कतई दो राय नहीं कि ऐसे राज्य चुनाव कम ही हुए, जिनसे केंद्र की कुर्सी भी तय होने की संभावनाएं-आशंकाएं जुड़ी हों। दरअसल पांच राज्यों के चुनाव बस ड्योढ़ी पर खड़े हैं। उनमें मिजोरम और तेलंगाना भी सियासी रंगत और फिजा बदस्तूर बदलेंगे, लेकिन असली लड़ाई के मैदान तो हिंदी पट्टी के राजस्थान, मध्य प्रदेश और छत्तीसगढ़ हैं, जो संसदीय चुनाव के बस अगले ही मोर्चे पर गंभीर असर डाल सकते हैं, या कहें इसके आसार हैं। वजह यह कि उत्तर और पश्चिम भारत की इसी पट्टी में प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी की अगुआई में भारतीय जनता पार्टी (भाजपा) को 2014 से भी ज्यादा 2019 के संसदीय चुनावों में वोट हासिल हुए थे और यहां पार्टी कुछ भी सीटें गंवाने का जोखिम उठाने की हालत में नहीं है। ये वही राज्य हैं, जहां उसका मुकाबला मोटे तौर पर सिर्फ और सिर्फ कांग्रेस से है। इन्हीं मैदानों में दोनों पार्टियों के सियासी रंगो-आब का इम्तिहान होना है। इसलिए इन राज्यों के सिपहसालारों पर दोहरी जिम्मेदारी है। पिछली बार 2018 के विधानसभा चुनावों में इन तीनों राज्यों में जीत के बावजूद कांग्रेस संसदीय चुनावों में सूपड़ा साफ करवा चुकी थी, लेकिन आज, 2019 के बाद से नदियों में काफी पानी बह चुका है, हवा का रुख बदला है। ऐसे में दोनों पार्टियों और उनके सेनापतियों के आगे चुनौती यह है कि राज्य चुनावों में बेहतर प्रदर्शन करके संघीय चुनावों के लिए पुख्ता जमीन तैयार करें।
दरअसल महंगाई, बेरोजगारी, छोटे उद्योगों के बंद होने और काम-धंधों में मंदी की वजह से केंद्र के खिलाफ सत्ता-विरोधी लहर का ताप शायद राज्यों से ज्यादा है। हाल के कई जनमत सर्वेक्षणों में न सिर्फ इन मुद्दों पर लोगों की चिंताओं में भारी इजाफा दिखा है, बल्कि प्रधानमंत्री मोदी की लोकप्रियता के आंकड़े भी पहले के मुकाबले घटे हैं। उसके बरक्स कांग्रेस के पूर्व अध्यक्ष राहुल गांधी की लोकप्रियता में (खासकर भारत जोड़ाा यात्रा के बाद) न सिर्फ छलांग दिखा है (अलबत्ता मोदी से तकरीबन आधे पर दिखाए गए हैं), बल्कि इंडिया गठबंधन के जरिये मजबूत दावेदारी भी दिखाने की कोशिश की गई है, ताकि मोदी बनाम कौन का सवाल भी कुछ मंदा पड़ जाए। यही नहीं, कांग्रेस और विपक्षी गठबंधन अब खुलकर भ्रष्टाचार, क्रोनी कैपटलिज्म (याराना पूंजीवाद) और बढ़ती गैर-बराबरी का मुद्दा उठाकर नैरेटिव भी तैयार करने की कोशिश कर रहा है। भाजपा इसकी काट के लिए इंडिया बनाम भारत, राम मंदिर निर्माण, एक राष्ट्र एक चुनाव जैसे अपने किस्म के राष्ट्रवाद का नैरेटिव तैयार करने की कोशिश में दिखती है। भाजपा की कोशिश ऐसे कुछ और मुद्दे तथा सोशल इंजीनियरिंग की भी दिखती है।
इसी मायने में हिंदी पट्टी के इन राज्यों में दांव बड़े हैं। इन राज्यों की कुल 65 संसदीय सीटों (राजस्थान 25, मध्य प्रदेश 29 और छत्तीसगढ़ 11) में 2019 में भाजपा को 61 और उसके सहयोगी हनुमान बेनीवाल को 1 सीट हासिल हुई थी, हालांकि राजस्थान की नागौर सीट से सांसद बेनीवाल तीन कृषि कानूनों के खिलाफ किसान आंदोलन के दौरान एनडीए से अलग हो गए। अब भाजपा नागौर से 2014 और 2019 में हारीं कांग्रेस की ज्योति मिर्धा को अपने पाले में लाई है, ताकि जाटों की कुछ नाराजगी दूर की जा सके। इसलिए भाजपा की चुनौती संसदीय चुनावों में अपना प्रदर्शन दोहराने या कम से कम नुकसान होने देने की है। यहां गौर करने वाली बात यह भी है कि तकरीबन 45 सीटों पर भाजपा दो लाख से अधिक वोटों से जीती थी, लेकिन बाकी सीटों पर उसकी जीत का अंतर एक लाख या पचास हजार से भी कम रहा था। जाहिर है, राज्य चुनावों के प्रदर्शन से हवा बदली तो मुश्किल पेश आ सकती है। इसके बरक्स राज्य चुनावों में बेहतर प्रदर्शन से उसे संसदीय चुनावों के लिए फिजा तैयार करने में मदद ही नहीं मिल सकती, बल्कि यह भी साबित करने की कोशिश हो सकती है कि मोदी की लोकप्रियता बरकरार है।
उधर, कांग्रेस की चुनौती यह तो है ही कि उसे इन आधी या उसके आसपास संसदीय सीटें हासिल करनी हैं, लेकिन इसके लिए उसे राज्य चुनाव जीतना भी बेहद जरूरी है। अगर वह राज्य चुनावों में छत्तीसगढ़, राजस्थान की अपनी सरकारें बचा लेती है और मध्य प्रदेश जीत लेती है तो उसकी संभावनाएं कई गुना छलांग लगा सकती हैं और इंडिया गठजोड़ के नेतृत्व पर उसकी दावेदारी मजबूत हो सकती है। वैसे, इनमें दो राज्यों में भी कांग्रेस जीत जाती है, तब भी उसकी फिजा को बल मिल सकता है। अभी तक की संभावनाएं यही बताती हैं कि छत्तीसगढ़ और मध्य प्रदेश में वह बेहतर प्रदर्शन कर सकती है। छत्तीसगढ़ में मुख्यमंत्री भूपेश बघेल की सरकार फिलहाल न सिर्फ मजबूत स्थिति में दिख रही है, बल्कि भाजपा का चेहराविहिन होना भी उसे लाभ दे सकता है। मध्य प्रदेश में मुख्यमंत्री शिवराज सिंह चौहान लगातार लोकलुभावन योजनाओं की घोषणा कर रहे हैं, लेकिन उनके सामने दो चुनौतियां दिख रही हैं। एक, लगभग बीस साल से सत्ता में होने से सत्ता-विरोधी लहर का सामना कर पड़ सकता है। दूसरे, भाजपा में कई नेता अपने-अपने दावे ठोंकते दिख रहे हैं और कांग्रेस से टूटकर गया ज्योतिरादित्य सिंधिया का खेमा कुछ असंतुष्ट लगता है। फिर कई रसूखदार नेता भाजपा से टूटकर कांग्रेस में जा मिले हैं। इसके अलावा आरएसएस से जुड़े किसी छोटे गुट ने जनहित पार्टी बना ली है। इसका असर क्या होगा, यह तो कहना आसान नहीं लेकिन इतना साफ है कि शिवराज सरकार के खिलाफ असंतोष है।
इसके बरक्स कांग्रेस में कमलनाथ और दिग्विजय सिंह की जोड़ी में कम से कम ऊपर मतभेद नहीं दिख रहा है। फिर कांग्रेस मध्य प्रदेश में भी कर्नाटक की तरह शिवराज सरकार के भ्रष्टाचार के मुद्दों को हवा दे रही है। राजस्थान में कांग्रेस के खिलाफ सत्ता-विरोधी रुझान भी हो सकता है और राज्य की परंपरा भी है कि हर चुनाव में सरकार बदल जाती है, लेकिन कांग्रेस को राहत भाजपा में स्पष्ट नेतृत्व के अभाव से मिल सकती है। पूर्व मुख्यमंत्री वसुंधरा राजे अब भी कुछ अलग-थलग दिख रही हैं। मुख्यमंत्री अशोक गहलोत भी लगातार कल्याणकारी योजनाओं की बारिश किए जा रहे हैं। तीनों राज्यों की सियासी फिजा पर मौके से रिपोर्टें अगले पन्नों पर हैं।
गौरतलब यह भी है कि तीनों मुख्यमंत्री गहलोत, बघेल और शिवराज चौहान ओबीसी जातियों से हैं। तीनों ही अपने-अपने तौर पर बड़े मतदाता वर्ग पर डोरे डाल रहे हैं और कई योजनाएं उनके लिए ले आए हैं। गहलोत ने हाल ही में राज्य में मूल ओबीसी जातियों के लिए आरक्षण का ऐलान किया। मूल ओबीसी वहां वे कहलाते हैं, जो जाटों को ओबीसी की फेहरिस्त में शामिल करने के पहले से इस श्रेणी में हैं। कांग्रेस जाति जनगणना का मुद्दा पहले ही उठा रही है। अब भाजपा का फोकस भी ओबीसी पर है। 17 सितंबर को प्रधानमंत्री मोदी के जन्मदिन से दो हफ्ते तक केंद्र के सभी 70 मंत्री अलग-अलग राज्यों में विश्वकर्मा योजना का आरंभ करेंगे। ध्यान यह भी दें कि हाल में आरएसएस प्रमुख मोहन भागवत ने भी जाति भेदभाव का मुद्दा उठाया, जो संघ के पहले के रुख से कुछ अलग है।
ये सब संकेत हैं कि दांव कितना ऊंचा लगा हुआ है। अब देखना है कि इन तीनों राज्यों में ऊंट किस करवट बैठता है और किसकी राहें आसान करता है।