हिमाचल प्रदेश में 12 नवंबर को 68 विधानसभा सीटों के लिए हुए मतदान में पिछले 37 वर्षों के कीर्तिमान ध्वस्त हो गए। 75.6 प्रतिशत मतदान और पुरुषों के मुकाबले महिलाओं के 4.5 प्रतिशत अधिक मतदान से विपक्षी कांग्रेस को अप्रत्याशित परिणाम देखने को मिल सकते हैं। अक्सर चुनाव विशेषज्ञ अधिक मतदान को सत्ता-विरोधी लहर की तरह देखते हैं। कुछ इसे लोकप्रिय नेताओं का समर्थन बताते हैं। इस तर्क के दो प्रमुख उदाहरण हैं। 1990 में शांता कुमार के नेतृत्व में भाजपा ने 46 सीटें जीती थीं और जनता दल की 11 सीटों के सहयोग से सरकार बनाई थी। तब मतदान प्रतिशत 67.76 था। इसी तरह 1985 में जब वीरभद्र सिंह के नेतृत्व में कांग्रेस ने 58 सीटें जीतकर सरकार बनाई थी, तब मतदान प्रतिशत 70.36 था। उस समय भाजपा को केवल 7 सीटें हासिल हुई थीं। हिमाचल प्रदेश में यह परंपरा रही है कि सत्ताधारी पार्टी दोबारा चुनाव नहीं जीतती। भाजपा और कांग्रेस के बीच ही सत्ता का परिवर्तन होता है मगर इस बार का चुनाव पिछले चुनावों से अलग रहा है। छह बार के मुख्यमंत्री वीरभद्र सिंह का पिछले वर्ष निधन हो गया, तो कांग्रेस पार्टी बिना किसी मुख्यमंत्री उम्मीदवार के यह चुनाव लड़ी। यह असमंजस बरकरार है कि कांग्रेस जीतती है तो मुख्यमंत्री कौन बनेगा। पार्टी में मुख्यमंत्री पद हासिल करने की होड़ है।
उधर, सत्तारूढ़ भाजपा भी आश्वस्त नहीं है। 2017 में 78 वर्षीय प्रेम कुमार धूमल भाजपा की चुनावी जीत के बावजूद किनारे पर रह गए थे। पिछली बार सुजानपुर विधानसभा सीट की हार का बदला लेने की उनकी हसरत मौजूदा भाजपा नेतृत्व के रहते पूरी होती दिखाई नहीं दे रही है। मुख्यमंत्री जयराम ठाकुर को भाजपा ने अपना चुनावी चेहरा बनाया है। जयराम ठाकुर ने प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी, गृह मंत्री अमित शाह और भाजपा के राष्ट्रीय अध्यक्ष जेपी नड्डा के साथ मिलकर विधानसभा चुनाव का मोर्चा संभाला और कांग्रेस को कड़ी चुनौती दी। प्रधानमंत्री मोदी ने जनता की भावनाओं को भाजपा की तरफ मोड़ने का भरसक प्रयास किया।
भाजपा ने उत्तराखंड, उत्तर प्रदेश, मणिपुर और गोवा के विधानसभा चुनावों में जीत के बाद ‘रिवाज बदलेंगे’ का नारा बुलंद किया है। पार्टी ने स्पष्ट किया है कि प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी के जादू के आगे सत्ता-विरोधी लहर फीकी पड़ गई है। उधर, कांग्रेस के चुनाव प्रचार को दो बड़े झटके लगे। भारत जोड़ो यात्रा के कारण राहुल गांधी प्रचार में शामिल नहीं हो सके। कांग्रेस पार्टी के कद्दावर नेता वीरभद्र सिंह के निधन के बाद चुनाव प्रचार की सारी जिम्मेदारी नए चेहरों पर आ गई। वीरभद्र सिंह की पत्नी प्रतिभा सिंह और उनके पुत्र विक्रमादित्य सिंह चुनाव प्रचार के लिए अपेक्षाकृत नए हैं। राहुल गांधी की अनुपस्थिति में चुनाव प्रचार की बागडोर प्रियंका गांधी ने संभाली। प्रियंका गांधी ने पूर्व प्रधानमंत्री इंदिरा गांधी का जिक्र करके उनके 1971 में राज्य गठन के निर्णय को ऐतिहासिक बताकर जनता का दिल जीतने की कोशिश भी की।
बहरहाल, कांग्रेस की उम्मीदें बरकरार हैं। पुरानी पेंशन योजना के मामले ने भाजपा को बैकफुट पर ला दिया है। राज्य में 2.50 लाख सरकारी कर्मचारी हैं और 1.60 लाख पेंशन पाने वाले लोग हैं, इसलिए पुरानी पेंशन योजना विधानसभा चुनावों में महत्वपूर्ण भूमिका निभाएगी। कांग्रेस ने अपनी सभी सभाओं में कहा है कि वह सरकार गठन के बाद पहली कैबिनेट मीटिंग में पुरानी पेंशन योजना को पुनर्बहाल करेगी।
हिमाचल प्रदेश के वरिष्ठ पत्रकार प्रकाश लोहुमी कहते हैं, “पुरानी पेंशन योजना का मुद्दा विधानसभा चुनावों में सबसे महत्वपूर्ण मुद्दा है। भारी मतदान भाजपा को नुकसान दे सकता है। कांग्रेस पार्टी ने 18 वर्ष से 60 वर्ष की प्रत्येक महिला को 1500 रुपये देने की जो घोषणा की है, उसका भी प्रभाव पड़ा है।”
भाजपा के लिए 19 मौजूदा विधायकों का टिकट काटना, दो कैबिनेट मंत्रियों को अन्य जगह भेजना और वरिष्ठ मंत्री की जगह उनके बेटों को वरीयता देना मुसीबत साबित हो सकता है। इसके चलते भाजपा में विरोध का स्वर उठ खड़ा हुआ। भाजपा से 21 बागी नेता चुनाव लड़े। इनमें कृपाल परमार मुख्य हैं, जो पीएम मोदी के कॉल करने और समझाने के बावजूद मैदान में डटे रहे। बागी नेताओं के असर को मुख्यमंत्री जयराम ठाकुर ने भी कबूल किया। उनका कहना है कि आठ से नौ सीटों पर बागी नेताओं की वजह से असर पड़ेगा।
भाजपा के राष्ट्रीय अध्यक्ष जेपी नड्डा के लिए हिमाचल प्रदेश चुनाव अहम हैं। उन्होंने मुस्तैदी के साथ पूरे प्रदेश में चुनाव प्रचार किया है मगर उनके खुद के बिलासपुर क्षेत्र में चुनाव प्रचार के अंत तक बागी विधायक उनकी सरदर्दी का कारण बने रहे। जेपी नड्डा बिलासपुर सीट से चार बार चुनाव लड़े, जब वे कैबिनेट मंत्री और विपक्ष के नेता थे।
प्रधानमंत्री मोदी ने भी जेपी नड्डा के बिलासपुर के साथ संबंध को देखते हुए एम्स बिलासपुर की सौगात हिमाचल प्रदेशवासियों को दी है। 1470 करोड़ रुपये की यह परियोजना भाजपा की तरफ से अहम चुनावी घोषणा रही। कांग्रेस ने भाजपा सरकार को बेरोजगारी के मुद्दे पर घेरने की कोशिश की। आज राज्य में 8.50 लाख युवा बेरोजगार हैं। भाजपा के राज में सरकारी सेवाओं में नियुक्ति प्रक्रिया भी पारदर्शी नहीं रही है। इस कारण युवाओं में भारी असंतोष और आक्रोश है।
इसके साथ ही सेब उगाने वाले किसानों में भी भाजपा को लेकर आक्रोश है। भाजपा ने सेब पैकेजिंग बॉक्स पर जीएसटी बढ़ा दी थी और इसी बात से सेब किसान नाराज हैं। कीटनाशकों से सब्सिडी खत्म करने के निर्णय से भी भाजपा सेब किसानों के निशाने पर है। इसके कारण लगभग 15 से 16 सीटों पर भाजपा को नुकसान उठाना पड़ सकता है।
भाजपा की रणनीति है कि वह किसी भी तरह से अपने बागी नेताओं और निर्दलीय उम्मीदवारों से समर्थन प्राप्त कर ले और सरकार बनाने में सफल हो जाए। दूसरी ओर, कांग्रेस का कहना है कि इस बार भाजपा मध्य प्रदेश और कर्नाटक की तरह जनादेश के साथ खिलवाड़ करने में सफल नहीं हो पाएगी। मुख्यमंत्री पद के संभावित उम्मीदवार, विपक्ष के नेता मुकेश अग्निहोत्री कहते हैं, “हम 40 से अधिक सीटें जीत रहे हैं।”
बहरहाल, 8 दिसंबर को आने वाले नतीजे ही साफ करेंगे कि किसकी बाजी परवान चढ़ती है। कांग्रेस आई तो समझिए रिवाज कायम है, भाजपा आई तो समझिए रिवाज बदल गया।