र में बुलाने की कोशिश की तो वे इसे बहुत पहले भांप गए और उन्होंने बड़ी ही सफाई और नफासत से अपना पद बचाया। इस तरह गहलोत इस कार्यकाल में भीतरी और बाहरी लड़ाइयों में आश्चर्यजनक रूप से कामयाब रहे हैं।
कांग्रेस के भीतर गहलोत ने अपने प्रतिद्वंद्वी सचिन पायलट को चुनाव संबंधी किसी भी कमेटी में प्रमुख पद नहीं लेने दिया है। मुख्यमंत्री बनने का स्वप्न देखने वाले पायलट को जब पद नहीं मिला और आलाकमान अशोक गहलोत के सामने बेबस नजर आया, तो उम्मीद की गई कि पायलट को चुनाव के समय कैंपेन कमेटी का चेयरमैन तो बना ही दिया जाएगा। आश्चर्यजनक रूप से इस पद पर अशोक गहलोत के समर्थक मंत्री और दलित नेता गोविंदराम मेघवाल को बैठा दिया गया।
विधानसभा चुनाव से ठीक पहले नए सिरे से गठित कांग्रेस कार्यसमिति (सीडब्ल्यूसी) में पायलट समेत राजस्थान कांग्रेस के सात नेताओं को शामिल कर के राष्ट्रीय अध्यक्ष मल्लिकार्जुन खड़गे ने चुनाव से पहले राजस्थान के वरिष्ठ कांग्रेसी नेताओं में संतुलन साधने की कोशिश की है। कुल 39 सदस्यीय सीडब्ल्यूसी में पायलट समेत राजस्थान से शामिल किए गए छह नेताओं में पूर्व सांसद जितेंद्र सिंह, जल संसाधन मंत्री महेंद्रजीत सिंह मालवीय, अभिषेक मनु सिंघवी, पंजाब के प्रभारी हरीश चौधरी और मोहन प्रकाश हैं। राष्ट्रीय प्रवक्ता पवन खेड़ा विशेष आमंत्रित नौ सदस्यों में से एक हैं, वहीं राजस्थान के प्रभारी एवं पंजाब के पूर्व उपमुख्यमंत्री रहे सुखजिंदर सिंह रंधावा को भी सीडब्ल्यूसी में शामिल कर उनका कद बढ़ाया गया है। शीर्ष संगठन में राजस्थान के नेताओं को तरजीह देकर कांग्रेस आलाकमान ने दूसरी पारी के तौर पर अशोक गहलोत का रास्ता साफ करते हुए उनके ऊपर दूसरी बार कांग्रेस को सूबे में सत्ता में लाने की जिम्मेदारी सौंपी है।
सचिन पायलट इस समय चुप हैं और उनकी यह संयम भरी चुप्पी किसी बड़े राजनीतिक कदम का संकेत भी हो सकती है। पायलट की संयमित चुप्पी को प्रदेश की राजनीति के प्रेक्षक किसी तूफान के पहले वाली शांति से कम नहीं आंक रहे। उनके पीछे युवा मतदाताओं का एक वर्ग तो है ही, प्रदेश का गुर्जर मतदाता भी है जो 25 से 30 सीटों पर प्रभावी रूप से और इतनी ही सीटों पर अदृश्य रूप से परिणामों को प्रभावित करने की क्षमता रखता है। इस मतदाता का रुझान कांग्रेस की असाधारण लोकलुभावन योजनाओं पर पानी फेर सकता है। गुर्जर मतदाताओं की एक बड़ी पट्टी है जो दक्षिण-पूर्वी राजस्थान को प्रभावित करती है। इस बेल्ट में पिछली बार भाजपा बुरी तरह हारी थी। सिर्फ वसुंधरा राजे के प्रभाव वाले इलाके में गुर्जर मतदाता भाजपा के साथ रह सका, बाकी में वह कांग्रेस के साथ इस उम्मीद में गया था कि सचिन पायलट मुख्यमंत्री बनेंगे। कांग्रेस इस बार इस मतदाता को अपने साथ नहीं रख सकी, तो नुकसान की आशंका है।
इस बीच एक कांग्रेस को बड़ा झटका देते हुए नागौर से पूर्व सांसद और दिग्गज नेता रहे नाथूराम मिर्धा की पोती ज्योति मिर्धा भाजपा में शामिल हो गई हैं। उनके साथ पूर्व आइपीएस सवाई सिंह ने भी भाजपा का दामन थाम लिया। ज्योति खुद नागौर से सांसद रही हैं और प्रदेश के जाट समुदाय पर मिर्धा परिवार की अच्छी पकड़ मानी जाती है। पिछली बार कांग्रेस और हनुमान बेनीवाल के बीच गठबंधन में सबसे बड़ा रोड़ा ज्योति ही थीं, जिनसे वफादारी के चक्कर में कांग्रेस ने बेनीवाल को नागौर की सीट देने से इनकार कर दिया था। अब इनके भ्ााजपा में जाने से बेनीवाल और भाजपा के गठबंधन की सूरत कमजोर पड़ गई है, लेकिन मेवाड़ के दो मजबूत कांग्रेसी जाट परिवारों में से एक का भाजपा में जाना गहलोत के लिए चिंताजनक है जबकि दूसरा मिर्धा परिवार भी बागी तेवर दिखा रहा है।
चेहरे का मामलाः भाजपा अध्यक्ष जेपी नड्डा के साथ वसुंधरा राजे
सार रूप में कहें, तो इस बार राजस्थान में न तो कांग्रेस की सरकार के खिलाफ हवा है और न ही मुख्यमंत्री अशोक गहलोत पिछली दो बार की तरह अलोकप्रिय हुए हैं। इस बार वे लोगों में बहुत सक्रिय हैं और उनकी सरकार लगातार नई से नई योजनाएं ला रही है, लेकिन बूथों के प्रबंधन, ब्लॉकों में अपनी मौजूदगी और जिला स्तर पर वातावरण बनाने में भाजपा के मुकाबले कांग्रेस कहीं नहीं है। चुनाव प्रबंधन में भाजपा का जमीनी कामकाज और तैयारियां कांग्रेस की तुलना में कहीं बेहतर हैं। उसे आरएसएस के आनुषंगिक संगठनों के कार्यकताओं का भी बल प्राप्त है।
गहलोत सरकार ने ओपीएस का बड़ा प्रयोग किया है, जिससे वह कर्मचारी वर्ग से समर्थन मिलने की उम्मीद रखती है। सामाजिक सुरक्षा की योजनाओं, मुफ्त इलाज, मुफ्त दवाएं, मुफ्त जांच, पशुपालकों, किसानों आदि के साथ बिजली क्षेत्र में की गई घोषणाएं नायाब बताई जा रही हैं, लेकिन असर की हकीकत तो चुनावी नतीजों के दौरान ही सामने आएगी। कांग्रेस को लाल डायरी जैसे प्रकरणों से नुकसान भी हुआ है।
बीते 19 अगस्त को मुख्यमंत्री अशोक गहलोत, सचिन पायलट, प्रभारी सुखजिंदर सिंह रंधावा और कांग्रेस प्रदेश अध्यक्ष गोविंद सिंह डोटासरा की मौजूदगी में हुई चुनाव समिति की पहली बैठक में अशोक गहलोत ने जल्द ही उम्मीदवारों के चयन का संकेत देते हुए कहा था कि जिताऊ उम्मीदवारों को टिकट देना प्राथमिकता होगी और इसमें उम्र आड़े नहीं आएगी, भले ही कर्नाटक के विधानसभा चुनाव की तरह कोई उम्मीदवार 90 साल का भी क्यों न हो। टिकट वितरण को लेकर गहलोत के इस बयान ने साफ कर दिया कि 2022 में उदयपुर में हुए कांग्रेस के राष्ट्रीय अधिवेशन में पारित किए गए युवाओं को टिकट में प्राथमिकता वाले प्रस्ताव का पालन नहीं होगा, बल्कि जीतने में सक्षम लोग ही उम्मीदवार होंगे। इनमें स्थानीय निकाय और पंचायती राज के प्रधान, प्रमुख, जिला परिषद सदस्य, पंचायत समिति सदस्य या पार्षद भी टिकट के लिए आवेदन कर सकते हैं।
कांग्रेस प्रदेश अध्यक्ष गोविंद सिंह डोटासरा ने आउटलुक को बताया, “उम्मीदवारों की चयन प्रक्रिया पर मंथन जारी है। लगातार कई दौर की बैठकें जारी हैं। टिकटों के लिए ब्लॉक और जिला कांग्रेस कमेटियों में आए हुए आवेदनों पर प्रदेश चुनाव समिति के सदस्य जिलों में जाकर टिकट के दावेदारों पर राय लेंगे। इसके बाद प्रत्येक सीट के लिए तीन से पांच दावेदारों का पैनल स्क्रीनिंग कमेटी से मंजूरी के बाद अंतिम मुहर के लिए दिल्ली भेजा जाएगा”। इस विधानसभा चुनाव में भाजपा के मुकाबले काफी पहले से कांग्रेस अपने उम्मीदवारों के चयन में जुट गई है ताकि हरेक सीट पर उम्मीदवार को प्रचार के लिए भरपूर समय मिल सके। आचार संहिता लगने से पहले ही तमाम सीटों पर उम्मीदवारों का चयन करने पर जोर दिया जा रहा है। मुख्यमंत्री गहलोत का कहना है कि इस बार ऐसी व्यवस्था करने की कोशिश है कि टिकटों के लिए दावेदारों को दिल्ली का ज्यादा चक्कर न काटना पड़े।
कांग्रेस और भाजपा के बीच इस बार एक फैक्टर बड़ा ही दिलचस्प है। यह फैक्टर है वसुंधरा राजे की उपेक्षा में कांग्रेस की और सचिन पायलट की अवहेलना में भाजपा की छुपी हुई उम्मीदें। सतह पर हालांकि प्रदेश की राजनीति में यह दृश्य बहुत अलग रूप में सामने आता है। अगर मुख्यमंत्री अशोक गहलोत से आप पूछें कि वे प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी और गृहमंत्री अमित शाह का मुकाबला कैसे करेंगे, तो वे जवाब देते हैं कि इन दोनों को ही चुनाव में लगेगा कि उनका पाला किससे पड़ा है। यह बात कुछ हद तक सच भी है क्योंकि उन्होंने कई मामलों में अपने और अपनी सरकार पर हुए हमलों में विरोधियों को छकाया भी है।
सही चुनावी तस्वीर तो उम्मीदवारों की घोषणा के बाद ही आएगी। फिलहाल, वसुंधरा राजे को इस बार राजनीतिक यात्रा निकालने की अनुमति अपनी पार्टी से नहीं मिली है। मतदाता उन्हें जिस अंदाज और तेवर में देखने की चाहत रखता है, वह अबकी नदारद है। वसुंधरा के विरोधी भी मानते हैं कि इसी वजह से भाजपा के अभियान में इस बार रंग और उल्लास नहीं है।
( लेखक वरिष्ठ पत्रकार हैं। साथ में हरीश मानव के इनपुट)